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Tuesday 24 July 2018

नीरज संस्मरण


२० अगस्त २०१६ , बाउजी के साथ मैं  
कशकोल के छपकर तैयार होते ही एक नयी दुविधा ने जन्म ले लिया था , कि अब इसका विमोचन कैसे होगा कौन करेगा इतनी दौड़भाग इतना काम किसी तरह हो भी गया तो आख़िर विमोचन कौन करेगा इस पर आकर सारी बात थम जाया करती थी और शीशे की अलमारी में रखी कशकोल की प्रतियों को मैं महीनो तक देखती रही ।
कोई नाम नहीं था मन में जो लोकार्पण करता बस कुछ था तो मेरी प्रबल इच्छा कि इन सूफ़ी कविताओं का संग्रह किसी नेक आत्मा द्वारा ही पाठकों तक पहुँचे ....
इधर स्कूल के कामकाज में मेरी व्यस्तता फिर बढ़ गयी ।
उन्हीं दिनो की बात है एक शाम हर्ष भैया का फ़ोन आया बातों बातों में जब कशकोल का ज़िक्र चला तो वो कहने लगे 
“ दीदी अपनी किताब का विमोचन आप नीरज जी से करवाइए 
उनकी बात सुनकर ऐसा लगा जैसे वो मेरा और मेरी किताब दोनो का मज़ाक़ उड़ा रहे होमुझे छोटा महसूस करवा रहे हो । नीरज जी भला मेरी किताब का विमोचन क्यूँ करने लगे वो भी इस उम्र इस अवस्था में .असम्भव!
मैंने मन ही मन कहा और उनसे भी कहा पर उन्होंने फिर मेरी बात को फिर हल्के में लिया और बड़ी गम्भीरता से बोल पड़े” “ आजकल अलीगढ़ में है बाउजी इस बार जब लखनऊ आएँगे तो मैं आप को बताऊँगा मिलवा मैं दूँगा बाक़ी आप किताब लेकर आ जाना और दो चार कविता सुना देना फिर जो रब की मर्ज़ी!!
और अब ऐसा लग रहा था जैसे मन की पूरी व्यवस्था बदल चुकी हो | कशकोल और उसका विमोचन दूर दूर तक कहीं ज़हन में नहीं था । बल्कि अब तो खुली आँखों में एक ही सपना कि क्या मैं उनको मिल पाऊँगी जिनकी कविताओं बचपन से पढ़ती आयी हूँ क्या उस प्रेम पुजारी के दर्शन सम्भव है अलमारी से उनकी एक किताब निकाली नीरज की पातीऔर पढ़ने लगी ... देर रात तक नींद नहीं आयी तमाम सवाल सम्भावनाएँ मन में घिरने लगी और अगर सच में मिल ही ली तो सबको बताऊँगी कि मैं किससे मिली । घर में पापा चाचा से लेकर भाई बहन तक सब तो उनके दीवाने है ।
विमोचन के लिए भी हाँ कर दी तब फिर क्या होगा ।
हे राम! ये सोचकर ही मेरा दिल  ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा था ।
मुश्किल से आठ दिन बीते थे, कि हर्ष भैया का फ़ोन दोबारा आया  दीदी आज शाम को पाँच बजे किताब लेकर ११ मंत्री आवास गोमती नगर आ जयिएगा बाऊजी यहीं है आजकल 
मुझे कुछ समझ नहीं आया कि थे सब क्या हो रहा है | आज शाम पाँच बजे क्या मैं गोपाल दास नीरज जी से सच में मिलूँगी ?.मन की मुराद पूरी होती दिख रही थी पर साथ साथ एक घबराहट भी उमड़ रही थी । स्कूल से घर वापिस आते ही मैंने अपनी किताब निकाली और सोच में पड़ गयी कि क्या सुनाऊँगी आज बाऊजी को ।
पता ही नहीं कब सबकी तरह मैं भी नीरज जी को प्यार से बाऊजी कहने लगी थी ।
आज पहली बार अपनी किताब देखकर लगा कितना बेकार लिखती हूँ मैं |.. एक भी ढंग की कविता नहीं जो उन्हें सुना सकूँ । देर तक कविता खोजती ही रही । क्या सुनाऊँ क्या सुनाऊँ जो उन्हें अच्छा लगे .. जिसे सुनकर वो हाँ कह दे , मेरा लिखना सफल हो जायेगा  ...
शाम के पाँच बजने में पाँच मिनट बाक़ी थे और हम उनके घर पहुँच चुके थे | एकदम सीधा सादा घर बाऊजी की तरह कहीं कोई सजावट बनावट नहीं । लगा ही नहीं कि महाकवि नीरज जी का घर है  । इतनी सादगी से रहते है इतने बड़े लोग  मुझे आश्चर्य हो रहा था | मुझे भी ऐसा ही बनना है , मन ने तुरंत तय किया , बस एक सोफ़ा और उसके सामने पड़ी एक मेज़ । उसी सोफ़े पर मैं पसीने की बूँदे पोंछती घबराती आँसू छिपाती चुपचाप बैठी रही । इतने सारे भाव एक साथ जन्म रहे थे कि कुछ सूझ ही नहीं रहा था । किस भाव से जुड़ूँ और किसको छोड़ूँ।
बाऊजी अभी सो रहे है कुछ देर में जागेंगे तब तक आप लोग बैठिए “ सेवक ने कहा
कुछ देर बाद अंदर वाले कमरे से बुलावा आया । अपने कमरें में वो बिस्तर पर लेते थे | उनको देखा तो अपने से एक आँसू चुप से बह चला सौभाग्य का प्रेम का । मैंने उनके पैर छुए तो उन्होंने मुझे बिस्तर के बग़ल पड़ी कुर्सी पर बैठने को कहा ।
अपने हाथों में किताब लेकर उन्होंने पूछा  क्या नाम लिखा है किताब पर ?”
कशकोल
इसका अर्थ
फ़क़ीरो के हाथ में जो क़ासा होता है उसी को कशकोल कहते है  मैंने डरते हुए कहा
"सुनाओ कुछ"
मैंने एक कविता सुना दी |  
"गीत तो इसमें है ही नहीं “ सुनकर बाऊजी ने कहा"
मुझे जोर का धक्का लगा , सारा मनोबल बुझ गया । मैंने तो अपनी समझ से सबसे अच्छी कविता सुनायी थी | पर बात संभालते हुए हर्ष भैया बोले दूसरी कविता सुना दो  दीदी
मैंने दूसरी कविता सुनायी
अब दूसरी कविता सुनकर बाऊजी बोले
"बस आध्यात्मिक विचार है तुम्हारे ,गीत नहीं है इनमें "।
जी। सारी कवितायें ऐसी ही है ।मैंने सारी उम्मीदें छोड़ कर कहा ।
"आजकल कोई गीत लिखता ही नहीं अच्छा ऐसी कविता सुनाओ जो तुम्हें सबसे पसंद हो
और अब मैं अपनी आख़िरी कोशिश कर रही थी।
“बरसते हुए एक दफ़ा
बारिश की एक बूँद ने
चमेली से कहा " प्रिय
मुझे अपने ह्रदय में बसा लो"
वो कुछ कहती इसके पहले ही
बूँद बरस गयी।
चमेली तो बस सोच में पड़ गयी
वो कहती भी तो क्या ?
जबकि वो जानती थी
बूँद को आगे बढ़ना होगा
मरना होगा  बरसना होगा 
उधर वो बूँद बगैर जवाब ही
बरस गयी ....
वो भी तो जान चुकी थी कि
फ़ना होकर भी एक रास्ता है
पौधें की जड़ में समाकर
पहुँच भी गयी
और अब वही रहती है
चमेली के ह्रदय में...."

