......... अगर कोई मुझसे
कहे कि ,
"अपनी आँखें बंद करो और सोचो की जीवन के वो कौन से ऐसे पल रहे है जब तुम सबसे ख़ुश और ताज़ा थे ? एकदम लाइट महसूस कर रहे थे ?
जो ख़याल सबसे पहले मन में आये वही बोलना
"अपनी आँखें बंद करो और सोचो की जीवन के वो कौन से ऐसे पल रहे है जब तुम सबसे ख़ुश और ताज़ा थे ? एकदम लाइट महसूस कर रहे थे ?
जो ख़याल सबसे पहले मन में आये वही बोलना
और सुनो, ज्यादा मत सोचना"
तो मैं जवाब में कहूँगा .....
जोधपुर हाईवे पर बस दौड़ती जा रही थी
| मैं जेसलमेर जा रहा था | चाय पीने के लिए आधी रात को बस से उतरा और ढ़ाबे में पड़ी खटिया में लेटकर चाय का इंतज़ार करने लगा , नज़र जब आसमान पर पड़ी
तो देखा सैकड़ो सितारें टिमटिमा रहे है | इतने सारे तारे होते है ? और ये इतना तेज़ चमकते है , अपने शहर में तो नहीं देखा !!
इतना साफ़ और नीला आकाश ? पहले तो कभी नहीं देखा और उसके बाद भी कभी नहीं देखा | तारे इतने सारे होते , पता ही नहीं था , सितारों के पास आसमां में मैं सितारा ही बन गया और “सितारों के आगे जहाँ और भी है” ..ऊपर और ऊपर मैं उड़ता रहा | यह तस्वीर मेरी मेमोरी में आज भी क़ैद है | वो शायद एक ऐसा ही पल था :)
इतना साफ़ और नीला आकाश ? पहले तो कभी नहीं देखा और उसके बाद भी कभी नहीं देखा | तारे इतने सारे होते , पता ही नहीं था , सितारों के पास आसमां में मैं सितारा ही बन गया और “सितारों के आगे जहाँ और भी है” ..ऊपर और ऊपर मैं उड़ता रहा | यह तस्वीर मेरी मेमोरी में आज भी क़ैद है | वो शायद एक ऐसा ही पल था :)
आकाश देखना मुझे अच्छा लगता है | चाँद तारे देखने से मेरी
यात्रा कॉस्मिक हो जाती है और कुछ याद हो न हो पर उस जगह का आसमान कैसा था यह मुझे
याद भी रहता है J
और एक परफेक्ट मोमेंट जब कश्मीर की डल लेक पर अपनी हाउस बोट
में बैठे बैठे पैरो को झील में डाल दिया था और देर रात तक रात के सन्नाटे को
सुनाता रहा और गुनगुनाता रहा “कितनी ख़ूबसूरत ये तस्वीर है , मौसम बेमिसाल बेनज़ीर
है .. कश्मीर है यह कश्मीर है ....और यहाँ पर आना मेरी तकदीर है | कितनी शांत थी
वो रात कितनी शांत थी वो झील !
लद्दाख के बर्फ़ीले पहाड़ो ने ह्रदय पर ऐसी छाप छोड़ी कि ” छाप
तिलक सब छीनी मोसे नैना मिलाइके”
मैं तो सब भूल ही बैठा | वहां जाकर लगा अब यहाँ से कभी वापिस नहीं जाऊँगा ...! समाधिस्त हो जाने को दिल किया | ऋषि बन जाने को , मर ही जाने को | आँखें बात बात पर अनायास ही नम हो जाती थी पूरा दिन भीगी रहती रहती थी | वापसी के वक़्त विमान में भी मैं रोता ही आया था इस भावना से कि इन आँखों ने जो देख लिया उसका शुक्रिया अदा अब कैसे करूँ ? कैसे करूँ ?
मैं तो सब भूल ही बैठा | वहां जाकर लगा अब यहाँ से कभी वापिस नहीं जाऊँगा ...! समाधिस्त हो जाने को दिल किया | ऋषि बन जाने को , मर ही जाने को | आँखें बात बात पर अनायास ही नम हो जाती थी पूरा दिन भीगी रहती रहती थी | वापसी के वक़्त विमान में भी मैं रोता ही आया था इस भावना से कि इन आँखों ने जो देख लिया उसका शुक्रिया अदा अब कैसे करूँ ? कैसे करूँ ?
अब तक जो भी सत्य शिव और सुन्दर हुआ हमेशा सफ़र में ही हुआ |
घुमक्कड़ी मेरा स्थायी भाव है जो उद्दीपक
मिलते ही मचल उठता है | ज़रूरी नहीं कि दूर
ही किसी गाँव देश में जाकर यह घटित हो,
ह्रदय में रहने वाला यह भाव मन में काव्य लिए सुबह का सूर्योदय देखकर भी उतना ही मचल सकता
जितना घर से ऑफिस जाते वक़्त रास्ते में पड़ने पर पलाश और गुलमोहर के पेड़ देखकर |
ऐसे में अगर नयी जगह चले जाये तो मेरा क्या होगा ?
और अब .... फिर से जब घूमने की योजना बन रही है तो दिन रात मेरा दिल -दिमाग़ बस वहीँ लगा है ........
कई दिनों से कान में वही आवाज़े घूम घूम कर पड़ रही है ,
भूटान! भूटान! भूटान! फ़ोन पर भूटान
पड़ोसियों से भूटान , मैं भी दिन रात वहीँ की तैयारी में लगा
कि कब यहाँ की गर्मी से निजात मिले और कब पहाड़ो की ठंडी ठंडी हवा मेरे बदन को छुए ...और मैं गाऊं सीली हवा छू गयी सीला बदन छिल गया ....
पहाड़ो से बढ़कर इस जहाँ में कहीं कुछ नहीं और वहां जाने के लिए मानसिक रूप से एकदम तैयार अब | फुल्ली चार्ज्ड हूँ मैं!
पहाड़ो से बढ़कर इस जहाँ में कहीं कुछ नहीं और वहां जाने के लिए मानसिक रूप से एकदम तैयार अब | फुल्ली चार्ज्ड हूँ मैं!
चार औरतें - पर ये क्या ? इन चार औरतों ने तो मिलकर अचानक ही कुछ ही मिनटों में मेरी नज़रों के सामने सारा मंज़र ही बदल दिया |
भूटान से अंडमान ???यह अंडमान कहाँ से आ गया बीच में
इतनी गर्मी में कोई अंडमान जाता है ?
कमाल की मुसाफ़िर होती है ये औरतें | तैयारी कहीं की करती है चल कहीं और ही
देती है |मेरे सपनों का गला घोट दिया इन चारों ने | मैं इन चारों को कभी माफ़ नहीं करूँगा
हाँ! वो चार ही है ,एक मौसी! एक माँ! इस माँ की दो बेटियाँ |
एक छोटी!
एक बड़ी!
