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Wednesday 25 December 2013

वक़्त ...


जो कुछ भी करा दे
सभी के सर झुका दे
मिटा दे , बना दे
भुला दे , उनको
जो दिल का टुकड़ा होते थे कभी
या पूरा पूरा दिल , कहना मुश्किल है
कितने साल हो गए माँ को गुज़रे
जिंदगी फिर भी रफ़्तार से आगे बढ़ी
वक़्त के काँधे पर हाथ रखकर
आख़िरकार ,भुला दिया वक़्त ने उन्हें भी
कुछ धुंधली सी तस्वीर बची है  
पर आज कई दिनों बाद ...
वो कुछ थका हारा सा बैठा है, एक कोने
और जिंदगी के सफ़ेद कैनवस पर
एक शक्ल उभर आई है
जो पूँछ रही है मुझसे
ठीक तो हो तुम ?
                       श्रुति 

ये कोहरे वाली सुबह

कितनी अच्छी लगती है
ये कोहरे वाली सुबह
लगता है , कोई कविता लिखवायेगी
सुबह सुबह जब आँख खुली
तो सुबह कही ना थी
बस कोहरा ही कोहरा
कोहरा  ही कोहरा
घाना कोहरा छाया था
मगर शीशे से चिपकी
ओंस की बूँद से , सुबह ने
संदेसा ज़रूर भिजवाया था
“ सूरज के साथ दुबकी पड़ी हूँ
आज ठंड बहुत है

मै ज़रा देर से आउंगी”


                            श्रुति 

Friday 20 December 2013

मजलिस

                               

