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Wednesday 29 November 2017

'बाँदी बुआ' एक शार्ट स्टोरी

बाँदी बुआ.....

मग़रिब की अज़ान के वक़्त बाहर नहीं रहते वीर  अंदर  जाओ “
आवाज़ पीछे वाले आँगन से आयी थी
नहीं आऊँगाऽऽऽऽऽ“ वीर ने भी जवाब भेज दिया झूले पर बैठे बैठे | जब तक नहीं बताती कि क्यूँ नहीं रहते है बाहर इस वक़्त  ..तब तक नहीं आऊँगाअभी और खेलूँगा खेलता  ही रहूँगा l”
कुछ देर बाद भी जब वीर अंदर नहीं आया  ..
बस बोला ना नहीं रहते तो नहीं रहते  कब तुम्हारा दिल भरता है खेल से “ वो अब सामने आकर खड़ी थी ।वीर का  हाथ पकड़ा और वीर को फुसलाकर अंदर ले जाने लगी  
“ नहीं “ पहले बताओ उनका हाथ झटक कर वो फिर वही जिद्द करने लगा “
“ अच्छा अंदर बताऊँगी चलो तो पहले
चल तो दिया वीर पर मन ही मन बुदबुदाता रहा “अज़ान का वक़्त है बाहर नहीं जाते 
सूरज डूबते घर बैठते है .. पेड़ों के नीचे नहीं रहते ... झूला नहीं झूलते ..बाल नहीं झाड़ते ..तेल नहीं लगाते  सोते नहीं... करूँ क्या फिर ? 
बुआ उसे लेकर अंदर चली गयी और ...
अहाता फिर से एक बार सन्न हो गया ....एक वीर की ही  आवाज़ थी जो गूँजा करती थी ठाकुर साहब की इतनी बड़ी हवेली में   वरना तो जैसे सबको सांप सूँघ गया हो इस घर में  
रात में ख़ाने के वक़्त फिर पहले निवाले पर ही “अच्छा अब बताओ क्यूँ नहीं निकलते बाहर सूरज ढलते वक़्त “
“ छोटे बच्चों को बुरी रूहें पकड़ ले जाती है “बुआ ने कुछ सोचकर कहा
छोटे बच्चों को बुरी रूहें पकड़ ले जाती है ..अच्छा ये बात है ..तो फिर माँ को क्यूँ ले गयी बुरी रूह वो तो बड़ी थी हैना! बोलो बाँदी बुआ ?” उन्हें कोई रोक क्यूँ नहीं पाया फिर। पापा  भी नहीं ।दादी माँ भी नहीं ।बड़ी बड़ी मूँछों वाला दरबान भी नहीं ।दादी माँ कहती है बहुत बुरी रूह थी वो “तुम रोक लेती उन्हें ? मैं बड़ा होता अगर... मैं ज़रूर  रोक पाता 
वीर की इस बात का वो कोई जवाब तो ना दे सकी पर अंदर  ही अंदर चीख़ पड़ी ‘बुरी रूह नहीं थी वो ‘ आँखे भर आयी ...और आँसू को छलकने  से पहले ही रोक दिया और संभलकर    “बहुत रात हो गयी है वीर चलो अब  सोने जाओ वरना ठाकुर साहेब जानेंगे तो नाराज़ होंगे  आजएक नयी कहानी सुनाऊँगी | सुनोगे तुम?”
“ हाँ  ज़रूर ज़रूर सुनूँगा “ वीर झट से उठा और ख़ुशी से उनके ऊपर कूद गया , उनके पिचके गालों पे एक पप्पी देकर सीधा अपने कमरें की  ओर दौड़ गया ....जल्दी आना ऊपर “

खिड़की के काँच से छन कर चाँदनी भीतर तक  रही थी। और रात रानी की ख़ुश्बू पूरे कमरें को महका रही थी...बाल  सहराते हुए वो उसे देर तक कहानी सुनाती रही और वो  लेटा  रहा  
“ माँ भी कहानी सुनती थी ?”
हाँ ! 
उनकी फ़वरेट स्टोरी  ? 