मौसी माँ और बड़ी |
छोटी |
दिल में तो आया कि जाने से ही इंकार कर दूँ लेकिन ....लेकिन ...लेकिन रबीन्द्र
नाथ टैगोर की वो कविता याद आ गयी ...
“ तेरी आवाज़ पे कोई न आये तो फिर अकेला चल रे!
सो चल दिया और यह बोध भी कविता के साथ ही उतरा है कि अवरोध बने बगैर जीवन
की सहज गति को सहजता से स्वीरकना | चलो वो भी स्वीकार!
बस चलते रहना सब कुछ let go करते रहना |
मन को समझा बुझा कर , उनके आनन फ़ानन में लिए उनके इस फ़ैसले को मैंने भी आत्मसात करने की कोशिश की और अंततः कर भी लिया |
अब वे चार ही क्यों मैं भी उनकी तरह अंडमान निकोबार द्वीपों के सपने देखने लगा |
और देर से ही सही पर एक बात भी समझ गया , जैसे इश्क़ की कोई उम्र नहीं होती घुमक्कड़ी का भी कोई मौसम नहीं होता |
और देर से ही सही पर एक बात भी समझ गया , जैसे इश्क़ की कोई उम्र नहीं होती घुमक्कड़ी का भी कोई मौसम नहीं होता |
तो हम चले तेज़ धूप और चलती लू से तपती गर्मी और बढ़ती उमस की
ओर .... तारीखे जो तय हुई सफ़र की वो है 22 से 28 मई ,सन 2018 |
सो अब जो भी होगा इसी के बीच होगा |
मिष्ठी दही - लखनऊ से पहले हम कलकत्ता जा रहे है
फिर कलकत्ता से पोर्टब्लेयर! विमान अभी कलकत्ता बस पहुँचा भर है कि माँ को अचानक
मिष्ठी दही की याद न जाने कहाँ से आ गयी | दही का तो भूत ही सवार हो गया उस पर |
वक़्त सच में नाज़ुक है , माँ को समझ क्यों नहीं आ रहा ?
एक तो पहले ही देर रात से पहुँचे ऊपर
से अब घनघोर ट्रैफिक जैम को पार करते किसी तरह बस सरकते हुए हम अपने होटल की तरफ
अग्रसर है | कल सुबह चार बजे उठकर अगली उड़ान भी भरने का मानसिक दबाव भी है |
“सरकती जाये रुख से नक़ाब अहिस्ता आहिस्ता जैसे” चल रहे है ....होटल अब भी दूर है | कुछ करीब है तो बस दही वो भी केवल माँ के ह्रदय
के | माँ ने इधर उधर देखा फिर बिना डरे अपने दिल की बात सबके आगे पेश कर दी
माँ - कहीं दो मिनट रुक कर दही ले ले ? अब कलकत्ता आकर भी मिष्ठी दही नहीं
खाया तो वाया कलकत्ता का क्या मतलब | वो हसी भी कहकर पर बाक़ी तीन नहीं हसे और
मौसी – तो वाया कलकत्ता तुम दही के लिए आयी थी ?
छोटी –नहीं मम्मी ?
बड़ी – नो रिस्पांस
खैर! दही तो रास्ते में मिला नहीं पर कुछ देर में होटल ज़रूर आ गया | होटल से
सटा एक रेस्टोरेंट (भोजोहारी रँगना) भी जिसके बारे में अब तक किसी को पता नहीं था ,
यहाँ तक कि माँ को भी नहीं कि वहाँ मिष्ठी दही भी मिलता है |
सबने मज़े लेकर खाया और अब
मौसी – वर्थ था |
बड़ी – पर मन नहीं भरा अभी और ले आती मम्मी
छोटी – अपना खा के मेरी तरफ़ मत देखो तुम लोग
माँ – मन ही मन मुस्कुराती मन मैं ही बोली , देखा!
एक तस्वीर तक तो ली
नहीं दही खाते हुए | क्या वर्थ था ? सब बेकार है |
निरर्थक महसूस करता रहा ... मैं बैग में पड़ा सड़ता रहा |
मौसी ने सुबह टैक्सी बुक की और कुछ देर में देब (हमारा टैक्सी ड्राईवर) गाड़ी
लेकर हमारे सामने खड़ा था | सबको परफेक्ट ग्रीट करने के बाद हमारी फ़रमाइश पर बिधान मार्केट में कड़ी चाय पिलाई और एयरपोर्ट
छोड़ दिया | पर इन चन्द मिनटों के सफ़र में
ही कलकत्ता से ख़ूब रूबरू कराया | कितना पता था उसे अपने शहर के बारें में!
देब को लेकर भी सबकी अपनी अपनी राय |
मौसी –इसे कहते है परफेक्ट टूरिस्ट गाइड
माँ –कितनी बढ़िया चाय पिलायी मज़ा आ गया|
छोटी – मम्मी ये हिंदी बोल रहे थें या बंगाली ?
बड़ी – यहाँ के लोग बंगाली कितना बोलते है |
अंडमान निकोबार द्वीप समूहों का सबसे बड़ा शहर होने के बावजूद भी पोर्ट ब्लेयर कितना
पीस फुल और साफ़ सुथरा है | पोर्ट ब्लेयर (पोर्ट यानि बंदरगाह और ब्लेयर
यानी पहला ब्रिटिश लेफ्टिनेंट आर्चिबाल्ड ब्लयेर , जो १८७७ में इन द्वीपों का
सर्वेषण करने पहुंचा था| बहुत कुछ किया उसने यहाँ इसलिए इस पोर्ट को पोर्ट ब्लेयर
कहा गया )
पोर्ट ब्लेयर अंडमान की राजधानी भी है और अंडमान भारत का एक केंद्र शासित
प्रदेश , जो बंगाल की खाड़ी के दक्षिण में हिन्द महासागर में स्थित है | ये द्वीप
समूह लगभग 572 द्वीपों से मिलकर बना है , जिनमें से कुछ ही द्वीपों पर लोग रहते है
और कुछ द्वीपों में कोई नहीं रहता , मेरा वहीँ जाने का मन है, जहाँ कोई नहीं रहता
, पर जाना होगा हेवलॉक जहाँ सबसे ज़्यादा भीड़ होती है , कल हेवलॉक जायेंगे |
पर फ़िलहाल सेल्युलर जेल
पर फ़िलहाल सेल्युलर जेल
सेल्यूलर जेल (कालापानी) .... और गाइड बोलता जा रहा
था ” इस जेल में प्रवेश करते ही आपको एक विशालता का अनुभव हुआ होगा| यह जेल सात
कतारों में खड़ा है और सातों कतारें एक टावर से जुडी है जैसे स्टार मछली या साइकिल
का चक्का | यहाँ 693 कोठरियां है और हर कोठरी सात फिट चौड़ी और दस फिट ऊंची है | हर
कोठरी में लोहे का गेट है जिसे कोई कैदी कभी खोल नहीं सका | इस जेल का निर्माण सन
1896 से 1906 के बीच हुआ | यहाँ की एक एक ईंट में क्रांतिकारियों का खून पसीना
छिपा है |
उधर देखिये गाइड ने कहा और सब उधर देखने लगे कोई टोपी ठीक कर रहा तो कोई पसीना पोछता रहा ,पर छोटी सिर्फ़ रो रही है |
मैं बड़ी के बैकपैक में हूँ उसी को देख रहा हूँ , अच्छी लग रही है! लूज़ पैन्ट्स और
शर्ट में , पर दिन भर छोटी के चलते डांट खाती है | छोटी है तो प्यारी, मगर रोती बहुत है | पर एक बात मानना पड़ेगी बड़ी
को डांट पड़ते ही वो तुरंत चुप हो जाती है | बस उसी को डांट पड़े इसके लिए ही रोती
है क्या ?
