प्रेम ...
मानव हृदय प्रेम का अथाह सागर है
और अनहद प्रेम जब थमता नहीं मन में
तो छलक छलक जाता है
विवश होकर आकार लेता है
जटाजूटधारी कभी धनुर्धारी
कभी मोरपंख लगाकर बस
बाँसुरी बजाता है ...
कभी घुंगरू पहनकर
कभी चुनरी पहनकर
चार हाथ कभी आठ हाथ
वीणा मृदंग करताल
कभी तो बस इकतारा बजाता है
ईश्वर तो निराकार है
ये प्रेम ही तो है जो
सबकुछ साकार कर देता है ..
और अनहद प्रेम जब थमता नहीं मन में
तो छलक छलक जाता है
विवश होकर आकार लेता है
जटाजूटधारी कभी धनुर्धारी
कभी मोरपंख लगाकर बस
बाँसुरी बजाता है ...
कभी घुंगरू पहनकर
कभी चुनरी पहनकर
चार हाथ कभी आठ हाथ
वीणा मृदंग करताल
कभी तो बस इकतारा बजाता है
ईश्वर तो निराकार है
ये प्रेम ही तो है जो
सबकुछ साकार कर देता है ..
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