चाँद तारों की कहानियाँ पसंद थी उन्हें   रात देर देर तक एक दूसरे को सुनाया करते थे हम।
चाँद बहुत अच्छा लगता था  माँ को ?
बहुत से भी ज़्यादा “
और तुम्हें वीर ? बुआ ने उसका माथा चूमते हुए पूछा 
बिलकुल नहीं “
झटकें से चादर खींचकर उसने ओढ़ ली और करवट लेकर आँखे बंद कर ली  
अहिस्ते से उठकर बुआ ने खिड़की का परदा खींच कर कमरें से बाहर निकल गयी  
आज फिर से वो सब नज़रो के सामने से  घूम गया ...गहरा अँधेरा सारी चाँदनी को भेदकर बुआ के सीने में घुला जा रहा था  पर वीर करता भी तो क्या बाँदी बुआ के सिवा कोई उससे उसकी माँ की बातें नहीं करता था।उसकी माँ का ज़िक्र ही गुनाह था इस घर में  
दिन ख़ास तेज़ी से बढ़ते रहें और वीर के सवाल भी
बहुत सुन्दर थी माँ
इस दुनिया की  नहीं थी वो पर तुमने कहाँ देखा
सपनें में ....
अब भी याद है जब पहली बार  ठाकुर साहब तुम्हारे नाना के घर आये थे | तभी उन्होंने माँ की पहली झलक देखी और फिर क्या किसी किसी काम के बहाने उनके दीदार की  हसरत लिए वो  बैसवारे से हमारें फ़तेहपुर पूरे १०० मील का रास्ता तय करके रोज़ ही आने लग
 | वीर मुस्कुरा दिया ....सच?
हाँ , फ़िर एक दिन नाना साहेब ने उनसे रिश्ते की बात करी , बात हुई और बात आगे बढ़ी | गाजे बाजे बाराती घोड़ा गाडी और हाथी लेकर ज़मीनदार साहब पहुंचे और तुम्हारी माँको रानी बनाकर  विदा कर ले आये यहाँ|”
 पापा  इतना प्यार करते थें माँ को  ?’
दीवानगी की हद तक
और माँ
कैसे बताऊ तुझे तेरी माँ की मोहब्बत ! कितना और क्या क्या बताऊँ  ?
सब, सब बताओ बुआ  
कोई इबादत करें जैसे ,ऐसे मोहब्बत करती थी वो,  अभी तुम छोटे हो फ़िलहाल बस इतना समझ लो   “
उसके हाथों को अपने हाथ में लेकर वो आगे कहने लगी ये वीर जब बड़ा हो जायेगा वीरेन प्रताप सिंह बन जायेगा ..बाँदी बुआ फिर सब बताएगी  बताकर वापिस अपने फ़तेहपुर चली जाएगी
तुम कहीं नहीं जाओगी
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|गुज़रे वक़्त को कोई भुलाना चाहे भी तो कैसे ? वीर के रूप में वो ही बार बार आकर सामने खड़ी हो जाती थी | वीर एकदम अपनी माँ पर गया था  .. वही भोलापन  वही गहराई वही शक्ल | वो जैसे जैसे बड़ा हो रहा था नाक नक्श और भी खिलकर बाहर रहे थे |
पांच साल के वीर में और अबके इस वीर में कितना फ़रक गया है | वो अब सच में बड़ा हो गया  है .... अक्सर यही सब सोचा करती थी बुआ  |
लेकिन पिछले कुछ दिनों से मन कुछ परेशां सा था | एक घबराहट सी रहती थी |पूरे 18 दिन हो गए है और वीर ने एक भी फ़ोन नहीं किया ही उसकी कोई चिट्ठी आयी | ऐसा तो कभी नहीं हुआ| बिना बात करे तो उसे चैन ही नहीं पड़ता था कभी  | वीर अभी  जयपुर में है   |पढाई के सिलसिले में वो अब वही रहता है बस छुट्टीयों में उसका आना होता है | ठाकुर साहब सदा से उसे यहाँ के माहौल से दूर रखना चाहते थें | दादी माँ के गुज़र जाने के बाद ठाकुर साहब को रोकने वाला  अब कोई नहीं था हवेली में |
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इतवार की शाम की नमाज़ अदा करके वो बस उठी ही थी कि एक आहट पर मुड़कर देखा तो पीछे वीर खड़ा था |
सरप्राइज़
अचानक उसको देखा तो वो जम सी गयी .....कितना बड़ा हो गया है वीरऔर कितना सोना भी ...उसने मन में सोचा और  आँखों से आसूँ पिघलकर झर झर बहने लगे और वीर उन्हें यूँ ही खड़ा देखता रहा |
कुछ ही पल बीते थें की वीर एक नया मोबाइल लेकर आया  “तुम्हारे लिए , अब इससे ही बातें होंगी , माँ की कहानी सुने बगैर मुझे नींद नहीं आती वहां
 कुछ देर थमकर वो आगे कहने लगापापा आगे की पढाई के अब लिए बाहर भेज रहे है | इसलिए इस बार ख़ूब दिनों के लिए आपके साथ यहाँ रहने आया हूँ
वीर की इस बात पर वह बोली कुछ नहीं पर एक अजीब सा एहसास था | उसे लगा जैसे वो मुकम्मल हो गयी हो | ख़ुशी के मक़ाम पर खड़ी हो |  वो उदास भी थी और ख़ुश भी ....