हुआ कुछ यूं की, एक ऐलान किया गया , यहाँ ज़मीन पर नहीं कहीं और , की फलां दिन फलां वक़्त पर एक मजलिस का इंतज़ाम है तमाम दुआओं से शिरकत की गुज़ारिश की है , फिर दुआओं की चली मजलिस आसमान में ,जिसकी पूरी ज़िम्मेदारी कायनात के कंधों पर थी , कायनात खासा परेशान थी, वजह साफ़ थी , दुआओं का उमड़ता हुजूम देखकर उसके तो हाथ पाँव ढीले हो गए , पर हिम्मत ना हारी उसने , इंतज़ाम पुख्ता किये सभी . एक और फिकर भी उसे सताए जा रही थी की आखिरकार इन दुआओं की मज़लिस चलाएगा कौन ? सुनवाई करेगा कौन ? ये तो सिर्फ उपरवाला ही कर सकता है , ये तो भेजी ही गयी थी उसके लिए  , मतलब खुदा के लिए , ईश्वर के लिए , मसीहा के लिए और भी बहुत सारे नाम होते है , ज़मीनो पर तरह तरह के अपने मन से लोग बाग़ रख लेते है , पर ऊपर जाकर सब एक हो जाते है, अल्लाह मौला राम कृष्णा एक हो जाते है  “ऊपर वाला “ बन जाते है . तो फिर बात आगे बढ़ी , कायनात ने भेजा तार ऊपरवाले  को,  और बताया की माजरा क्या है , तार पढ़कर ऊपरवाले ने कहा उस फ़रिश्ते से जो लेकर आया था तार “ कमाल है ! ये कायनात भी अजीब चीज़ है ,जानती है उलझा हूँ मै , और भी कामों में और इसी के तो काम कर रहा हूँ , कितनी रूहों को जिस्म देना बाकी है , कितने सय्यारों पर नज़र रखनी है , बादलो के शहर जाना है, बारिशों का हिसाब किताब देखना है, नयी ज़मीनों की तलाश करनी है , भीड़ बहुत हो गयी मौजौद जगहों पर , दरख्तों की नयी किस्में बनानी है , और इस कायनात ने बिना मुझसे पूछे ही दुआओं की मजलिस लगा दी , बता देना उससे , वक़्त मिला गर तो कल दोपहर तक आता हूँ वरना फिर और कभी “
   बड़े बड़े ज़ोर ज़ोर की आवाजें आ रही थी , धक्का मुक्की मची पड़ी थी , कदम रखने को भी जगह  न थी, कुर्सी की जंग यहाँ भी मौजूद थी , एक के ऊपर एक चढ़ी पड़ी थी दुआएं , कोहनियाँ  रगड़ रगड़ कर जगह बना रही थी , जाने कहाँ कहां से आई थी , हिन्दुस्तान से , पाकिस्तान से , ढाका से , इरान से , फीजी  से , तुर्क से , अमरीका से , रोम से  और भी बहुत जगहों से, दुनिया की सभी जगहों से , जहां जहां भी जिंदगी बसर है वहाँ वहाँ से आई थी ये बेशुमार दुआएं . सब की  सब बैठी थी , आँखों में उसी का इंतज़ार लिए , वो कब आयेगा , कब आएगा , मन्नते , मुरादें दुआएं सब एक दुसरे का मुह देखती तो कभी घड़ी , तभी संदेसा आता है, की ऊपरवाला नूर के पर्दों से निकल चूका है रास्तें मे है साथ में कुछ तारें और प्लूटो भी आ रहे है . तब तक शांती बरकरार रखी जाए ...
कुछ ही देर में ऊपरवाला आ पहुँचता है, बैठ जाता है अपने तख्त पर जलवा नशीं होता है . किसी अज़ीमोशान शेहेंशाह की तरह , नूर की बरसात करने वाला , खुद भी लबरेज़ था ,नूर से , मोहब्बत से, रहम से .
 “गुफ्तगू शुरू की जाए “ फ़रिश्ते सभी दुआओं को एक एक करके भेजने लगते है ,
सबसे पहले , पहली दुआ पेश की जाती है , वो खड़ी हो जाती है “ हुज़ूर मै अमरीका की सर ज़मीन से भेजी गयी हूँ , एक माँ की दुआं हूँ , जिसका बेटा वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के धमाकों में मारा गया था , उसकी रूह को सुकून मिले बस इसीलिए भेजी गयी हूँ ,पिछले कई सालों से यही भटक रही हूँ ,हर रोज़ भेजी जाती हूँ “
ह्म्म्मम्म , तो यह बात है , फ़रिश्ते , “इस दुआ को भेजने वाले के पास हमारा संदेसा भिजवाओ कहो इस माँ से , की बेटे की रूह की फिकर ना करे , रूह तो हमेशा ही सुकून से रहती है , बेचैन तो जिस्म हुआ करते है रूहे नहीं , एक बार जिस्म के कुण्डी तालें तोड़कर बाहर निकली रूह , तो फिर  सुकून ही सुकून है , जिंदगी मौत के इल्म को नहीं जानती है वो , फिकरमंद न होए, सेहत का ध्यान रखे और ख़ुश रहें  “ जी हुज़ूर “
तभी एक दुआं बिना नंबर के ही आगे आ गयी , और कहने लगी हुज़ूर मै नंबर का इंतज़ार नहीं कर सकती , नवा महीना चल रहा है उसका, जिसकी मै मन्नत हूँ , दो बेटियाँ पहले ही है अब कुछ तो दया दिखाइए एक बेटे की तमन्ना है , पूरा खानदान एक ही उम्मीद लगाकर दिन रात मुझे भेजा करता है . ऊपरवाला ने पूरी बात सुनी और कहा “ ऐ फ़रिश्ते , इस दुआ को दुआओं के कब्रिस्तान में दफ़न किया जाए अभी इसी वक़्त और ये भी ध्यान रखा जाये आगे से ये खानदान बिना औलादों के ही रहें , ये इस लायक ही नहीं की इन्हें बेटियाँ दी जाये , उस दुआ को लेकर फ़रिश्ते कब्रिस्तान की तरफ चल पड़ते है  
