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Thursday 23 June 2016

she was love , her love was amazing ...

This poem is dedicated to a mystic ... she was unique , she kept silent throughout her life  ...her love was amazing like her ....

कुछ लेने को नहीं आती थी
वो कभी ...
यहाँ वहाँ भटका करती थी
यूँ ही शिविरों में ...
न कोई सवाल था उसके मन में
न कोई जवाब ही दिया मैंने कभी
बस एक अंतरंग नाता था उससे
एक चुप्पी सधी रहती थी हमेशा
उसके लब पर ..
कोई नाम पूँछे तो बस हस देती थी
मगर जब आती थी तो अपने साथ
एक हवा ले आती थी ...
एक किताब भी लिखी दी उसने
हर पन्ना कोरा था जिसका
हर पन्ना ...
और वो दोबारा नहीं आएगी
इस दुनिया में , यकीन है
सब जी लिया उसने यहाँ
और पाया  बस इतना
कभी बोला भी  तो बस इतना
" शब्द के पार , मौन के पार
मेरा साजन है उस पार "


बस इतना ....



Tuesday 14 June 2016

behind me - dips eternity
before me - immortality
myself - the term between


मरता नहीं कभी कोई
मौत कहीं नहीं आती
आती तो ज़िंदगी है
कुछ वक़्त को कभी
जैसे ऊम्र दरख्तों की होती
मिट्टी तो बस मिट्टी होती
पर हमेशा होती
जैसे बूँद तो दिखती
बनती बिगड़ती
पर सागर कहाँ से आया
कहाँ कोई जानता ?
अनहद से आई हूँ मैं भी
अनहद को जाना अब
एक वक्फा हूँ बस बीच का
लाफ़ानी हूँ ...


Monday 13 June 2016

ख्वाज़ा मेरे ख्वाज़ा ...

जैसे बर्फ़ को कोई होश नहीं अब
कोई खबर नहीं फिकर नहीं
घुलने के सिवा
मिटने के सिवा
फ़ना करने के सिवा खुद को
कोई दूसरा रास्ता भी नहीं
वो बुलबुले छोड़ती धुंआ उड़ाती
दाए बाएँ टकराती धीरे धीरे
सरकती जाती है गिलास में
अना को वजूद को पूरा गवाँती
किसी सूफ़ी की तरह
आख़िरकार मिल जाती है व्हिस्की में
ख़ुद व्हिस्की बन जाती है  
कुछ गाने भी होते है व्हिस्की जैसे
बर्फ़ की तरह इंसान बेबस पिघलते जाते है
अल्फाज़ लहू में घुलते चले जाते है
“ख्वाज़ा मेरे ख्वाजा दिल में समा जा “

सफ़रनामा सुन्दर बंस ...My very first writing ...

  1.               यात्रावृतांत ( मेरी पहली कोशिश ) लिखने का सिलसिला बस यही से शुरू हुआ ... 