उमस और गर्मी से सबका बुला हाल पर भी गाइड की बातें रोचक लग रही थी |
“आप देख सकते फांसी घर , सजा का स्टैंड और यह तेलमिल , ये आज भी उसी हालत में
है जैसे अंग्रेजो के समय थे | हर कैदी को
तीस पौंड नारियल का तेल निकलना होता था इन तेल मिलों से , जो भी ऐसा न कर पाए उसे चाबुक मार मार उसकी
चमड़ी उधेड़ देते थे और ज़्यादातर कैदी ऐसा नहीं कर पाते थे क्यूंकि तीस पौंड तेल
तो कोल्हू का बैल भी न निकाल पाए | थक कर अगर कोई कैदी भूल से भी एक पल को बैठ
जाये और उसे और चाबुक खाने पड़ते थे , जब तक उसका बदन खून से लथपथ न हो जाये | यूँ
ही क्रूरता और हिंसा सहते सहते कुछ ही दिनों में वो बीमार हो जाते थे |
फांसी घर |
ऐसे तेल निकलते थे |
कैदियों के बीमार होने पर उनकी जाँच
नहीं होती थी बल्कि उन्हें खुंखार जेलर “मिस्टर बैरी” के सामने हाज़िर होना पड़ता था
| अंग्रेजो के ज़माने के जेलर मिस्टर बैरी की क्रूरता से तो इस जेल की दीवारें भी
काँप जाती थी | वो इन कैदियों को इस सडती उमस में भी जूट के कपड़े पहनने को बाध्य
करते थे | दिन भर ज़ुल्म सहने के बाद रात में उन्हें कोठरी में बंद कर दिया जाता
था और पेशाब और टट्टी आने पर वहीँ रखे मिट्टी
के बर्तन से काम चलाना पड़ता था | दुर्गन्ध के सिवाय कुछ नहीं था इन कोठरियों में |
ऐसे ही नहीं इसे कालापानी कहा जाता है दोस्तों!
हिंदुस्तान में जब आज़ादी पाने की चाहत आग बनकर फ़ैल रही थी | स्वतंत्रता
संग्राम में जब घर घर से आकर नवयुवक भाग ले रहे थे ,तब तमाम क्रन्तिकारी रोज़ाना पकड़े
जाते थे और उन्हें कालापानी की सज़ा सुनायी जाती थी | वे सभी पकड़कर इसी जेल में
लाये जाते थे | कितने ज्ञात अज्ञात क्रांतिकारियों ने कष्टप्रद यातनाओ के साथ
अंतिम सांस यही पर ली | कालापानी यानी मृत्युजल! मृत्यु का स्थान! कालापानी यानि
स्वतंत्रता सेनानियों को उन अनकही तकलीफ़ों का सामना करने के लिए जीवित नरक में
भेजना जो मौत की सज़ा से भी बदतर हो |
उधर सामने, जेल के गेट के पास, वीर सावरकर पार्क है | गाइड ने इशारा करते हुए
बताया
वीर सावरकर कौन है ? बीच में किसी टूरिस्ट ने पूछा |
पहले पूरी बात तो सुन लीजिये फिर सवाल कीजियेगा , गाइड ने खीजकर कहा |
हाँ तो मैं बता रहा था कि, जहाँ वीर सावरकर का पुतला लगा है , वहां उनके साथ
वो छ लोगों के भी पुतले है , जिन्होंने अमानुषिक यातनाओं को झेलते हुए प्राण त्याग
दिए |
१- इंदु भूषण रे
२- बाबा बहन सिंह
३- मोहित मोइत्रा
४- रामरक्षा
५- महावर सिंह
६- मोहन किशोर
इसीलिए इसे क्रांतिकारियों की शहीद
स्मारक कहा जाता है | अतीत का भयानक कालापानी आज एक तीर्थ स्थल है | 11 फरवरी 1979
को इस जेल को राष्ट्रीय स्मारक के रूप में राष्ट्र को समर्पित कर दिया गया है |
अब पूछिए क्या पूछना है | माथे से पसीना पोछते हुए गाइड ने कहा
वीर सावरकर कौन है ?
“वो किनारे वाली कोठरी देख रहे जो
आप जिसमे बाहर की तरफ एक और गेट है , जहाँ दोहरी ग्रिल है | चलिए ऊपर चलकर ही दिखाते है आप लोगों को , सभी
लोग गाइड के पीछे चल दिए यही उस महान क्रांतिवीर की कोठरी है जहाँ उन्होंने जीवन
के दस वर्ष काटे जब देश आज़ाद तभी इन्हें आज़ादी मिली | वो यहाँ के पहले बड़े
राजनितिक कैदी थें पर वीर सावरकर को मालूम ही न चला उनके भाई भी इसी जेल में दो साल
से कैद है |
वीर सावरकर की कोठरी में मौसी और माँ |
इस जेल में उनके गले में जो लोहे
का बिल्ला लगा हुआ था , उस पर 50 साल की सज़ा लिखी जी थी | मिस्टर बैरी ने एक बार
उनका बिल्ला देखकर उन्हें चिढ़ाते हुए कहा “ सावरकर तुम्हे पचास साल की सज़ा हुई है
| क्या तू आज़ादी देखने के लिए जिंदा रहेगा
?
इस पर सावरकर ने कहा “ क्या तुम्हे
लगता है कि तुम्हारी सरकार पचास साल तक हमारे देश में रहेगी “ इतने आत्म विश्वास
से भरे थे वो और इसी विश्वास को तोड़ने के लिए इन्हें जानबूझकर फांसी घर के सामने
वाली कोठरी में रखा गया |
कालेपानी के कठोर दंड के दौरान
भीषण यातना सहते हुए भी कोई ११ हज़ार पंक्तियों की रचना को पूरा किया | कवि, लेखक,समाज
सुधारक जो कहें सब कम है | विनायक दामोदर सावरकर आज़ादी संग्राम के यज्ञ में
भागलेने वाले देशभक्तों के मुकुटमणि है | उन्ही के नाम पर यहाँ के एअरपोर्ट का नाम वीर सावरकर इंटरनेशनल एअरपोर्ट
है ....