अब दूसरी दुआं को पेश किया जाए , तभी दूसरी दुआ सकुचाई सी खड़ी हो जाती है  “ हुज़ूर , फिलिस्तीन की सरज़मीन से आई हूँ, मै एक पत्नी की मुराद हूँ , नहीं चाहती की मेरा पति सेना में जाए और मारा जाए , आजादी मिले की न मिले पर वो जिंदा रहने चाहिए ज़रूर ,” अच्छा ! सब दुआये चुप  हो जाती है जब वो बोलता है “ बात यहाँ पर ना तो सेना में जाने की है ना ही आज़ादी की , बात है जज़्बे को जीने की , और ऐसा ही होना चाहिए  , बिना जज़्बे के जीना भी कोई जीना है जाओ कह दो उस पत्नी से क्या चाहती है वो , हमेशा अपने पास रखकर जिंदा  मारेगी अपने पति को  या जीने देगी उसे अपनी मौत तक , और फिर कल किसने देखा है की जोशीला कडियल सही सलामत वापिस आ जाए जंग के मैदान से  “पर उफ़ ये जंग , आखिर क्यूँ ,  ऊपरवाला दुखी  दिख रहा था.
वक़्त कम है दुआएं ज़रा जल्दी जल्दी भेजी जाए तुरंत ही तीसरी दुआ को पेश किया जाता है ,” साहेब, मै हिन्दुस्तान के जबलपुर से आई हूँ , एक प्रेमी  की मन्नत  हूँ, तड़पता है जो दिन रात अपनी प्रेमिका से मिलने के लिए पर ये ज़ालिम ज़माना दोनों के प्यार का विरोधी है  , रो रो के रोज़ भेजता है मुझे इधर से ये उधर से वो उसकी प्रेमिका  , दोनों की एक ही दुआ है मिलन की दोनों की तरफ से मै अकेली ही आई हूँ “
“ ये प्रेमी कहा हुए , किसने इन्हें प्रेमी का दर्ज़ा दे दिया , प्रेमी वो नहीं होते जो मिलन के लिए तड़पते हुए रो रो कर अपनी जान दे दे , और किस मिलन की बात कर रहे है ये , मिलन तो प्रेम होते ही हो जाता है , प्रेम का तो पूरा मतलब ही मिलना है , दो आत्माओं का मिलन , दो दिलो का भी , दो सपनो का , भावनाओं का , और कौन सा मिलन बचता है , गर बचता है तो वो सिर्फ एक हिस्सा है प्रेम का , पूरा प्रेम नहीं , और जिसके बगैर भी प्रेम जीता है और फलता ,फूलता है , और फिर बिना दर्द के भी कोई प्रेम होता है क्या ? जुदाई का मज़ा नहीं लिया क्या दोनों ने , कह देना दोनों से , गर प्रेम होगा , खुद बा खुद अपनी जगह बना लेगा, महफूज़ कर लेगा खुद को इनके  आसुओं में या हँसी में “    
मज़लिस चलती जा रही थी , फ़रिश्ते दौड़ दौड़ कर एक के बाद एक दुआओं को पेश किये जा रहे थे और ऊपरवाला बिना रोक टोक अपने फैसले सुनाये जा रहा था . अगली फ़रियाद सामने आ चुकी थी , हुज़ूर मै भी हिन्दुस्तान से हूँ और एक बेटे की दुआ हूँ जो चाहता है की उसके बाप की पूरी संपत्ति उसी को मिले जबकि  बाकी तीन भाइयों के हाथ कुछ भी ना लगे , “ह्म्म्म ये माजरा है, औरगज़ेब के खानदान से है क्या ? ,वो थोडा गुस्से में बोलता है  ये दुआ  कतई काबिले क़ुबूल नहीं है इसे भी दफ़न किया जाए और हैरान हूँ मै इस बात पर भी सूरज की आग से ये दुआएं भसम क्यू नहीं हो रही है बीच में ही , ये यहाँ तक पहुची कैसे ? हम सूरज से भी बात करना चाहते है उसे बुल्वालिये दो एक दिन में , कितने अफ़सोस की बात है यहाँ से रूहों को कितने प्यार से नए नए जिस्म पहना कर भेजता हूँ औए नीचे पहुचते ही ये लोग क्या क्या सीख जाते है , खैर... अगली दुआ पेश की जाए ...
अगली दुआ कुछ अजीब थी , एक नहीं थी दो थी एक साथ , हुज़ूर हम दोनों परेशान है मै हिन्दुस्तान से , दूसरी बोली मै पाकिस्तान से , आज दोनों मुल्कों के बीच क्रिकेट मैच चल रहा है , करोड़ो लोग हमे भेज रहे है लगातार दोनों मुल्कों से , शाम तक फ़ैसला होना है , दोनों दुआये बेबस खड़ी थी “ ये तो दुःख की बात है की खेलो को भी जंगे अज़ीम बना दिया गया है , ये कैसा खेल हुआ जिसमे की खेलकूद की भावना ही ना हो इसे भी अहंकार का विषय बना दिया गया है , कमाल है ये ज़मीन के मसले , जाओ जीतेगा तो वही जो अच्छा खेलेगा और वो हारकर भी नहीं हारेगा जो खेलकूद की भावना से खेलेगा ”
एक व्यापारी की दुआ का नंबर था अब , साहेब, धंधा अच्छा चले इसके लिए रोज़ भेजता है मुझे ढाका का साड़ी व्यापारी रोज़ आप पर नारियल वगैरह भी चढ़ाता है,” हद हो गयी अब तो ये धन्धेबाज़ लोग तो मेरे साथ भी धंधा ही करते है , हटाओ इन सबको किनारे “
अचानक ऊपरवाले की नज़र एक नाटी सी दुआ पर पड़ी उसने कहा ये किसकी दुआ है इतनी छोटी सी , दुआ बोलती है ”गॉड , मै एक पांच साल की छोटी बच्ची की दुआं हूँ जो दिन रात अपनी पालतू  बिल्ली के ठीक होने की दुआं करती है क्यूकी वो कई दिन से बीमार है , गॉड ज़ोर से हंसता है फिर कहता है  “ बच्चो की सभी दुयाएँ क़ुबूल है ठीक करो इस बच्ची की बिल्ली को जल्द से जल्द “ 
अगली दुआं पेश की जाए , हुज़ूर मै कोई दुआ नहीं हूँ बस एक शुक्रियां हूँ जो नीचे रहने वाला एक बंदा दिन रात आप से कहता है , की जो भी आप ने दिया उसे, वो बेहद खुश है , आपकी दी हर चीज़ सूख हो की दुःख बस अपनाना जनता है , बस उसका ये शुक्रिया आप भी क़ुबूल कर लीजिये. ऊपरवाला कहता है “ ये शुक्रिया इतना दूर क्यूँ है मुझसे मेरे करीब आ जाए , मेरे गले से लग जाए इसकी जगह इस मजलिस में नहीं मेरे दिल में है ,ऐ फ़रिश्ते इससे पूँछों तो , क्या ये भी मुझे अपने दिल में रहने की जगह देगा “ ऊपरवाला भावुक हो जाता है उसकी आँखें भी भर आती  है और आज की ये मजलिस यही तक चलती है अगली तारीख का ऐलान कुछ दिनों बाद किया जाएगा .... 