घुमक्कड़ो और आवाराओं की  ज़िन्दगी में वो ही पल सबसे हसीन होते है जब किसी नई तैयारी का खुराफात दिल में दस्तक दे चुका हो .... सच...  राहुल संस्क्रितायन बचपन से पसंद है हमें उनका वो यादगार ‘अतिथि घुमक्कड़ जिज्ञासा’ अभी तक हमारे ज़हन में हैं, क्लास 12 में पढ़ा था |
 “यादों को कुछ जवां किया जाये, कुछ इत्र ताज़गी का डाला जाये, बेरंग सी ज़िन्दगी में कुछ रंग भरे जाये , कुछ होश में आया जाये , कुछ ख्यालों को साज़ किया जाये “....... ये सिलसिला, ये मोहब्बत  नयी नहीं हैं , पुराना याराना हैं हमारा घुमने फिरने से   ... लेकिन  आज सिर्फ सुन्दरबंस, जिसका नाम ही इतना सुन्दर हो तो अलफ़ाज़ कहाँ से आयेंगे , काबिल अलफ़ाज़, जो उसके मुकाबिल खड़े हो सके , कोशिश करके देखते है  .....
7 सितम्बर , 2013 स्कूल से काम काज निपटाने के बाद  5:35 कि उड़ान भरने वाले थे हम सीधे कोलकाता के लिए, सिर्फ एक अटैची और एक झोला  , संज्ञा सारा और उनके पापा भी ,हम थे या नहीं कहना थोडा मुश्किल है ,घूमते वक़्त हम पूरे होते नहीं एक जगह  , टुकड़ो-टुकड़ो में बट जाते है,जिस्म जहाज़ पर था, दिल उसके भी ऊपर खुले आसमान में, रूह सुन्दरवन में और आँखें जाने कहाँ-कहाँ, यहाँ वहां कुछ पता नहीं ....थोड़ी ही देर में पटना पहुँच चुके थे हम , ( पटना से भी कुछ यादें जुड़ी हैं बचपन कि अपनी बुआ के घर गर्मियों कि छुट्टियों बिताने आये थे  ) .........कुछ लोग आये कुछ गए , जहाज़ फिर आसमान में, समय से 10 मिनट पहले ही पहुँच चुके थे नेताजी सुभाषचन्द्रबोस हवाई अड्डे पर ... समय तो जहाज़ से भी ज्यादा तेज़ भाग रहा था , आँखों में टैक्सी कि खोज और जुबां पर एक सवाल किसी अनजाने से  भाई साहब यहाँ से कालीघाट कि टैक्सी किधर से मिलेगी ?  “ कहाँ से आये हैं आप लोग? हम लखनऊ से हैं ....  सुन्दरवन घुमने आये हैं” , चलिए हम आपको कालीघाट तक छोड़ देते हैं उनका ये कहना और हम सब उनकी हौंडा सिटी के अन्दर  , जनाब शरीफ लगे,  लखनऊ से पुराना ताल्लुक़ रखते थे इसलिए मेहरबान थे, जनरल मेनेजर इलाहाबाद बैंक , ये तार्रुफ़ है उनका | नये कलकत्ता से पुराना कलकत्ता का वो सफ़र भी गज़ब था  ... पूरे शहर में तीन बत्तियों वाले लैंपपोस्ट, तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी के करीब होने का एहसास करा रहे थे  , नयी नयी इमारते , नये ब्रिज , सब ये बता रहे थे पुराना कलकत्ता अभी दूर है, मगर हमारी दिलचस्पी तो उस पुराने 1947 वाले कलकत्ता में थी....पूरे शहर में वो पीली पीली एम्बेसडर खून कि रगों कि तरह दौड़ रही थी, सवा घंटे कि शान कि सवारी के बाद हमसब उनके साथ उनके घर में चाय पीते हुए पाए गए (कड़क चाय थी , लड्डू भी थे वो भी बेसन के ) उनकी पत्नी, उनका बेटा जैसे कब से जानते हो, हम उन सबको बहुत अच्छे लगे, (आज फोन पर बात भी कि हमने ) , कलकत्ता कभी अनजाना नहीं लगा हमें ...... साउथर्न एवेन्यु से अब नयी टैक्सी हावड़ा के लिए .... जहाँ पे बुक था हमारा होटल ! हावड़ा ब्रिज .... हमारे सामने विशालकाय, पर्वर्ताकार , अजीमुशान शेहेंशाह की तरह , लोहे के खम्बो का एक मज़बूत ताना बाना , पसंद आया हमें पहली ही नज़र में , जाने कितनी भीड़ अपने अन्दर समेटे हुए , शान से खड़ा था  , किसी दिग्गज कि तरह  , हुगली का शोर भी कम नहीं था , हावड़ा से जैसे जंग छिड़ी थी उसकी  ,बावली कह रही  ...” हम न होते तो तुम कहा से आते?