एयर पोर्ट में लगी वीर सावरकर की प्रतिमा को सलामी देती माँ |
आईये आप सब को अब आख़िरी पॉइंट पर
ले चलते है ...लकड़ी की सीढ़िया चढकर गाइड ने सबको एक टावर पर ले जाकर रोक दिया ,
जिस जिस के पास बीस रूपए के नोट हो निकाल लीजिये और गौर से देखिए , इस नोट के एक
तरफ गाँधी जी है और दूसरी ओर पाम ट्री से भरा एक ख़ूबसूरत आइलैंड बना है| नज़र उठाकर
अब ज़रा सामने देखिये | अच्छे से मिलान करियेगा |
जी यहाँ! यह नार्थ बे आइलैंड है ...
जी यहाँ! यह नार्थ बे आइलैंड है ...
और गाइड बोलता रहा
बड़ी तस्वीरे लेती रही ,
छोटी गर्मी से बेहाल रोती रही
क्रांति , क़ुर्बानी, देशप्रेम ,आज़ादी बलिदान आखों में आँसू और मन में आदर इसके सिवा किसी के मन में कुछ और नहीं है ...नहीं नहीं ...कुछ और नहीं
रात में खाना खाकर भी चारो बैठे यही
बातें करते रहे |
मौसी – आज इस जेल को देखकर जो महसूस किया , पहले कभी नहीं किया | मैं तो देशभक्त
हो गई यार!
माँ – हमारे देश को बाप की जागीर समझ रखा था | कितने क्रूर थे अंग्रेज़ |
बड़ी – मेरे सारे रोये खड़े हो गए थे वहाँ
छोटी – अब मत चलना , वहाँ बहुत गर्मी है मम्मी |
माँ – अब तुम सो जाओ थक गयी हो कल सुबह फेरी पर बैठेंगे | कुछ ही देर में
चारों मोहतरमा थककर चूर होकर धुत्त सो रही है और मैं चार्ज हो रहा हूँ कल की हैवी
ड्यूटी देने के लिए | पर डरता हर रोज़ हूँ कहीं बड़ी मुझे चार्ज करना ही न भूल जाये
तो मेरा क्या होगा?| जाने कहाँ गुम रहती है यह लडकी! पर फेरी सुनकर मैं भी ख़ुशी से
उछल गया | क्यूंकि पहली बार बैठूँगा फेरी में |
मैक्रूज़ (फेरी) – कदम रखते ही ....
मौसी - अ फ्लाइट ऑन वाटर
बड़ी – जस्ट वाओ
छोटी – ये तो एकदम एयरोप्लेन जैसा है
माँ- अब यहाँ पर आराम से बैठकर बेल खायेंगे
इस जहाज पर बैठकर हम लोग पोर्ट ब्लेयर से हेवलॉक जा रहे है | समुन्दर का यह सफ़र
मेरे लिए नया अनुभव होगा | इसके पहले तक नावों या छोटे वाले स्टीमेर्स पर ही बैठा
हूँ जिसपर एक बार में चालीस पचास लोग बैठ सकते है | पिछले साल बनारस में जब हम घाट
दर्शन के लिए गए थे , तब भी हम एक बहुत
बड़ी नाव पर बैठे थे | पर इस जहाज में तीन
सौ लोग एक साथ! मैं तो सोच भी नहीं सकता | कितना विराट है यहाँ सबकुछ | बिना फेरी
के अगर अंडमान घूमकर वापिस चल जाते तो मुझे मज़ा नहीं आता |
इस जहाज की हर एक कुर्सी जैसे सिंघासन हो अकबर का , चौड़ी और आरामदायक | मेरी
“चारों” तो तबसे सिर्फ़ टाइटैनिक की बातें कर रही है | इनको किसी भी नांव में बिठा
दो ,तुरंत टाईटैनिक की बातें करने लगती है | कितनी इंटरनेशनल फ़ीलिंग आ रही है यहाँ
और थोड़ी ही देर में जहाज के सारे यात्री कैसे घुल मिल गए है | कोई विशाखापट्नम से आया
है | कोई फ्रांस से | पर सबसे ज़्यादा बंगाली है , लखनऊ से शायद हम पांच ही होंगे |
कोई किसी को क्रैकजैक बिस्किट दे रहा है तो कोई बदले में ऑर्बिट च्विंगम ले रहा है
| सच में घुम्मक्कड़ी से वृहद् कोई धरम नहीं |
फेरी पर मौसी बड़ी और छोटी |
जहाज के कर्मचारी भी मुसाफिरों से बात करते करते उनके इतने पक्के मित्र बन रहे
है कि वे उन्हें जहाज के अपने बिरले अनुभव
बता रहे है |
“ एक बार समुन्दर में जोर का तूफ़ान उठा था |वैसे तो जहाज बहुत मज़बूत ढांचे के
बने होते है पर उस दिन समुद्री तूफ़ान ने सबकी
ऐसी तैसी कर दी , अपनी भयानक लहरों से
करोड़ो टन वज़नी पानी के जहाज को खिलोने की तरह उछालने लगा और जहाज दस फिट से भी
ज़्यादा ऊपर उछल गया | कैप्टन की सूझ बूझ से
हम आगे चलते रहे | मुझे अब भी याद है सारे यात्री बहुत डर गए थें | सी सिकनेस से
ज़्यादातर ने जहाज में उल्टियाँ करना शुरू कर दिया | हम उन्हें समझाते रहे कि चिंता
की बात नहीं | ऐसा होता है और मुसीबत के इस
समय तट रक्षक बलों को तुरंत सूचित कर दिया गया है और नैविगेशन की मदद से हम रास्ता
बदल रहे है | पर वो दिन हमारी पूरी टीम को कभी नहीं भूलता | हम मौसम देखकर ही चलते
है | अपने यात्रियों को सुरक्षित पहुँचाना हमारा फ़र्ज़ है | पर ऐसा बहुत कम होता है
| जैसे आज आप यहाँ देख रहे है वैसा ही रोज़ होता है | लोग गाते बजाते ही पहुँच जाते
है |” कर्मचारी की बात सुनकर
छोटी – समुद्र में तूफ़ान भी आते है | आज तो नहीं आएगा न अंकल
बड़ी – कुछ सुना ही नहीं ,कान में इयर फ़ोन लगा है
मौसी – हर पल यहाँ जी भर जियो , जो है समा कल हो न हो
माँ- समुन्दर में तूफ़ान कैसा , किसी
सीपी की आह निकली होगी
जहाज जैसे जैसे आगे बढ़ रहा था द्वीपों के पास से गुज़रने लगता है , लोगों की
ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता | सारे एक साथ
जोर से चिल्लाते रहे हूऊऊऊऊ..... द्वीप बहुत ही सुन्दर हरे भरे और लुभावने लग रहे
है |
जहाज के चारो तरफ कांच की मज़बूत खिड़कियों से पार कुछ दिख रहा है तो बस समुन्दर
| मचलता ,पिघलता ,अथाह ,असीम, निसीम समुन्दर
.......