बाउजी के साथ उन्हें कविता सुनाती मैं 
हम्म ये अच्छी है । प्रेम कविता । क्या करती हो तुम ?
मैं पढ़ाती हूँ बाऊजी । 
कहाँ करोगी विमोचन ?”
 
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में 
विद्यालय में करो छात्रों के बीच 
आप करेंगे बाउजी  ?
हाँ करेंगे ।
क्या , मैंने फिर पूछा
“कह तो दिया तारीख़ एक दो दिन में बता दूँगा हर्ष को 
मेरी हालत अब और भी नाज़ुक थी । ये क्या हो रहा था मेरे साथ । बाऊजी करेंगे विमोचन!!! 
उन्होंने हाँ कह दी तुम सुन रही हो ना श्रुति.... मेरे दिल ने कहा,दिल कर रहा था सबको चिल्ला कर बता दूँ कि देखो ..कौन आ रहा है मेरे स्कूल मेरी किताब का विमोचन करने |  
२० अगस्त २०१६ की तारीख मिली और बस विद्यालय में जश्न की तैयारियाँ शुरू हो गयी

लोयोला इंटरनेशनल स्कूल , विद्यालय जहाँ बाउजी आये थे.... 
नीरज पर्व की धूम थी | सब मगन थे ।किताब की तस्वीर और बाऊजी की तस्वीर लगाकर निमंत्रण तैयार हो गया पर  मैं ख़ाली काग़ज़ लेकर बस सोचा करती थी कि मैं माईक पर क्या बोलूँगी बाऊजी के सामने | बहुत लिखा पता नहीं क्या क्या ....
विद्यालय परिवार मित्र और साथी लेखक सभी को कार्ड भेजा गया , इसके सिवा उस दिन कुछ लोग बिना निमंत्रण के ही  बाउजी का नाम सुनकर दौड़े चले आये। जिन्हें मना करना उनका दिल तोडना था | मैं भी न समझती तो कौन समझता , विद्यालय में सबको आने दिया , जो भी बाउजी को देखना चाहते थे |