 .....यहाँ पर भी अकेले नहीं थे हम , हमारे पुराने मित्र हमसे मिलने हम सबसे पहले होटल पहुँच चुके थे ,खाली हाथ भी नहीं बंगाली रसगुल्लों कि सौगात के साथ ,कुछ तो बात है यहाँ के लोगो में ! साथ में डिनर करके वो तो निकल लिए पर उस सुनहरी सुबह कि तमन्ना ने कब हम सबको नींद के हवाले कर दिया .....जान नहीं पाए .......
जिसका मुझे था इंतज़ार वो घड़ी आने वाली थी .... ऐसा ही कुछ दिल में, फिर क्या एक और गाड़ी होटल के सामने , फिर से एक बार सब गाड़ी के अन्दर, पैकेज टूर (हॉलिडे पैकर्स ) था हमारा  इसलिए इन्तिज़ाम एकदम चुस्त ... प्रवेश करते ही गाड़ी में हमारे टूर गाइड परीमल जी बड़े ही प्रोफेशनल तरीके से हम सब से मिले I शुरू तो बंगला में हुए थे मगर हम सबके चेहरों पर सवालिया निशान देखकर हिंदी पर आ गए बेचारे  .... नाश्ता , पानी सब गाड़ी में ...गाड़ी चल रही थी , मौसम भी थोडा ठंडा था  , रात में हलकी बारिश जो हुई थी  , हम तो पहले ही भीगे थे ख़ुशी कि बारिश से, और क्या पूछना था , नर्म सर्द मिट्टी, उसकी सोंधी सोंधी खुशबु , नयी नयी फिज़ा , ताज़ी आबो हवा सब कुछ मेरे मन मुताबिक चल रहा था  . अरे हाँ ! नाश्ते का वो झोला जो कुछ ही देर पहले इठला रहा था , चोट खाकर पड़ा था किसी किनारे , जीत मेरे बच्चो कि हुई थी , हम खुश क्यों न होते? सर भी तो खुश थे, स्काई ब्लू टी-शर्ट फब रही थी उनपे. रस्ते भर न जाने कैसे कैसे सपने भी चल रहे थे , नज़रे भी तो उन नज़रो का बेसब्री से इंतज़ार कर रही जो हम बहुत जल्द देखने वाले थे, बेकरारी साफ़ झलक रही थी इन आँखों से , लगभग 40 कि.मी. बाद चाय कि ख्वाहिश ने गाड़ी को रुकने पर मजबूर किया, दूसरे शहर कि चाय पीने का अपना अलग ही मज़ा हैं वो सिर्फ चाय कहाँ होती , पूरे बंगाल के जज़्बात थे उस एक प्याली चाय में ,संज्ञा का भी दिल आ गया था उस चाय कि प्याली में , सिर्फ प्याले में, ....चाय ही नहीं कुछ और भी था वहां देखने लायक , वो चाय बनाने वाली लम्बी काया , खूबसूरत , पूरा पूरा ताजमहल ... जैसे कीचड़ में कमल, हमारी ये हालत थी , इनका क्या हाल होगा  ..... खैर बात आगे बढ़ी और घड़ी भी, चाय का नशा और कानो में एयरफोन ( ये वादा रहा)  के गाने , हसरत बढ़ती जा रही थी..... सफ़र रास्ते के ऊंच नीच पार करता आगे बढ़ रहा था जल्द ही हम गोधखली पहुचने वाले थे  (ये गोधखली सज्नेखली सुधायांखली , ये खली खाड़ी का अपभ्रंश है शायद ) , परिमल जी एक किनारे जैसे किसी समाधी में चले गए हो, हम सब ने भी तो छोड़ ही दिया था उनको उनके हाल पर , अपने अपने में मस्त थे सब , थोड़ी थोड़ी धूप थोड़ी थोड़ी छांव पार करते हम आ गए थे अब अपनी मंजिल तक, यहाँ से नौका सवारी , लगभग 30 कि.मी.  ...मगर पानी के जहाज़ में सुन्दरवन तो जैसे शुरू हो चुका था ..... हमारे साथ दो लोग और भी थे , उड़ीसा से आये थे |