                                                 श्रुति त्रिवेदी सिंह 

   

Wednesday 18 December 2013

पारिजात ....

                                                              

एक बार की बात है , एक बड़ा पुराना घना जंगल  था , जहां पर पेड़ इतने ज़्यादा थे की धूप ज़मीं तक पहुँच नहीं पाती थी बड़ा अँधेरा अँधेरा सा रहता था जैसे बारिश के दिनों की रातें होती है जैसे  , धूप देखने के लिए बड़ी दूर पैदल चलकर  जाना पड़ता था और रास्ते में तमाम चीज़े दिखती थी घने घने बड़े पेड़ तो थे  ही साथ में छोटे छोटे झुरमुट भी दिख जाते थे और जब हरे हरे  पेड़ों  की छाया से धूप कभी कभी नीचे उतरती थी छन छन कर बिखरती थी तो जैसे छोटे ,गोल पुराने सिक्कों की परछायी पड़ती हो . कुछ गिल्हेरियाँ भी थी, इधर उधर आती जाती दिख जाती थी दौड़ लगाती मिटटी पर अपने होने के निशान छोड़ देती थी  , रात में जुगनू बजते थे और चमकते भी थे ,चमकता तो चाँद भी था आसमान में और दिन में सूरज  भी , पर यहाँ दीखता ज़रा कम था हमेशा ग्रहण सा लगा रहता था ,एक चमकीला ग्रहण .
  एक किनारे पर पेड़ ज़रा कम थे ,पर वो दूर था बहुत. वहां एक नदी भी थी पतली एकदम ,पतली इतनी थी की बड़े बड़े पत्थरों को पार नहीं कर पाती थी बगल से निकल जाती थी, पर बहती हमेशा थी पूरे साल , सालो साल से बहती ही जा रही थी किसी को भी पता नहीं था की वो बह कबसे रही है और पानी आता कहाँ से है उसमे , मिटटी वहाँ की थोड़ी सर्द रहा करती थी , नर्म भी थी ,जाड़ों में ठंडी ,गर्मियों में सीली और बारिशो में भीग जाया करती थी, जिन थोड़ी जगहों पर धूप आ जाती थी वो सख्त किसी तखत के जैसी हो जाती थी, जिसमे दरारे भी होती थी , ऊपर से ये मिटटी थी तो सख्त पर दरारों से जो मिटटी भीतर से पुकार लगाती थी बाहर  वो, वो जिंदा हुआ करती थी किसी गीली लकड़ी की तरह मुलायम और सोंधी .
इस घनेरे जंगल में इंसान नहीं बसते थे, ज़रूर डरते होंगे क्यूकी इंसानों को तो बस्तियां पसंद है और ये था बियाबां जंगल ,यहाँ भला कोई क्यों बसता , खुद के साथ रहना इतना आसान भी नहीं होता इंसानों की भी किस्मे होती है , कुछ भीड़ में अकेले रहते है , कुछ अकेले में अकेले रहते है जबकि कुछ भीड़ में भीड़ होते है, उससे ज़्यादा कुछ भी नहीं  .
वहाँ पर एक छोटी बच्ची दिखा करती थी , अकेलेपन में अकेली, बिरली सी , अलबेली , प्यारी सी परी जैसी थी वो ये भी उस नदी की तरह ही थी ,कहाँ से आई थी कोई नहीं जानता  , इसमें तो कोई शक ही नहीं, की डरती बिलकुल नहीं थी वो , अकेले ही रहती होगी , अपने उस जंगल में  , उलझे उलझे सुनहरे  बाल लेकर घूमती रहती थी यहाँ वहाँ पूरे जंगले में , कभी धूप खानी हो तो किनारे आ जाती थी वरना वही उस अँधेरे जंगल में खोयी रहती थी ,पेड़ो की छाया में , यहाँ का रोशन अन्धकार  उसकी जिंदगी को सभी रंगों से भर रहा था , खुद से बात करना , जंगली जानवरों और पेड़ पौंधो से मोहब्बत करना बस यही उसकी जिंदगी थी और बेहद खुश थी वो .
और इसी जंगल के बीचो बीच एक बड़ा पुराना पारिजात का पेड़ भी था ,कई सौ साल पुराना शायद किसी इच्छाधारी नाग की तरह “जाग्रत”, जिसके बारे में ये भी कहा जाता था , की इसमें खिलने वाले सफेद रंग के बड़े बड़े फूल , बेहद हसीं होते है और किस्मत वाले ही उनका दीदार कर पाते है, इन फूलों का तिलिस्म रूहों को जगाने वाला होता है  , सालो साल में एक बार ही खिलते है और अगर खिल जाए तो महीनो तक लदे रहते है पेड़ पर और पिछले कई सालों से नहीं आये है इस पारिजात पर , ये बच्ची  वही इसी पेड़  की छाया में ज़्यादातर वक़्त बिताती थी . एक पतली डंडी से , पेड़ के चारो तरफ एक लकीर खींच कर , उसी लकीर को पकड़कर दौड़ा करती थी थक जाए अगर तो छाया में सहता लेती थी फिर से उठकर सिक्कडी खेलने लगती  थी .
अपनी बकरियां और भेड़े लेकर निकल पड़ती थी सबेरे सबेरे , दिन भर घुमाती थी उन्हें  इधर उधर साँझ तक  . बीन कर लाती थीं जो लकडियाँ उसी से चूल्हा जलाती थी , और रात में अक्सर उस पतली सी  नदी के किनारे पर जाकर बैठी रहती थी , पानी पर तारो की छाया देखते रहना  उसकी ख़ूबसूरती को और भी बढ़ा रहा था  . उस हिलती डूलती पानी की धारा में चाँद जब दिख जाता था, चादर में पड़ी सिलवटों की तरह , तो उसके होंठों के किसी किनारे पर हँसी चुपके से आ जाती थी और उससे अकेलेपन में बतियाने लगती थी और बहते पानी का संगीत उसके कानो को छूकर जब निकलता था तो चेहरे पर ऐसे भाव आते थे की उसकी इबादत करने का दिल करता था , नदी किनारे वो पीपल का पुराना पेड़ उसकी हर हरकत पर नज़र रखता था और ज़रूरत पड़ने पर उसकी मदद भी कर  देता था . रात की चांदनी, उसे चांदी जैसा रंग भी रही थी .सूरज से ऊर्जा लेकर  वो बच्ची बादलो ने मस्तानी चाल चलना सीखती थी , हवाओ ने गति और ठहराव बताया , ऊंचे ऊंचे पेड़ो ने उस बच्ची को “देना” सिखाया था और झुकना  भी . जानवरों ने सारी ज़ुबाने और फूलों ने सारे गीत . जंगल की इस बच्ची की आँखों में गज़ब का उछाल था , जीती जागती प्रकृति लगती थी . उसका जीवन किसी सितार से निकली हुई बेहतरीन धुन था . अपने तरीके से उसने क्या कुछ नहीं जान लिया था . इंसानों से कोसो दूर थी वो और खुदा की बनायीं क़ुदरत से बेहद करीब .