जहाज की खिडकियों के पार दिखते लुभावने द्वीप |
कितने खुश है! सब इस साफ़ सुथरा ख़ुशबूदार जहाज में और जो साइड सीट्स पर बैठे है
उन्ही का तो असली जलवा है , सारा सागर उन्ही का तो है | यहाँ तो छोटी का ही जलवा
रहा | प्रारंभ से अंत तक! भले ही साइड सीट पर बैठकर मोबाइल में गेम खेले पर बैठेगी
तो वही | नहीं तो फिर वही ....रोती बहुत है |
कैफे भी है यहाँ और अब वो खुल भी गया है |
कैफ़े के खुलते ही कितने सारे लोग यहाँ आकर अपनी मनपसंद चीज़े खरीदने में लगे
है |
देखो! कितनी भीड़ है | माँ और मौसी भी खड़ी है , और स्ट्रांग , और स्ट्रांग करती दोनों अपने लिए स्ट्रांग कॉफ़ी बनवा रही है |
देखो! कितनी भीड़ है | माँ और मौसी भी खड़ी है , और स्ट्रांग , और स्ट्रांग करती दोनों अपने लिए स्ट्रांग कॉफ़ी बनवा रही है |
पर अब कॉफ़ी पीकर माँ वहां खड़ी क्या कर रही है और इनके हाथ में क्या है? कहीं बेल
तो नहीं ! फिर वही सब होगा | बेल कांड! अब इतना पसंद है तो घर में खाओ | कभी हवाई
जहाज में कभी पानी के जहाज में | ऐसे कोई बेल खाता है भला ? जहाँ तोड़ने के लिए भी जगह
नहीं मिलती उन्ही जगहों पर ये बेल क्यों खाती हो माँ तुम ?
अब तीन चार लोगों से बड़ी नम्रता से पूंछेंगी “ क्या आप ये फ़ल तोड़ सकते है , ये
थोड़ा हार्ड होता है , पर उनमें से ज़्यदातर इंकार कर देंगे | पर ये हार नहीं
मानेंगी कोई औजार कोई तरकीब कि बस टूट जाये | किसी से बेल तोड़ने को फिर बोलेंगी ,
इस बार शायद कोई तोड़ भी दे , फिर बेल खायेंगी फिर कहेंगी एक फ़ोटो खींचो तो बेल
खाते हुए !
इनके बगैर माँ नहीं रह सकती ,उनका फेवरेट फ्रूट है | एअरपोर्ट पर भी लगेज
स्कैनिंग के वक़्त डर रही थी कहीं ऑफिसर उनका बेल न निकलवा दे | डरती है पर साथ ही
लेकर चलती है | हर जगह मिलता नहीं सो इस बार भी हमारे साथ ये बेल लखनऊ से आये है |
माँ ने किसी को बताया नहीं कि कितना अफ़सोस हुआ था उसे जब उसने पोर्ट ब्लेयर में
बेल बिकते दिखे थे | पर आज जो तस्वीर माँ और मौसी ने बेल खाते वक़्त खिचवायी , अब
तक की सबसे घटिया फ़ोटो है |
काश! बड़ी मुझे डेक पर ले जा पाती फिर मैं दिखाता उसे अपने ज़ूम इफेक्ट्स | एक
बूँद भी उछलती तो उसे भी संजो लेता | इम्प्रेस कर देता लेकिन माँ की कोशिश के
बावजूद भी ऑफिसर ने बाहर डेक पर आने की
इजाज़त नहीं दी | सो अंदर रहा और अंदर ही अंदर जमता रहा | इतना ठंडा एसी! और
अब मुझे सब धुंधला दिखायी दे रहा है | मेरे लेंस पर तो कोहरा सा जम रहा है |
राधानगर बीच – नाम सुनकर ही कैसी मनमोहक मनभावन मंत्रमुग्ध मनमस्त कर देने वाली फ़ीलिंग आती
है | जिसका नाम ही इतना
सुन्दर हो वो जगह तो ख़ूबसूरत होगी ही | भाग्यशाली है मेरे “चारों यार” कि हैवलोक के होटल से
राधानग बीच क़रीब है | जब बाक़ी टूरिस्ट होटल में अपना वेलकम ड्रिंक पी रहे तब “मेरे
चारों” ने एक पल भी गंवाएं बिना बीच का रुख किया और उसके दीदार को चल पड़ी ,
बस यही फ़रक होता है पर्यटक और घुमक्कड़
में ...पर्यटक टाइम से चलेंगे रेस्ट भी करेंगे , आइटीनरी फॉलो करेंगे, और घुमक्कड़
को कहाँ चैन ? होटल में वेलकम ड्रिंक पीने की जगह किसी गली में जाकर
“ भैया दो कटिंग चाय देना “
दुकानदार ने चाय देते हुए “ इतनी धूप
में कहाँ जा रहे आप लोग ?
‘ राधानगर बीच , सुना है इस रास्ते में जंगल है , वही से ट्रैकिंग करते हुए
जायेंगे , वहां छाया होगी , हैना ?“
धूप और गर्मी और उमस सबका सामना करती चारों औरते , वीर तुम बढ़े चलो धीर तुम
बढ़े चलो वाली भावना से आगे बढती रही |
जब बाए हाथ पर सौर्य उर्जा से बिजली बनाने वाला सयंत्र देखा यहाँ तो टूर
मेनेजर की बात याद आ गयी जो उसने यहाँ के लिए कही थी “ यहाँ बिजली नहीं बनती जो भी
बिजली है सब जनरेटर की देन है “
कई बार टूरिस्ट गाइड और टूर मेनेजर को भी बहुत कुछ पता नहीं होता | दम तो उस गाइड
में था जिसने सेलुलर जेल घुमायी थी | चलते वक़्त भी कुछ पंच था उसकी बात में |
“यही सेलुलर जेल कहती है गौरव गाथा
यहीं भारत माता का उच्च हुआ था माथा
वह बंदी गृह अभी देता यही गवाही
यहीं आये सावरकर से युग पूज्य सिपाही “,
मगर मुझे अभी तक समझ नहीं आया कि वीर सावरकर हैं कौन ? खैर.. अगर मैं इस
प्रोफेशन में न होता तो पक्का कोई टूरिस्ट गाइड ही होता | हर एक जगह के क़िस्से
कहानियाँ मुझे पता होते वो जो क़िताबों में नहीं मिलते, गूगल पर भी नहीं , ऐतिहासिक
भौगोलिक हर तरह की जानकारी इकट्ठी करता और फिर ऐसे सुनाता अपने टूरिस्ट को जैसे
कोई कविता सुना देता हो और मेरे टूरिस्ट कहते “ वाह वाह! क्या बात जनाब!
अपनी नज़रो से दिखाता दुनिया!