एक अंदाज़ से चढ़े थे पानी के जहाज़ पर हम सब ...... जहाज़ भी अब चल चुका था, हम जहाज़ पर  हमारा फोन पर्स से बाहर, सबको बता दिया कि कितने खुश किस्मत है  हम....सुंदरवन में जो है हम, खूबसूरत था सब कुछ, दिलकश किसी सपने कि तरह , पता नहीं कैसा लग रहा था  , पागल होने का मन कर रहा था, जीभर के रोने का मन कर रहा था , ज़माने का दस्तूर है ये कि आप हर वो काम नहीं कर सकते जो आप करना चाहते है , मगर हम भी चुपचाप बैठने वालो में से नहीं थे, टेहेलते रहे पूरे जहाज़ पर , पूरे समंदर को अपने अन्दर समेटे  ......ऐसा क्यों लग रहा था जैसे किसी दूसरी दुनिया में आ गए हो ...
कुछ दूर बाद से सुंदरी के वो बेहद हसीं जंगल रूबरू होने लगा था ...... और बंगाल कि खाड़ी वो जो एक हिस्से में सामने आई थी रंग भरे जा रही थी हमारे ख्वाबो में .......हाई टाइड और लो टाइड वो फैलता सिकुड़ता पानी  ,चिकनी मिट्टी को अपनी बाहों में लिए दूर तलक सैर करता था,  वहाँ के लोग अच्छे से जानते है, हर चार पांच घंटे बाद हाई टाइड और लो टाइड आपसी तालमेल   ....... समझ पाना मुश्किल था कि तस्वीर उतारी जाये , कुछ गाया जाये या बस खामोश हो जाये , इसी उथल पुथल से झूझते रिसोर्ट तक भी पहुँच गए, सज्नेखाली नाम था उस जगह का......
शानदार रिसोर्ट था, शांति ने अपना पूरा कारोबार फैला रखा था , किसी आश्रम के जैसे फीलिंग आ रही थी , बीच में एक तालाब था ,किस्म किस्म के फूल बैंगनी, पीले और गुलाबी भी, लम्बे ऊँचे पेड़, पानी में उनकी छाया जब पड़ रही थी तो जैसे दिन में रात हो गयी हो  ,लकड़ी का एक पुल ,दो तीन झोपड़ियां भी ,एक मंदिर कुछ पुजारी शायद .... कुछ और चंद लोग, भूख ज़ोरो कि लगी थी इसलिए कुछ ज्यादा दिख नहीं रहा था , दोपहर के दो बज चुके थे  , रेस्टोरेंट में भोजन खाया, खाने की हर लज्ज़त अपने बंगाली होने का दावा पेश कर रही थी. साढ़े चार बजे  तक आराम और फिर वोही सब, वही जहाज़ और उसकी हरी हरी कुर्सियां और हम सब.. हमें जाना था सज्नेखाली वॉच टावर पर, पक्की तैयारी थी हमारी  ...जानते थे कुछ नहीं दिखेगा न टाइगर न टाइगर का भूत, टाइगर देखने गया भी कौन था, हमारी आँखें तो कुछ और ही तलाश कर रही थी ... .ये बात और है कि सुंदरवन  मशहूर है अपने रॉयल बंगाल टाइगर और कुछ बहुत ख़ास परिंदों के लिए ,कुछ थोड़े दिखे भी थे , मगर जब दिल खुद परिंदा बन जाये तो बाकि परिंदों कि किसे फ़िक्र ....संज्ञा को बड़ा मज़ा आ रहा था , एक ही सवाल “मम्मी टाइगर कब दिखेगा” और हमारा वही एक जवाब “ बेटा ध्यान से देखो
दिखेगा ज़रूर”  दिखा भी ना ........ पोस्टर्स में होर्डिंग्स पर और हमारा गाइड सिर्फ टाइगर से अपने एनकाउंटर के किस्से सुनाये जा रहा था... पेशे से मजबूर.... इसके बाद एक मैन्ग्रोव इंटरप्रिटेशन सेंटर टारगेट था . हरे रंग कि ईमारत थी . सुंदरवन के कुछ नक़्शे , वहां का इतिहास , कुछ नकली टाइगर शायद कोबरा भी .......बैकवाटर्स का एक टुकड़ा यहाँ पर भी था ..... जिसमे किसी बड़े मगरमच्छ के होने का अंदेशा था , टूरिस्ट सारे दीवाने हुए जा रहे थे उसकी एक झलक पाने को  कोई नहीं देख पाया उस क्रोकोडाइल को ...... सिर्फ मेरी तीन साल कि सारा ने देखा था.......पता नहीं क्या देखा मगर दावा मज़बूत था .....   अब थक गए है बाकी कल ........