अब जाड़ो का सर्द मौसम शुरू हो चूका था और वो बच्ची अब बड़ी हो गयी थी, वक़्त आ चला था क़ुदरत को शुक्रिया करने का और घने कोहरे में एक दिन अचानक वो गायब हो गयी पर अगले दिन सुबह “पारिजात” के सीने में एक गहरी चाक थी और पेड़ के नीचे पैरों के चंद निशाँ भी पर  ऊपर जब देखा , पूरा का पूरा पेड़ सफेद जादुई  फूलों से भरा पड़ा था .....     

                                                                 श्रुति त्रिवेदी सिंह 

Sunday 15 December 2013

माज़ी, हाल और मुस्तकबिल

माज़ी, हाल और मुस्तकबिल यानी की भूतकाल वर्तमान और भविष्य हमेशा से परेशान करते है, पेचीदा कहीं के ,  जबकि पढ़े लिखे समझदार लोग कहते है की हाल में ही जीना चाहिए , क्यूकी  माज़ी तो माजी है और जो बीत चुका है वो बस जा चुका है ख़तम सब , उसका कुछ नहीं कर सकते जो होना था वो हो गया और मुस्तकबिल की तो फिकर ही बेकार है क्युकी वो तो किसी ने भी नहीं देखा अनदेखा अनजाना उसकी तो ख़ूबसूरती ही पर्दों में है और वैसी भी  इंसानी काबिलियत के परे है उसे जानना , तो बेहतर यही होगा की हम हाल में ही जिए .

पर हमे तो माज़ी में जीना अच्छा लगता है माज़ी की सुगंध अच्छी लगती है बड़ी मिठास है उसमे सब कुछ जाना पहचाना सा लगता है बड़ा अपनापन है यहाँ ,एक फायदा और भी है माज़ी में जाकर तस्वीरों को दोबारा उलट पलट कर देखने से खुद की खूबियाँ और खामियां ख़ूब पता चलती है और इसके पहले की, और मुस्तकबिल माज़ी में तब्दील हो उसे निखारा भी  जा सकता है , हम तो माज़ी में ही गिरफ्तार होना चाहते है असीरी की चाहत है. ऐसा लगता है माज़ी में खड़े होकर देखो अगर गौर से  तो मुस्तकबिल भी एकदम साफ़ दिखाई पड़ता है और हाल का क्या मतलब होता है ? एक पल का हाल होता है क्या ?या उससे भी कम, क्यूकी  वक़्त तो कभी ठहरता नहीं , जैसे ही एक पल गुज़रता है माज़ी ही तो बन जाता है , गुज़रा हुआ पल या फिर गुज़रा हुआ कल ,  है तो एक ही चीज़,  तो हाल बचा ही कहाँ इसका मतलब हाल सिर्फ वो ही एक पल होता है जो आधा मुस्तकबिल से आता है आधा माज़ी बन जाता है , हाल होता है क्या ??

Friday 13 December 2013

“मै बेंच हूँ'''