शिट! कितना अच्छा मोमेंट मिस कर दिया बड़ी ने वो चाहती तो तस्वीर ले सकती थी
मैं तो था ही पास पर उसने गौर नहीं किया पर सौर्य संयत्र के पास सफ़ेद परिंदों का
एक झुण्ड भी था | जो एक साथ आकाश में उड़ा और उड़ते ही विलुप्त हो गया |
परिंदों को छोड़ खुद की तस्वीर खिंचवाती बड़ी |
नयी ज़मीन पर नया सूरज तापते, चलते चलते , हम सब महुआ के जंगल में आ गए है और
एक घने पेड़ छाया में बैठने का दिल कर रहा है |
पेड़ो की घनी ओट में आकर देखा यहाँ तो कोई नहीं है बस अस्तित्व की निराकार
नज़रे और हरे हरे महुआ के ऊँचे लम्बे पेड़ जिन्हें देखकर अपने गाँव के अदने से महुआ
के पेड़ की याद आ गयी | तभी ...
माँ – तो यहाँ महुआ की शराब भी मिलती होगी
मौसी – पीनी है क्या ?
माँ – नहीं रे
शायद हम बारिश लेकर ही इन द्वीपों पर दाखिल हुए थे | हरियाली और सावन के सिवा बस हरियाली और सावन ही
है | जंगल का मौन और दूर से आती लहरों का शोर ... यह हरियाली और यह रास्ता
.....मैं मन ही मन गाता रहा , बैकपैक में पड़ा चलता रहा ....
अब लहरों की आवाज़ मेरे कान में गुनगुनाने लगी है | लगता है हम बीच के करीब है
|
माँ – वाह! कितना लम्बा किनारा है इस बीच का , नीला पानी सफ़ेद रेत और नाम राधा
....राधा जैसा सुन्दर मीरा जैसा सुन्दर |
बड़ी – मम्मी ये कितना सुन्दर है!!!
मौसी – बेस्ट एवर
मैं- वो सब तो ठीक है पर छोटी कहाँ है ? कोई पकड़ो उसे
आ गई पकड़ में शैतान की नानी!!
अचरज तो यह है कि यहाँ आकर तो छोटी रातों रात बदल गयी है | रोते रहने की जगह अब उमंग तरंग हसीं ख़ुशी उल्लास नृत्य हिम्मत
साहस लेकिन बात जब दुस्साहस तक पहुंची तो माँ घबरा गयी उसे छोटी के पापा की बात
याद आ गयी जो उसने चलते वक़्त कही थी “ छोटी के सिर पे भंवर है इसे पानी से दूर
रखना “ | माँ ने तुरंत छोटी को काबू किया और आगे से सागर के कुछ दूर रहने की
हिदायत दी | पर मौसी ने छोटी का हाथ थामा और समुन्दर में वो जहाँ जहाँ तक गयी उसे
अपने साथ ही ले गयी उसका हाथ थामे ही रही | वे दोनों घंटों तक खेला करती उछलती
कूदती रही सागर के इस नमकीन पानी में घड़ी और समय से परे ....
बीच पर छोटी का हाथ थामे मौसी |
बड़ी समुन्दर किनारे टहल रही है | कान में ऑडियो फ़ोन लगाये कभी गाने सुनती कभी
सेल्फी लेती | माँ किनारें लेटकर समुन्दर तकती रहती और कभी कभी सब मिलकर पानी में एकसाथ
खेलते और बीच में कोई किसी से भी कह देता “ एक बढ़िया सी फ़ोटो खींचो तो “
चारों |
छोटी और माँ |
प्रकृति के प्रति खुले रहते रहते इन चारों के तो पंख ही लग गए है | चारों राधा ही तो हो गयी है | सागर के इश्क़ में
डूबती तैरती उबरती लहरों से अठखेलियाँ करती राधा नगर बीच पर | जबकि कुछ विदेशी
राधाएँ यहाँ पहले से है जिनके गालों पर पड़ते डिम्पल देखकर पहली इस दिल ने पंजाबी
गाना गाया “ गाला गोरिया ते विच टोए
,..असी मर गए ...ओये होए ...कुड़ी कढ के कालजा ले गयी ....
और सागर को देखकर तो मैं मैं ही न रहा ...जितना ज़्यादा वक़्त इसके किनारों
पर बीत रहा मेरा उतनी ही मज़बूत हो रही थी
मेरे प्रेम की डोर इसके प्रति | इसकी जीवंत लहरों को देख कर लगा की कितनी ऊर्जा है
इनमें , कितना विशाल ह्रदय है इस सागर के पास किसी को सब कुछ देने को आतुर जैसे
कालों से किसी का इंतज़ार कर रहा हो ...एक ही ख़याल बार बार आता रहा कि मन में कोई
टीस लिए किसी की याद में यह बस एक ही गीत गाया करता हो
“ कि तेरा ज़िक्र है या इत्र है
जब जब करता हूँ
महकता हूँ बहकता हूँ चहकता हूँ
उछल तो मैं भी जाता था जब ये लडकियाँ मुझे लहरों के बीच ले जाने की योजना बनाने
लगी | अपनी आँखों से अभी मैंने यहाँ एक
बंदे का कैमरा एक लहर के आगोश में जाता देखा और वो कुछ न कर सका | अगर मैं डूब गया
या भीग गया | तो ???