लेकिन पता नहीं क्यों आज उसका वीर को सब कुछ बता देने का दिल कर रहा था | उसके हर सवाल का जवाब देने का दिल किया और ....
 “ एक दिन इस गाँव में एक पीर जी तशरीफ़ लाये थें | बहुत पहुंचे हुए पीर ...गाँव में जो पुराना किला है वहीँ उसी के पास एक पीपल की छांव में कुटिया बनाकर रहने लगे | दिन बीतते रहे और उनकी रूहान कुव्वतो  के क़िस्से गाँव भर में मशहूर हो गए | जब ठाकुर साहब को पता चला कि इतने पहुंचे हुए पीर जी इसी गाँव में कुटिया छा कर रहते है तो उन्होनें  बहुत आदर सत्कार के साथ उन्हें अपने घर में रख लिया | पीर बहुत अल्लाह वाले थें | बहुत पहुँचे हुए बुज़ुर्ग थें | उम्र यही कोई सत्तर बहत्तर रही होगी | कहते है कभी किसी से आँख उठाकर नहीं देखते थें|  वो बात नहीं करते थें | उनकी आखें किसी ने देखी  ही आवाज़ सुनी कहने वाले तो यहाँ तक कहते है उनमें बहुत ताकत थी | आँखों में अजीब सी कशिश कि देखने वाला अपना सब कुछ गँवा बैठता था | शायद यही वजह थी कि वो सदा अपनी नज़रें नीची रखते थें |
फिर.....
फिर एक दिन ठाकुर साहब ने हवेली के सभी लोगों को उनका आशीर्वाद लेने के लिए बुलवाया | तुम्हारी माँ और दादी माँ भी आये | तुम्हारी माँ का पैर लहँगे के घेर में  फँसा और वो लडखडा कर पीर जी के कदमों में ही गिर गयी | तब पीर जी ने उन्हें नज़र उठाकर देख लिया और बस वो दिन था कि तुम्हारी माँ उनकी मुरीद हो गयी | सब छोड़कर उनके पीछे चलने को तैयार हो गयी ..... पीर साहब ख़ुद भी यही चाहते थें कि वो लौट जाये पर उनकी एक चली ... घर में भी सबने रोका बहुत विरोध किया पर वो नहीं मानी |  बात जब ठाकुर साहब के कानों तक पड़ी तो पूरी हवेली हिल गयी | तुम्हारी माँ का बाहर निकलना बंद हो गया | उनका खाना पीना छूट गया और तबियत बिगड़ती गयी पर हकीकी इश्क़ का नशा कब उतरा है जो उतरता , ऐसी लौ लगी ऊपरवाले की ..कि दुनिया बहुत पीछे छूट गयी |  
फिर एक दिन अचानक ठाकुर को जाने क्या सूझी कि बन्दूक लेकर वो पीर के आस्ताने को चल पड़े  ....हवेली में हड़कंप मच गया | उस दिन परेशानी सबके चेहरों पर साफ़ दिख रही थी | शाम हो गयी और ठाकुर साहब लौटकर नहीं आये | मुझे अच्छे से याद है वो भी मगरिब की  अज़ान का वक़्त था जब वो हवेली में दाख़िल हुए | हाथ में बन्दूक नहीं दिखी, बिना रुके बिना किसी से बात किये  वो सीधा सीढ़िया चढ़कर ऊपर माँ के कमरें का ताला खोल आये और उसी रात वो चली गयी .... पीर साहब को उन्हें अपनी शागिर्दी में लेना ही पड़ा ...