जाने कितने सालो से यहीं हूँ , इसी पार्क में . पहले यहाँ यूकेलिप्ट्स के ऊँचे ऊँचे पेड़ हुआ करते थे तेज़ हवाएं जब चलती थी तो झुक झुक कर एक दुसरे के कानो में मुह डालकर बातें किया करते थे , जिनसे विक्स जैसी महक भी आती थी, और रात में इन पेड़ो की पत्तिया चांदनी के रंग की चमकती थी और सूरज की धूप में हलकी हरी हो जाती थी अब ये पेड़ यहाँ नहीं है इनकी जगह दुसरे पौंधो ने ले ली है और बड़े वाले गेंदे के फूल क्यारियों में बिछे रहते थे पहले पर अब किनारों पर गुडहल लगा दिए गए है और बीच में लिली , जंगली गुलाबों की जगह रंगीन गुलाबों ने ले ली है .
हर उमर के लोग अलग अलग समय पर हर रोज़ यहाँ आते थे , इस पार्क में और अब भी आते है .. आकर बैठते है तरह बेरत्रह की बातें करते  है मै सब सुनती रहती हूँ , कब से सुनती आ रही हूँ क्या कुछ नहीं जानती मै ,जितना तो मै जानती हूँ , जितना तो वो भी नहीं जानते, वो सब बातें करते है मुझपर, बैठकर आराम से, समझते है बस बेंच हूँ मै , हाँ! बेंच तो हूँ पर एक ऐसी बेंच जो महसूस कर सकती है , सुनती भी है सब कुछ और समझती भी ,याद भी रखती है जो भी अच्छा लगता है उसे ..
 याद है सब, की कैसे धीमे धीमे चलकर वो दोनों बुज़ुर्ग आकर बैठेते थे , जिंदगी का सफ़र लगभग पूरा होने वाला था उनका , कुछ चंद कदमो का फासला जो बचा था , एक दुसरे के साथ चलकर तय करना चाहते थे , हड्डियां सब सूख चुकी थी और झुर्रियों ने पूरे जिस्म पर नए नए नक़्शे बना लिए थे ,आँखों की रोशनी मद्धम थी और बाल एकदम सफेद. पूरे शारीर काले भूरे और लाल तिल जगह जगह पर , पर ज़िक्र जब अपनी औलादों का करते थे तो खोयी हुई शफक वापिस आ जाती थी कुछ पलों को ही सही पर आती थी ज़रूर , औलादे दोनों काबिल रही होंगी .. तभी तो वो दोनों अकेले रहते थे यहाँ पार्क के सामने वाले घर में , एक भी औलाद नाक़ाबिल होती तो रहती इनके पास खैर .. गर्मियों में सुबह तड के और जाड़ो  में धूप निकलने के बाद आकर बैठ जाते थे फिर धीरे धीरे हलके फुलके योग आसन करके, शुरू करते थे अपने पुराने दिनों की दिनों की यादे  , अंकल तो बस नौकरी के दिनों के अपनी जाबांजी के किस्सों  से खुद ही खुश हो जाया करते थे और आंटी अपने दोनों बेटो के बचपन में आज भी उलझी रहती थी और अब तो अपने बच्चों के बच्चो की नयी नयी कहानियाँ जिंदा रखती दोनों को, पर अपने बेटो का रवैय्या कभी कभी चोट भी पहुंचाता था ,बेटे बहुए जब दुखी करते थे दिल तोड़ते थे उनका तो आसू की बूंदों से मुझे भी भिगो देते थे . कभी कभी तो दोनों बस LIC की बातों में ही पूरा वक़्त बिता देते थे और कभी तो सिर्फ आने वाला जाड़ा कैसे काटना है ,गर्मिया कैसे बितानी है बिजली के बिल कैसे जमा होगा इस महीने का , दवाई किससे मगानी होंगी बस यही छोटे मोटे काम पड़ोसियों की मदद से चलते थे, पर आंटी उन दिनों कुछ बीमार रहने लगी थी उमर पूरे ७८ साल की थी , फिर रोज़ आ भी नहीं पाती थी , अंकल कुछ देर को आते थे पर फिर बड़ी जल्दी वापिस हो लेते थे ,कुछ दिनों बाद पता चला की आंटी उनका साथ छोडकर बहुत दूर चली गयी है और अंकल को उनका बड़ा बेटा अपने साथ मुंबई लेकर चला गया . मै भी तो दुखी थी वो सुबह का वक़्त नहीं कटता था उनके बगैर .. कभी सोचा नहीं था की ये दिन भी आएगा की आंटी अंकल जुदा हो जायेंगे एक दुसरे से और फिर कभी पार्क में  नहीं आयेंगे .
सुबह मै खाली ऊंघा करती थी क्युकी जो भी आता था टहल कर चला जाया करता था , मुझपर बैठने वाले कम ही आते थे , पर एक और शक्स था जो अक्सर आ जाया करता था,मगर वक़्त का बिलकुल पाबंद नहीं था वो  और हमेशा अकेले ही आता था , हाथ में एक किताब या कॉपी लेकर जाने कौन सी इल्म सीखा करता था , कभी  तो आँखें बंद करके ही बैठा रहता था और कभी सूरज की आँखों में आँखें डालकर घूरा करता था ,फिर अचानक कुछ लिख भी लेता था अकेले पन में बतियाता था , एक वोही था जो मेरे भी हाल खबर ले लेता है पता नहीं शायर है या सनकी या फिर दोनों , कभी तो पानी के छपाक जैसा ,कभी किसी आवारा सय्यारे जैसा , जिंदगी और मौत दोनों  को अपने कंधो पर बिठाये जाने शतरंज की कौन सी बाज़ी खेला करता था , पूरा पूरा दिन भी गुज़ार देता था बैठे बैठे मुझपर पर और कभी तो महीनो तक नहीं दिखता था, खाली बैठे कभी खुद के साथ अन्ताक्षरी और कभी कभी चाँद के साथ ,फिर तोहमत भी लगा देता था चाँद पर “ बिगड़ गया है तू किसकी सोहबत में रहता है आजकल  “ बहकी बहकी बातें करने वाला वो ख़ुदा का बंदा इधर बड़े दिनों से नहीं दिखा और अब पता नहीं उसे देख भी पाऊँगी या नहीं .