मेरा तो जो होगा वो होगा ही तुम्हे भी ख़ाली हाथ जाना होगा , न तस्वीरे होंगी न उनसे
जुडी बातें | अपना तो सोचो लडकियों |
हेवलोक में कुछ चीज़े बहुतायत में है | एक ट्रॉपिकल फारेस्ट यानी उष्ण कटिबंधीय
वन और फिर दूसरा बंगलादेशी ,बर्मा और श्रीलंका से आये शरणार्थी | विभाजन के समय जो
पूर्व पाकिस्तान से यहाँ आये वे यही के होकर रह गए , यहाँ तक की जो कैदी जेल काटकर
लम्बे समय बाद निकले वो भी यही बसते चले गए | यहाँ रहने वाले लोग अधिकांशतः भारत
के कई हिस्सों से आये कैदियों की संताने है | लेकिन यहाँ लोगों में जाती धर्म को
लेकर कोई मतभेद नहीं बल्कि ये काफ़ी शांति और सामंजस्य बनाकर रहते है | संतुष्ट
होकर धान, सुपारी ,काजू, हल्दी और नारियल की खेती करते हैं |मछलीपालन और बीचो पर चाय पकोड़ी की दुकाने भी लगाते
है |
वापिस होटल जाते हुए हुए माँ और मौसी एक बंगलादेशी शरणार्थी बिदुराम मजूमदार से
मिली भी | बिदूराम एक मूर्तिकार है , मूर्तियाँ बनाता है और उसके पास कुछ ज़मीन भी है
,वहां नारियल की खेती करता है , उसके घर में राधकृष्ण की पूर्ती माँ को बहुत पसंद
आयी | यह मूर्ति बनकर तैयार है लेकिन सरस्वती माँ की मूर्ति को रंगना बाक़ी है |
बिदुराम की पत्नी ने लाल चाय पिलायी और पेड़ के पके केले खिलाएं और लगे हाथ मैंने कुछ
बढ़िया तस्वीरे ले ली |
बिदुराम के घर में |
शाम ढले –
वैसे तो इन द्वीपों पर हम दाखिल ही हुए थे मानसून साथ लेकर पर यह चार बजे वाली बारिश इतनी पाबंद निकलेगी वक़्त की ,यह
कहाँ पता था ? यह भी जान लिया यहाँ आकर | भूगोल की किताबों में पढ़ा था की उष्ण
कटिबंधीय जलवायु में रोज़ाना चार बजे पानी बरसता है | क्यूँ बरसता है यह भी पढ़ा था
| इक्वेटर के करीब होने से सूर्यताप ज़्यादा रहता है और किरणें एकदम सीधी पड़ती है तो तापमान ज़्यादा रहता
है | जिससे गरम वायु हल्की होकर ऊपर उठती
है और सागर से नमी ग्रहण कर लेती है | आकाश में फिर ऊंचे जाकर ठंडक पाकर सिमटने
लगती है | सकुंचाकर सिमटकर कब बूँद बन जाती है और बिजली की चमक और मेघो के गर्जन
के साथ कब धरा पर बरसने लगती है | पता ही नहीं चलता |
यहाँ तक तो सब ठीक है | पर इस शाम को होने वाली बारिश का असर मेरे मुसाफिरों
पर इतना गहरा पड़ेगा , कभी नहीं सोचा था | इनका मन खट्टा होने मन मुटाव तक की
स्थिति बन जाती है , छोटी छोटी बातों पर नोक झोक पैदा कर देती है और पारस्परिक सौहाद्र भी ख़तरे के निशान से ऊपर चला
जाता है |
बादलों की घेराबंदी से सब घबराए |
और आपसी संघर्ष का यह समय सामान्य रूप
से सूर्यास्त के आसपास शुरू होता , जब ये बीच से वापिस आ रहे होते है | मैं तो तभी
इनकी चाल ढाल देखकर बता देता हूँ कौन कितना नाराज़ है बरखा रानी से | सुबह से धूप और उमस में काले होते रहे मेरे
प्यारे! सिर्फ़ शाम के उन हसीं लम्हों के इंतज़ार में जब सूर्यास्त होगा और समुन्दर
के आकाश पर लाल छटा बिखर जाएगी और सम्पूर्ण सूरज सागर के अंदर ध्यान मग्न होने चला
जायेगा | तब कहीं चाँद आएगा और लहरें रफ़्तार पकड़ेंगी | पर बेवक्त आकर बरसाती देवी सारा मज़ा ही किरकिरा कर
गयी हैं |
बारिश शुरू होते ही बीच पर तैनात लाइफ
गार्ड्स ने तुरंत इन्हें वापिस होटल भेज दिया और मजबूरन वापिस आना पड़ा बिचारों को |
आहत ह्रदय और चोट खायी आत्मा! जैसे एक
सेकंड में सारी ऊर्जा सारी गति सब ख़तम | जबकि घुमक्कड़ो के प्राण संचार की तो पहली
शर्त ही है , गति! गति! गति!
पर देखो तो किस गती को प्राप्त हो गए है मेरे प्यारे ! आँखों में सूनापन ह्रदय
में खालीपन और उचाट मन लिए क्या क्या सोच रहे है |
कितने कुछ बाक़ी रह गया
अभी तो कुछ किया ही नहीं
मिलते ही बिछुड़ गए
तस्वीरें ही ले लेते
चाँद भी नहीं देखा
सूर्यास्त से भी गए
कमबख्त बारिश!
हाय! इनकी तकलीफ़ मैं ख़ूब समझता हूँ | लद्दाख़ से जब मैं लौटा था मेरी आँखों में
भी सिर्फ़ आसूँ थे | अगर मेरे हाथ में होता तो कबका बारिश रोक चुका होता | पर जो
किस्मत में लिखा बदा उसे रोकने वाला भला मैं कौन होता हूँ फिर मैं भी तो मन ही मन इंतज़ार
कर रहा था , कब शाम ढले, कब ये चारों आवारा दिन भर बीच में बिताने के बाद
क्रोधाग्नि में जलते वापिस होटल पहुँचे और लखनऊ की तहज़ीब को कोसो पीछे छोड़, “मेरे
चारों नवाब” पहले आप , पहले आप की जगह पहले मैं! पहले मैं! की चीख़ पुकार करे और मैं भी कुछ मज़े लू | ज़्यादा मिठाई में भी कीड़े पड़ जाते है |
हैना?
सनकी मौसी - और अब जिसका मुझे था इंतज़ार वो घड़ी आ
गयी आ गयी .....मेरे चारों यायावर भूखे-प्यासे, थके-हारे, रेत में सने,
छींकते-काँपते वाशरूम के आगे खड़े है कतार में |
जेल के कैदी जैसे | किसी की आस्तीन में रेत घुसी है पर झाड़ सिर से रहा है , तो कोई पायचें में रेत को संभाले बुद्ध बना
खड़ा है | जो आधे अधूरे कपड़े पहनकर गए थे उनकी अपनी दिक्कते है |
अब तक सागर की जिस रेत चिपक चिपक खेल रहे थे , अब उस रेत ने इतनी परेशानी कैसे
पैदा कर दी ? इतनी बेचैनी इतनी नफ़रत , श्रृष्टि का नियम है जिससें जितनी मोहब्बत उतनी ही नफ़रत उससे |
बस मुक्ति मिले इस रेत से , कब बदन से दूर हो ,कब नहायें , सूखे कपड़े तन पर आये , चाय पियें .... पर खीज भरे इस माहौल में फिलहाल तो मुश्किलें दूर होती नहीं दिखती |
बस मुक्ति मिले इस रेत से , कब बदन से दूर हो ,कब नहायें , सूखे कपड़े तन पर आये , चाय पियें .... पर खीज भरे इस माहौल में फिलहाल तो मुश्किलें दूर होती नहीं दिखती |
चार लोग और बाथरूम एक सच में बहुत नाइंसाफ़ी है!!