लोग तरह तरह की बातें करते रहे बहुत सालों तक पर ठाकुर साहब ने कभी किसी को नहीं बताया कि उन चार पांच घंटो में क्या गुज़री ....और ये भी सच है ठाकुर साहब ने तुम्हारी माँ के लिए कोई बुरा शब्द नहीं बोला .....तबसे बिना कहे सुने ही हवेली में एक कानून सा बन गया कि तुम्हारी माँ का ज़िक्र तक नहीं होगा .... तुम अक्सर पूछते थें कि उस ऊपर  वाले कमरें क्या है ? उसमे तुम्हारी माँ का सब सामान रखा है | वो तन के कपड़ो के सिवा कुछ लेकर  नहीं ले गयी | इतना कहकर बाँदी बुआ ख़ामोश हो गयी ........



कभी कभी तो अपनी शख़्सियत की इस मजबूती पे बड़ी हैरानी होती थी उसे ... वीर की परवरिश में ख़ुद को मसरूफ रख कर ये साल कैसे गुज़र गए ...वीर जवान हो गया पता ही नहीं चला | पर एक कसक एक अँधेरा साया दिल में हमेशा सोता रहा जिसे वीर के सवाल जगा दिया करते थें | जिसे बस वो  जानती थी या फिर उसका खुदा....
 इस साल जाड़ा बड़ा सख्त पड़ा  | इस सर्दी ने एहसास करा दिया था कि बुआ की हड्डियाँ अब अपनी उम्र पूरी कर चुकी है | जीने की कोई बड़ी वजह भी नहीं अब  ...अब ज़्यादा वक़्त नहीं है बुआ उसके पास | इसका एहसास उसे था |
पिछले कई दिनों से खटिया पर लेटे लेटे अब उसका दम निकलने सा लगा था |बुआ कई महीनों से बहुत बीमार चल रही थी ....बस आज या कल लगी थी .....बुआ की तबियत का पता चला तो वीर का मन ही बुझ गया ... कॉलेज में छुट्टी की अर्ज़ी लगाकर वो यही गया ... ************************************************

वीर ने जब उनके माथे पर रखा तो पाया कि बुख़ार अब बिलकुल नहीं है | माथा एकदम ठंडा है पर रात भर वो तेज़ बुख़ार के चलते सो नहीं पायी थी | साँसे उखड़ी उखड़ी ऊँची नीची बस जैसे तैसे चलती रही ... हाथ का स्पर्श महसूस हुआ तो उन्होंने आँखें  खोल दी और कितने दिनों बाद आज उनकी हलकी सी मुस्कान दिखी ... कुछ ही देर में दम फिर उलझने सा लगा तो खिड़की की ओर इशारा किया  ... वीर ने उठकर खिड़की खोल दी और देखा ... सूरज उदय हो रहा है...आस्मां लाल किरनो से भरा पड़ा है | कमरें के अंदर ताज़ी हवा बहने लगी ...
फ़तेहपुर चलोगीबिना नज़रें मिलाये ही वीर ने पूछा
फ़तेहपुर ...आवाज़ काँप रही थी पर फिर भी वो बोलने लगी ...  ” तुम्हारें नाना की हवेली के पीछे मेरा  घर था   |घर में एक छोटा सा इमामबाड़ा भी  जो तुम्हारी माँ को बहुत पसंद था | उन्हें इस बात पर बड़ी हैरत होती थी घर के अंदर भी इमामबाड़े हो सकते है क्या ? उसे तो बस एक ही इमामबाड़ा पता था , लखनऊ का इमामबाड़ा’ ...