पर वो दोनों रोज़ आते थे , हर दिन, मगर अलग वक़्त पर , नए नए लिबासो में रोज़ नए तेवर दिखाते एक दुसरे को , दो में से कोई पहले आ जाये तो उसकी बेसब्री देखने लायक होती थी ,चोरी चुपके आने वाले दो प्रेमी और उनकी हलकी उमर का हल्का प्यार जिसमे आई लव यु की भरमार होती थी  , आँखों में आँख डाले एक दुसरे का हाथ थामे लड़ते झगड़ते पर प्यार की असली सुगंध से कोसो दूर , फूल पत्ती कार्ड और मेसेज पर टिकी  उनकी मोहब्बत जो मुझ पर नाखुनो से दिल खोदकर शुरू हुई थी चार पांच महीनो में ही दम तोड़ गयी और उस चुलबुली सी लड़की ने एक दिन रात में ९ बजे आकर काले रंग के मोटे पेन से उस दिल का  धड़कना बंद कर दिया जो बनाया था मुझ पर कभी , कम्बख्त खिलवाड़ करके चल दिए दोनों , इश्क उनका सज़ा मुझे दे दी .
पर वो छोटी सी बिटिया  “अंजली”  भूरी भूरी कंजी आँखों वाली, घुंगराले बाल बिखराए पूरे चेहरे पर ,एक हाथ से अपनी लटे संभालती , अपनी माँ के हाथों की सिली फ्रॉक पहने रोज़ आती थी  , खिलोनों से भरी एक डोलची हाथ में लेकर, स्कूल के तुरंत बाद आ जाती थी वो  , खाना पकाना घंटो तक खेलती थी , खाना पकाती ,खुद भी खाती और अपनी गिराई जूठन से मेरा पेट भी भर देती , विवाह संस्कार उसकी गुड़ियां का रोज़ मुझपर ही संपन्न होता , फिर फूल तोड़कर भटकटैया के पालथी मारकर बैठ जाती थी मुझपर, पीले रंग की उन पंखुड़ियों से अपनी माँ और नानी नाना के तमाम चेहरे बनाया करती थी ,पापा का चेहरा कभी देखा नहीं था ना , पापा उसके, उसे और उसकी माँ को छोडकर जाने कहाँ चले गए थे कुछ साल पहले ..
और शाम तो अब भी उसी की होती थी मेरी बेटी जैसी है वो ,जो पहले भारी भारी कदमो थकी थकी सी आती थी और अब अपने साथ एक छोटा बच्चा भी लाने लगी थी , वो दो महीने का नया मेहमान उसकी गोंद में रहता था और वो मेरी गोंद में .. चंदा मामा और सूरज चाचू की  सारी कहानियां सुनाती थी, फिर “मामा के यहाँ जायेंगे , मौसी से मिलकर आयेंगे , दूध बताशे खायेंगे” और वो दो महीने का बच्चा ज़ुबा तो नहीं जानता था पर अर्थ सब समझता था अपनी माँ की बातों का, पर शायद बड़ा होकर वो भी बाकियों की तरह सिर्फ भाषा और व्याकरण ही समझेगा जस्बात नहीं क्युकी  बड़े होकर लोग बहुत बड़े हो जाते है छोटी बातें समझते ही नहीं पर काश इसका बचपना हमेशा जिंदा रहे  .जितनी भी देर वो दोनों बैठते थे मुझपर ऐसा लगता था जैसे घर पर बच्चे आये हो , बड़ा होकर कैसा दिखेगा ये नन्हा सा बच्चा हमेशा सोचती रहती थी .   
शाम में इन दोनों के सिवा और भी लोग आते थे , कुछ टहलने के लिए और छोटे बच्चे खेलने के लिए , पूरे पार्क में दौड़ लगाते कभी पकड़म पकड़ाई तो कभी छुपन छुपाई, छुपते थे कभी पेड़ो के पीछे तो कभी मेरे नीचे , कुछ अलबेले बच्चे सिर्फ चिलबिल बिनने आते थे , मोहल्ले के बीचोबीच बने इस पार्क में कुछ महिलाये अक्सर स्वेटर बुनती भी दिखती थी  ,कुछ बेदर्द लोग मुझे सिर्फ मूंगफली खाने की जगह समझते है और छिलके गिराकर चल पड़ते थे , मै तो छह कर भी साफ़ नहीं कर सकती थी खुद को .. मगर सात आठ बजे तक थोडा सन्नाटा हो जाता था , सब अपने अपने घर चले जाते थे और मै अकेली उसकी राह देखा करती थी, जो आता था देर रात से , रिक्शा बांधकर अपना पार्क की ग्रिल से , गुनगुनाता , बीडी फूकता और गमों को धुए में उडाता , हाथ में चादर लिए आकर चित हो जाता था मुझपर, मै बड़े प्यार से लोरी गाकर रात भर उसे सुलाती थी अपने पास , फिर सुबह तड़कर  निकल जाता था रोज़ी रोटी के चक्कर में .
उन सब के साथ साथ जिंदगी कब कट गयी पता ही नहीं चला , छोटे बच्चे बड़े हो गए और बड़े वाले बूढ़े हो गए और कुछ जिंदगी की गिरह खोलकर उड़ गए आकाश में , मेरे जहन में आया ही  नहीं, की मै भी अमर नहीं हूँ , खुद को अजर अमर मान बैठी थी , समझती थी लोग तो आते जाते है पर मै तो हमेशा यहीं रहूंगी इन सब के पास हमेशा इनका ख्याल रखूंगी ,क्युकी मै इंसान नहीं .. मै तो बेंच हूँ मै कैसे मर सकती हूँ ,पर मुझे क्या पता था की बचता यहाँ कुछ भी नहीं , इंसान हो की सामान ,ये तो जिंदगी है जो फ़रक करती है मौत तो सबको हमवार रखती है पानी की सतह की तरह, एक सी बरसती है सब पर .
आज अचानक सुलझा ले गयी हूँ “जिंदगी मौत” की पहेली को , मन बेचैन तो है पर एक चैन भी है, दुःख तो है सबसे बिछड़ने का, पर ख़ुशी भी इस बात कि , की आज मुकम्मल हो जाउंगी , अब दुबारा यहाँ नहीं आउंगी  , आज पार्क से सभी पुरानी बेन्चे हटाई जा रही है  , हमारी जगह नयी बेन्चे ले लेंगी  . मुझे मेरी जगह से उखाड कर निकाल  दिया गया है और मै पार्क के एक किनारे टूटी फूटी हालत में पड़ी हूँ ,कल तक किसी गरीब के घर का इंधन बन जाउंगी और फिर धुंआ बनकर बहुत ऊपर आसमान में ....            