फिर से शुरू करते है वहीँ से जहा छोड़ा था कल.... वापस अपने रिसोर्ट आने कि तैयारी थी , शाम भी काफी हो चुकी थी, रिसोर्ट पहुँच कर पता चला , कि रात 8 बजे बंगाली कलाकार अपना सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश करनेवाले है ....... महिशासुर का वध दिखाया था बढ़िया था सब कुछ| रात का खाना खाकर , हमारी यात्रा का पहला दिन ख़त्म हुआ  ...मगर अभी एक पूरा दिन बाकी था, बहुत होता है एक दिन . नींद कब आ गयी होश नहीं कुछ  ....
दुसरे दिन सिर्फ घने जंगले देखने थे  , आज जाना था दोबंकी वाच टावर  ,ये जगह दूर थी थोड़ी मतलब ज्यादा नज़ारे ,ज्यादा मस्ती, ज्यादा नशा ..... रास्ता सच में हसीं था सुंदरी के वो वृक्ष बेमिसाल थे  , असली खूबसूरती इनकी जड़ो में होती है  ,धरती कि छाती फाड़कर ये खुली हवा में बाहर सांसे लेने बिना किसी इजाज़त के निकल आई है बेधड़क होकर .......
..... छोटी बड़ी जड़ें एकदम मोटी पतली नसों का असमंजस थी  ... पेड़ ऊपर जड़ें ज़मीन पर  , धरती आसमान का अनोखा संगम जैसा था, कोई बड़े ऊंचे और विशाल वृक्ष नहीं थे वो मगर , असली मज़ा था इतने सारे एक साथ एक नाप के पानी में अगल बगल या फिर पानी के बीचो बीच , दोनों ही रूप रंगीन थे | वॉच टावर फिर एक बार धोखेबाज़ साबित हुआ , चढ़ाई तो कि बस दर्शन नहीं हुए , तो क्या कोई बात नहीं अब तक तो बच्चे भी परिस्थितियों से समझौता कर चुके थे, न कोई सवाल ना ही उसका जवाब ..... मगर वह तस्वीरे खूब उतारी....
जहाज़ वापस हो रहा था , ये सच में घना जंगल था , दो शानदार हिरन दिखे थे जब  जहाज़ तो जैसे हिल गया था सब कूद पड़े एकदम ! टाइगर दिख जाता गर , दो चार तो अल्लाह को ही प्यारे हो जाते, जो होता है अच्छे के लिए ही होता है, यकीन हो गया था इस बात पर . जहाज़ में नाश्ते  पानी का पूरा प्रबंध था , .....  आज शाम को पास के किसी गाँव में घूमने जाना था मगर दोपहर में बारिश हो गयी थी तो बात बन नहीं पाई ...... कोई बात नहीं शाम का टारगेट हमने खुद ही फिक्स कर लिया ,  
खूबसूरत सूर्यास्त को सलाम करने का  ...पूरा परिवार टकटकी लगाये निहार रहा था, आँखों के नशे से बढ़कर कोई और नशा नहीं ...वो नारंगी पीली सुनहरी सांवली छठा जानलेवा थी ... रात में फिर कुछ ख़ास बंगाली गीतों का आयोजन किया गया था , खूब मज़े किये, नाचे भी, गाये भी, ढोल भी बजाया,
वो सब जो पहले कभी नहीं किया  था.
अपने अन्दर मौजूद इस पागल से हमारी भी ये पहली मुलाकात थी अच्छा लगा खुद से मिलकर  , खुद से मोहब्बत हो गयी थी हमें ....और उस पूरी फिज़ा से भी ..... अगले दिन सुबह चार बजे जगना था , वापसी थी हमारी , यात्रा अब अपने खात्मे पर थी , कुछ कुछ घर कि याद सताने लगी थी , रात भी बीत गयी और वो सुबह आ गयी थी . उदास नहीं थे हम पर कुछ अपना सा था जो पीछे छूट रहा था  .....कुछ तो था शायद कोई कशिश ,किरन , कोई सुबह या फिर रात  , कोई बात, कोई साथ , या फिर कुछ और ....... खुद का हौसला बढाकर कह ही दिया जो कहना था...... 
सैर कर दुनिया कि गाफिल ज़िन्दगी फिर कहाँ ,
ज़िन्दगी गर रही तो नौजवानी फिर कहाँ |
पता नहीं मांडू अब कब नसीब होगा , एक ज़माने से अटके है उस पर भी  ! वो जहाज़ महल वो रानी रूपमती, वो राजा और पता नहीं क्या क्या ........ सिर्फ सुना है !                                   