बाऊजी व्हील चेयर पर चलते है स्टेज पर रैम्प बनाना होगा
बाऊजी ९१ वर्ष के है खड़े होकर नहीं बोल पाएँगे
वो बस आधा घंटा रुकेंगे उनकी तबियत ठीक नहीं
ये भी पता चला कि बाऊजी को हलवा पसंद है ..ये सुनकर मैं एक बार फिर ख़ुशी से पागल हो गयी क्यूंकि मुझे हलवे के सिवा कुछ बनाना नहीं आता ...पर लोग कहते है हलवा मैं अच्छा बनाती हूँ |

बाउजी को तिलक लगाती विद्यालय की छात्राएँ 

बाउजी के साथ हम दोनों 

                               बाउजी का प्रिय हलवा 
विद्यालय परिवार के साथ बाउजी 

खिलखिलाते  बाउजी 
मुझे अच्छे से याद है छात्राओं और अध्यापिकाओं के टिफ़िन में बस हलवा ही हलवा था ,उस दिन सब चाहते थे उन्हें अपने हाथ से टीका लगाना उनके पैर छूना और अपने हाथ का बना हलवा खिलाना । बाउजी हॉल में दाखिल हुए तो सभी लोग अपनी अपनी कुर्सियों से खड़े हो गए , व्हील चेयर से बाउजी को स्टेज पे ले जाया गया , जहाँ वो आराम से कुर्सी पर बैठ गए .... नीरज जी के सिवा माहौल में कुछ और नहीं था |
बाउजी खूब हसे खूब बोले 


बाऊजी को उनके बेटे शशांक जी लेकर आए जो ख़ुद भी राष्ट्रीय कवि है साथ सर्वेश अस्थाना जी हर्ष भैया जूही दीदी ,मेरा पूरा परिवार हम सब शामिल हुए इस नीरज पर्व में ..बाऊजी उस दिन ख़ूब बोले बोलते ही रहे | अपनी कवितायें
मेरे पापा ,चाचा और बुआ बाउजी के साथ 

सुनायी हम सभी को आशीर्वाद दिया । कुछ बच्चों के डिब्बे से हलवा भी खाया और ख़ूब तस्वीरें खिंचवायी ।बाउजी आधे घंटे को आये थे और ढाई तीन घंटे रहे |बाउजी के जाने के बाद कई लोगों ने एक अजीब सा सवाल किया था" इतने बड़े कवि को आपने अपनी किताब के विमोचन के लिए विद्यालय बुला लिया , बहुत पैसे लिए होंगे उन्होंने , हैना मैडम?

जी नहीं , मैंने  प्यार से बुलाया वो प्यार से आ गए .... ये रूपए कहाँ से बीच में आ गए | बड़े फक्र से मैं आज भी कहती हूँ |



सबको हँसाते सर्वेश जी 

बाउजी के बेटे शशांक जी और हर्ष भैया 


उस दिन तो बाउजी आकर चले गए पर फिर उनसे एक बार मिलने का मन किया तो हाथ का हलवा बनाकर अपने परिवार के साथ मैं फिर उनसे मिलने गयी ....
इसके बाद कभी नहीं मिल पायी मैं उनसे 


 

                               बाउजी का ऑटोग्राफ 

और हाँ! एक आख़िरी बात उस दिन मैंने भी माइक पर अच्छा बोला था | पर वो नहीं जो लिखा था कागज़ पर बल्कि वो जो ह्रदय ने कहा , पर पता मुझे भी नहीं था कि मैं कर  क्या रही हूँ |
“ आज बाउजी के आने से नब्ज़ धड़क उठी है , जैसे कुंडली जाग गयी हो , किस्मत निखर  गयी | वो यहाँ हम सब के बीच है | अभी तक यकीन नहीं कर पा रही हूँ | इसलिए कुछ ऊंचा नीचा हो जाये तो मुझे माफ़ करियेगा ...सच बोलूं  , मेरी नब्ज़ बहुत तेज़ चल रही है अभी और कुछ सूझ नहीं रहा कि अब आगे क्या बोलूं  | आज बाउजी को मेरे साथ देखकर मेरी वाणी और मेरा ह्रदय दोनों मुझे अकेला छोड़कर अपनी मन मर्ज़ी कर रहे है | मेरी किताब का विमोचन बाउजी के  हाथों से होगा , कभी सोचा नहीं था ....
आज उनके प्रेम  की बारिश में हम सब साथ भीग रहे है, बस ये कशकोल यूँ ही भरा रहे प्रेम से मोहब्बत से , यही चाहती हूँ मैं | बस इसी नशे में रहना चाहती हूँ , बस इतना ही चाहती हूँ