                                                         श्रुति 

Wednesday 27 November 2013

तुम हो ...

तुम हो ...
मै जानती हूँ
मेरे आस पास हो, ये भी खबर है
दिख जाते हो ना , यहाँ वहाँ कभी कभी
मिलने वाले होते हो जब भी कहीं
पहले से पहचान लेती हूँ तुम्हे
सब कहीं हो , सब जगह
जानती हूँ मै अच्छे से
जब कोई पास नहीं होता ,
तब तुम हमेशा होते हो
भीड़ में भी तो आओ ना कभी

लोग मुझे पागल समझते है..

कांच का घर

कांच का घर है मेरा
रहती हूँ जिसमे
दीवारे सारी कांच की है
छत भी
और फर्श भी कांच की है
संभल संभल के कदम रखती हूँ
एक डर रहता है हमेशा
हाथ से कहीं चाभी का गुच्छा न गिर जाए
गिर न जाए कहीं अलमारी में रखी चीज़े , जल्दी में
भारी भरकम जूते पहनकर
 कोई तेज़ क़दमों से चलकर
न आ जाये मेरी तरफ
चिटका दे मेरे घर को
ख्वाबो में बसर करना
सबके बस की बात थोड़े ही है


                          shruti 

Sunday 24 November 2013

चुप्पी


This poem is for the hero of my novella , who speaks less and an introvert , while writing story , it was done ..



किस मिटटी के बने हो
गुस्सा आने पर भी चुप  
गुस्सा जाने पर भी चुप
ये चुप्पी कभी टूटती ही नहीं
दम नहीं घुटता तुम्हारा
और ये कैसा प्यार करते हो तुम
जो कभी कुछ बोलता ही नहीं
कुछ मांगता भी नहीं
देता भी है तो चुपचाप
कितने राज़ दफ़न कर के रखे है ?
बताओगे नहीं कुछ  क्या?
चुप रहना और सहना ,आदत है तुम्हारी
या बस आदत है तुम्हारी
तुमको जिंदा करते करते
ज़िन्दगी जी उठी है
यु क्यों लगता है ,कभी किसी रोज़
पीछे से आवाज़ दोगे ,कहोगे फिर
पूछिए अब ,क्या पूछना चाहती है ?


Thursday 7 November 2013

यकीन

यकीन नहीं हम पर
तो मत करो यकीन हम पर
हमे भी कहाँ है खुद पर
गर यकीन पे यकीन होता हमे
तो तुम्हे हम पर होता यकीन
हमे खुद पर होता
हाँ हमे नहीं है यकीं पर यकीन
और तुम हम पर नहीं करते यकीन
तो क्यों खफ़ा हो हम

हमे भी तुम पर है कहाँ यकीन .. 

Wednesday 6 November 2013

मेरा घर था जहां ....

दवाई जैसी महक अब भी है यहाँ  
नहीं कुछ ..तो यूकेलिप्टस के वो पेड़
लोहे के उचें घुमावदार गेट पर
एक डेढ़ मीटर की परछाइयां
झूला करती थी दिन रात कभी
धुंदला धुंदला सा है सब कुछ  
पर गरारी की आवाज़...अब भी है यहाँ
कांच की चूड़ियों के टुकडो से
बनाये थे जो पुल कभी ,बह गए सब
 पाँव  छिल जाएगा मगर  ,
गर पाँव पड़ जाए यहाँ ...
लकड़ी के वो ढेर, हाँ इसी किनारे पर
हरारत हरारत सी लगती है इसे
शायद , होली जलती थी यहाँ ...
पूरी दोपहर बगीचे में ,
गुडिया की शादी ,खाना पकाना
बर्तनों का तो पता नहीं ,
पर जूठन...अब भी है यहाँ
 सकरी सी उस पुलियां में
चलती थी मज़लिस कहानिओं की
कहानी तो सब ख़तम हो गयी
 ठप्पे उन कहानियों के
चिपके है अब भी वहाँ
 सब कुछ तो वैसा वैसा है
जैसा जो कुछ  छोड़ा था
बस बदल गयी है नेम प्लेट

मेरा घर था जहां ....

Wednesday 30 October 2013

तुम्हारा नाम क्या है?





गुस्सा आने पर क्या करते हो
और जाने के बाद क्या ?,दोनों बताना
सुबह को लेने का वक़्त ,रात को छोड़ने का
जिमखाने की टाइमिंग्स, रोज़ी रोटी, तालीम तुम्हारी 
हंसी की नाप इंचो में बता देना
आसुओं की बालिस्तो में
मौके ,बेमौके रोना भी पड़ेगा तुम्हे
अखबार कौन सा पढ़ते हो?
काफी सिगरेट शर्ट की ब्राण्ड
घड़ीसाज़ ,दर्जी और दोस्तों के नाम
पन्नो के दाए कोनो पर जो लिखापढ़ी
करते हो ,तुम्हारी अपनी होती है
या इधर उधर से, तो शायर का नाम भी ?
पसंददीदा रंग गाने गाड़ी फिल्मे बाते ,सब सब
और ये फिलोसफी का क्या चक्कर है ?
दिल की कोई पुरानी चोट वोट हो तो वोह भी
और इश्क किस किस्म का करते हो ये भी
देखो चुप चुप मत रहो
ज़वाब भेज दो सारे ,बाँध कर हवाओं में
मिल जाए बस वक़्त पर हमे
तो क़िरदार में जान भी आ जाएगी
और कहानी चल रही है जो महीनो से
पूरी हो जायेगी ....
तुम्हारा नाम क्या है?
                                                   श्रुति