पारिजात ...


एक बार की बात है , एक बड़ा पुराना घना जंगल  था , जहां पर पेड़ इतने ज़्यादा थे की धूप ज़मीं तक पहुँच नहीं पाती थी बड़ा अँधेरा अँधेरा सा रहता था जैसे बारिश के दिनों की रातें होती है  , धूप देखने के लिए बड़ी दूर पैदल चलकर  जाना पड़ता था और रास्ते में तमाम चीज़े दिखती थी घने घने बड़े पेड़ तो थे  ही साथ में छोटे छोटे झुरमुट भी दिख जाते थे और जब हरे हरे  पेड़ों  की छाया से धूप कभी कभी नीचे उतरती थी छन छन कर बिखरती थी तो जैसे छोटे ,गोल पुराने सिक्कों की परछायी पड़ती हो . कुछ गिल्हेरियाँ भी थी, इधर उधर आती जाती दिख जाती थी दौड़ लगाती मिटटी पर अपने होने के निशान छोड़ देती थी  , रात में जुगनू बजते थे और चमकते भी थे ,चमकता तो चाँद भी था आसमान में और दिन में सूरज  भी , पर यहाँ दीखता ज़रा कम था , हमेशा ग्रहण सा लगा रहता था ,एक चमकीला ग्रहण .
  एक किनारे पर पेड़ ज़रा कम थे ,पर वो दूर था बहुत. वहां एक नदी भी थी पतली एकदम ,पतली इतनी थी की बड़े बड़े पत्थरों को पार नहीं कर पाती थी बगल से निकल जाती थी, पर बहती हमेशा थी पूरे साल , सालो साल से बहती ही जा रही थी किसी को भी पता नहीं था की वो बह कबसे रही है और पानी आता कहाँ से है उसमे , मिटटी वहाँ की थोड़ी सर्द रहा करती थी , नर्म भी थी ,जाड़ों में ठंडी ,गर्मियों में सीली और बारिशो में भीग जाया करती थी, जिन थोड़ी जगहों पर धूप आ जाती थी वो सख्त किसी तखत के जैसी हो जाती थी, जिसमे दरारे भी होती थी , ऊपर से ये मिटटी थी तो सख्त पर दरारों से जो मिटटी भीतर से पुकार लगाती थी बाहर  वो, वो जिंदा हुआ करती थी किसी गीली लकड़ी की तरह मुलायम और सोंधी .
इस घनेरे जंगल में इंसान नहीं बसते थे, ज़रूर डरते होंगे क्यूकी इंसानों को तो बस्तियां पसंद है और ये था बियाबां जंगल ,यहाँ भला कोई क्यों बसता , खुद के साथ रहना इतना आसान भी नहीं होता इंसानों की भी किस्मे होती है , कुछ भीड़ में अकेले रहते है , कुछ अकेले में अकेले रहते है जबकि कुछ भीड़ में भीड़ होते है, उससे ज़्यादा कुछ भी नहीं  .
वहाँ पर एक छोटी बच्ची दिखा करती थी , अकेलेपन में अकेली, बिरली सी , अलबेली , प्यारी सी परी जैसी थी वो ये भी उस नदी की तरह ही थी ,कहाँ से आई थी कोई नहीं जानता  , इसमें तो कोई शक ही नहीं, की डरती बिलकुल नहीं थी वो , अकेले ही रहती होगी , अपने उस जंगल में  , उलझे उलझे सुनहरे  बाल लेकर घूमती रहती थी यहाँ वहाँ पूरे जंगले में , कभी धूप खानी हो तो किनारे आ जाती थी वरना वही उस अँधेरे जंगल में खोयी रहती थी ,पेड़ो की छाया में , यहाँ का रोशन अन्धकार  उसकी जिंदगी को सभी रंगों से भर रहा था , खुद से बात करना , जंगली जानवरों और पेड़ पौंधो से मोहब्बत करना बस यही उसकी जिंदगी थी और बेहद खुश थी वो .
और इसी जंगल के बीचो बीच एक बड़ा पुराना पारिजात का पेड़ भी था ,कई सौ साल पुराना शायद किसी इच्छाधारी नाग की तरह “जाग्रत”, जिसके बारे में ये भी कहा जाता था , की इसमें खिलने वाले सफेद रंग के बड़े बड़े फूल , बेहद हसीं होते है और किस्मत वाले ही उनका दीदार कर पाते है, इन फूलों का तिलिस्म रूहों को जगाने वाला होता है  , सालो साल में एक बार ही खिलते है और अगर खिल जाए तो महीनो तक लदे रहते है पेड़ पर और पिछले कई सालों से नहीं आये है इस पारिजात पर , ये बच्ची  वही इसी पेड़  की छाया में ज़्यादातर वक़्त बिताती थी . एक पतली डंडी से , पेड़ के चारो तरफ एक लकीर खींच कर , उसी लकीर को पकड़कर दौड़ा करती थी थक जाए अगर तो छाया में सहता लेती थी फिर से उठकर सिक्कडी खेलने लगती  थी .
अपनी बकरियां और भेड़े लेकर निकल पड़ती थी सबेरे सबेरे , दिन भर घुमाती थी उन्हें  इधर उधर साँझ तक  . बीन कर लाती थीं जो लकडियाँ उसी से चूल्हा जलाती थी , और रात में अक्सर उस पतली सी  नदी के किनारे पर जाकर बैठी रहती थी , पानी पर तारो की छाया देखते रहना  उसकी ख़ूबसूरती को और भी बढ़ा रहा था  . उस हिलती डूलती पानी की धारा में चाँद जब दिख जाता था, चादर में पड़ी सिलवटों की तरह , तो उसके होंठों के किसी किनारे पर हँसी चुपके से आ जाती थी और उससे अकेलेपन में बतियाने लगती थी और बहते पानी का संगीत उसके कानो को छूकर जब निकलता था तो चेहरे पर ऐसे भाव आते थे की उसकी इबादत करने का दिल करता था , नदी किनारे वो पीपल का पुराना पेड़ उसकी हर हरकत पर नज़र रखता था और ज़रूरत पड़ने पर उसकी मदद भी कर  देता था . रात की चांदनी, उसे चांदी जैसा रंग भी रही थी .सूरज से ऊर्जा लेकर  वो बच्ची बादलो ने मस्तानी चाल चलना सीखती थी , हवाओ ने गति और ठहराव बताया , ऊंचे ऊंचे पेड़ो ने उस बच्ची को “देना” सिखाया था और झुकना  भी . जानवरों ने सारी ज़ुबाने और फूलों ने सारे गीत . जंगल की इस बच्ची की आँखों में गज़ब का उछाल था , जीती जागती प्रकृति लगती थी . उसका जीवन किसी सितार से निकली हुई बेहतरीन धुन था . अपने तरीके से उसने क्या कुछ नहीं जान लिया था . इंसानों से कोसो दूर थी वो और खुदा की बनायीं क़ुदरत से बेहद करीब .

