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Monday 13 June 2016

एक बेचैन चील ..

एक चील को देखा है कई बार
तनहा थोड़ा बुज़ुर्ग सा
रोज़ सुबह घर के पास  
सूरज की पहली किरन के साथ
खुद भी चला आता है
ऊंची ऊंची इमारतों के बीच
कोनो कोने में झांकता घंटो उड़ा करता है
ऊपर से नीचे नीचे से ऊपर
कभी गोल गोल , कुछ खोजता हुआ
पंख के टुकड़े बिखराता यहाँ वहाँ
परेशां सा बस उड़ा करता है
सुनते भी है यहाँ पहले जंगल था
बहुत परिंदे थे बहुत चील भी थे
जंगल कटा तो सब उड़ गए
कोई चला गया इसका भी शायद  
जो वापिस नहीं आया
यूं हीं बेवजह उड़ा करता है
बेचैन चील ....




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