इतने में खाँसी आई फिर कुछ रुककर एक  साँस खींचकर  वो आगे कहने लगीहर मजलिस में वो मेरे घर आती थी , फिर हम दिन भर खेला करते थें पता नहीं क्या क्या ... वो मुझसे उम्र में छोटी थी | ब्याह भी उसका कम उम्र में ही हो गयाजब ब्याह के यहाँ आयी तो  दहेज़ के साथ मैं भी गयी  “
 बहुत ताक़त लगाकर बोल रही थी | आवाज़ बीच में फंस रही थी| लफ्ज़ मुश्किल से ज़बान तक पहुँच रहे थें पर उनकी आसूँ के झरने मुसलसल बह रहे थें |वीर चाह रहा था वो आराम करें , ख़ामोश रहे ,उसने उन्हें रोका भी पर ऐसा नहीं हुआ |
 “कितनी बार डांट खायी उसने ..कुछ भी उठाकर दे देती थी किसी को भी | उसका दिल बहुत बड़ा था | कोई भिखारी ,फ़कीर ख़ाली हाथ नहीं गया दरवाज़े से | घर के जिस कोने में भी होती थी दौड़ती भागती जाती थी देने को | और कोई रो दे अगर तो ख़ुद उससे भी ज़्यादा रो पड़ती थी |
तुम जब पैदा हुए बावरी हो गयी थी ...तुम्हे सीने से चिपकाये ..दिन दिन भर नाम सोचा करती थी  ...कितने रखे कितने हटाये | कितनों से पूछा फिर आख़िरकार  ‘वीरपर जाकर खोज रुकी |
जब बुआ की हालत वीर से देखी गयी तो उसने खिड़की की ओर मुँह कर लिया और बाहर देखने लगा ....
वो बस बोले जा रही थी बोले जा रही थी ...‘ गुस्सा भी सख्त था | मन की मर्ज़ी पूरी हो तो चीज़े सीधा घर के कुएं में .... एक दिन जब तुम्हारे ना....ना साह... की डायरी ..डायरी नहीं बही थी शायद ....बही नहीं डायरी .........................”आवाज़ अब टूट रही थी | टूट रही थी ...   
 पर वीर जाने कहाँ गुम था ...उसे तो कुछ सुनायी ही नहीं दे रहा था | दिखायी नहीं दे रहा था ... एक टक सूरज पर गड़ाये जड़वत कोई लाश हो खड़ी हो जैसे ... आँखें तो खुली खुली पर किसी गहरी नींद के आगोश में बेसुध | क्या हो गया था उसे आख़िर ?
किसी ठंडी बयार ने वीर को जब छुआ ...तो एक सिहरन सी दौड़ गयी उसके बदन में ...एक ख़ुशबू सी ज़हन में उतर गयी | उसे लगा जैसे किसी सायें ने उसे गले से लगा लिया हो ...वो एकदम से होश में आया और मुड़कर देखा तो .......
घर में बहुत बड़ा अहाता था ...पीछे वाले आगन में जो मेहँदी के पेड़ थें वो तुम्हारी माँ के कमरें से दिखते थें ...जब हम लुका छिपी खेलते थें तो वो छोटी वाली कोठरी में छिप जाती थी और मै उसे लम्बी दालान में खोजा करती थी , कितनी बेवक़ूफ़ थी मैं!! मीठे पानी वाले कुएं का पानी पीते थें ,पान खाते थें और मन के गाने सुनते थें | कितने ख़ुश थें हम .... 
 मैं नौकरानी थी और वो रानी .... कभी लगा ही नहीं ...मखदूम शाह की दरगाह पर जब जब भी वो माथा टेकने साथ गयी ,वहां से हम फिर तालाब ज़रूर जाते थें सिंघाड़े खाने  ....और कुछ ही देर में नाना साहब की  फ़ौज उसे दूंढती हम तक आ ही पहुँचती थी ........"
....माँ के क़िस्से  पूरी फिज़ा में घुल रहे  थें पर बाँदी बुआ अब सो गयी थी  ....खिड़की से एक पीली तितली आकर बुआ के  सफ़ेद बालों पर बैठ गयी ...........