अब जाड़ो का सर्द मौसम शुरू हो चूका था और वो बच्ची अब बड़ी हो गयी थी, वक़्त आ चला था क़ुदरत को शुक्रिया करने का और घने कोहरे में एक दिन अचानक वो गायब हो गयी पर अगले दिन सुबह “पारिजात” के सीने में एक गहरी चाक थी और पेड़ के नीचे पैरों के चंद निशाँ भी पर  ऊपर जब देखा , पूरा का पूरा पेड़ सफेद जादुई  फूलों से भरा पड़ा था .....     

I make music

Because I can’t sleep
I make music at night
I keep making you
Make your face
Make your hands
Make your heart
Make your soul
I keep making you
At times I get troubled
By your sad look
I change your hair do
Give new clothing
Try new colors, oh yes !
 Brown looks good
Green suits you
Now you look much happy
Now I play my flute
Because I can‘t sleep
I make music at night
I keep making you

  
Diwali special ... Inspired by Langston Hughes

ये सपनें कहाँ जाते होंगे सब ?
रात बीतने के बाद
उड़ जाते हैं शायद
कुछ भूल जाते हैं
डूब जाते होंगे गंगा में
पर पूरे भी होते हैं कुछ
कभी पिचक भी जाते हैं
कुछ किशमिश की तरह
एकअटका पड़ा हैं जाने कबसे
दगेगा किसी दिन
बम की तरह ..

मैं और सागर ...

मैं सागर के भीतर हूँ।
गहरे बहुत नीचे कहीं
तैर नहीं रही
चुपचाप लेटी हूँ
और ये पानी कितना अजीब है !
चढ़ता है नाक पर
दिमाग सुन्न करता है
फसता है साँसों में
बेचैन ही करता है
कोई बुलबुला कहीं नहीं
हलचल भी नही
मेरा दम भी नहीं घुटता
जबकि मैं पूरी इसके भीतर हूँ
और इसका पानी...
इसका पानी कितना अजीब है !