माँ मौसी से – पहले तुम ही चली जाओ, वरना छीकोगी रात भर | दिमाग ख़राब करोगी सबका
| जल्दी आना मगर वरना कल आख़िरी नंबर लगेगा |
मौसी –ओके, पर देखना रेत लेकर कोई बिस्तर पर न चढ़ जाये
माँ – हाँ हाँ जाओ
छोटी मौसी के जाते ही- मम्मी मेरी
पॉकेट में देखो कितनी सारी रेत है |
माँ- पॉकेट में ही रखो बाहर मत निकालना
बड़ी के कान में गाना अब भी लगा है और सुनने कहने की सभी संभावनाओं से ऊपर | चेहरे
पर किसी भी प्रकार की तकलीफ़ के कोई संकेत नहीं | इसलिए उसका नंबर आज सबसे आख़िरी
में आएगा |
माँ – जल्दी निकलो यार , तुम्हे पहले भेज दिया तो तुम वस्त्र प्रच्छालन करने
बैठ गयी | हम लोग को भी ठंडी लगती है | हम भी इंसान है |
मौसी बाथरूम से – बस दो मिनट |
माँ ख़ुद से - दो मिनट करते करते बीस मिनट हो चुके है |
छोटी माँ से – हर रोज़ सबसे पहले मौसी ही क्यों जाती है ? हम लोग क्यों नहीं
जाते
माँ – तुम्हे क्या दिक्कत है , तुम्हे तो भीगना पसंद है |
छोटी – मैं थोड़ी देर स्विमिंग पूल में
चली जाऊ नीचे
माँ – चुप बैठो एकदम , वरना अब एक पड़ेगा
छोटी चुपचाप बिस्तर पर बैठ गयी | पॉकेट से रेत निकालकर स्नोमैन बनाने लगी |
मौसी बाहर आकर “ क्या यार इतना भी नहीं देख सकी , देखो क्या कर रही ये
माँ ने बिना कुछ बोले ज़ोर से बाथरूम का दरवाज़ा बंद कर लिया |
दरवाज़े की भड़ाम सुनकर बड़ी को लगा जैसे किसी ने उसे पुकारा , कान से ऑडियो
स्पीकर हटाकर “ कुछ कहा क्या ?
और अब कुछ देर बाद बिस्तर पर चारों मूर्तियाँ विराजमान है | साढ़े सात बजने के इंतज़ार में ठीक साढ़े सात पर डिनर सर्व लग जाता है हॉल में | लेकिन मौसी अब भी काफी परेशां दिख रही है |
काफ़ी देर बिस्तर झाड़ने के बाद
मौसी ख़ुद से – देखो अभी भी कितना खिस खिस हो रहा है |
छोटी से – ये अभी भी बैठी बिस्किट खा रही है ,उठो | कुर्सी पर खाओ जाकर
बड़ी से – तुम्हारे चप्पल कहाँ है ? अंदर तो नहीं लायी न ?
माँ से – यार ग्रीस लगाकर लायी हो पैर पर, चादर देखो | उठो, जाओ साफ़ करो |
माँ- मैं तो नहीं उठती| जो करना है कर लो , अभी एक्स्ट्रा बेड आएगा ही , ऐसा
करना तुम उस पर ही सो जाना |
मौसी – ओके फाइन
लो! साढ़े सात बज गए | सारे गायब और मैं कमरें में अकेला यहाँ चार्ज हो रहा हूँ
|
जेट स्की का मज़ा लेने के बाद चारों |
स्कूबा डाइविंग ,स्नोर्केलिंग और सी-वाक –
स्कूबा डाइविंग - करने के लिए सुबह साढ़े पांच हम गोविन्द नगर बीच पहुंचे | डाइविंग स्कूल का
नाम “इको डाइवर” है | यहाँ के सभी इंस्ट्रक्टर
ट्रेंड और सर्टिफाइड है इसलिए डरने की कोई बात नहीं | हर एक टूरिस्ट के साथ एक
इंस्ट्रक्टर एक मिलता है जो लगातार उनके साथ रहता है |
सबसे पहले एक फॉर्म दिया गया भरने
को जिसमे मेडिकल फ़िटनेस , घर का पूरा पता , होटल का पता टेलीफोन नंबर जैसी ज़रूरी
सूचना भरनी है | इसके बाद उसने स्विम सूट और जूते इत्यादि दिए गए | इसके साथ ही हमारें
इंस्ट्रक्टर ने एक भारी ओक्सिजन सिलेंडर हमारी पीठ पर लगाया और उसे बेल्ट से बांध
दिया | छोटे बच्चों को शायद इसी सिलेन्डर
की वजह से स्कूबा डाइविंग नहीं करने दी जाती | इसका वज़न तीस पौण्ड तक होता है और बच्चों
के बढ़ते शरीर में इतना वज़न रखने से उनकी रीढ़ की हड्डी प्रभावित हो सकती है |
छोटी बहुत दुखी है उसका भी बहुत मन है पर इसी वजह से इजाज़त नहीं मिली | सो छोटी
मैं गुमसुम बाहर बैठे माँ मौसी और बड़ी को
सागरमें उतरते देख रहे है | मैं भी गहरे नहीं जा सकता | अपनी सीमओं को नहीं लांघ
सकता |
माँ मौसी और बड़ी तीनो के इंस्ट्रक्टर उनके साथ है और एक कॉमन फोटोग्राफर भी
साथ जा रहा है | एक एक कदम कदम बढ़ाते हुए समुन्दर में आगे की तरफ बढ़ रहे है | पहले
पानी इनकी पैरों थ था फिर कमर तक औए अब काफ़ी आगे निकल गए है और पानी अब इनके गले
तक है | अब इन्हें पाइप, बेल्ट, मास्क वगैरह पहनाया जा रहा है | पहले ट्रेनिंग दी
जाएगी जोकि शुरू हो गयी है |
सांस कैसे लेनी है ?कैसे छोडनी है ?अगर मास्क में पानी चले जाये तो कैसे
निकलना होगा | नाक कान में दर्द हो या सांस लेने में दिक्कत हो क्या करना उचित
होगा | इंस्ट्रक्टर ने साइन लैंग्वेज भी सिखाई क्यंकि पानी में बोलकर बात नहीं
होगी | कुछ देर तक श्वास का अभ्यास कराने
के बाद अब तीनों पीठ के बल फ्लोट कर रहे
है और आगे बढ़ते जा रहे है | मैं और छोटी किनारें पर से सही पर अब भी इन्हें देख
सकते है | इंस्ट्रक्टर ने शायद अहिस्ता से इन्हें मुड़ने को कहा और इनका सिर सागर की तरफ़ कर दिया
और अपने साथ नीचे गहरे में उतार लिया |
हमारी नज़रो से ओझल होते ही छोटी को ज़ोर धक्का सा लगा और उसके मन ने कहा “ माँ वापिस आ जाएगी न ?”
उधर माँ के दिल में भी इस वक़्त बस छोटी की तस्वीर है |
मैंने अपने वाटर प्रूफ़ दोस्तों से सुना है... कुछ देर डरने के बाद लोगों की सब
चिंता फ़िकर अपने आप ही पीछे छूट जाती है | ख़ुद की जान की फ़िक्र इस कदर जकड़
लेती है कि बाक़ी और फिकरे बहुत पीछे रह जाती है | यह डर घबराहट कुछ देर ही रहता है , जैसे
ही समुद्री जीव दिखने लगते है, तब डर की जगह रोमांच भर जाता है ....कोरल्स ,सीपियाँ और तरह तरह की अनदेखी
मछलियां | गहराई में जाकर कानों में प्रेशर बढ़ने भी लगता है , जितना गहरे जायेंगे
प्रेशर बढ़ता जायेगा | इंस्ट्रक्टर उन्ही को डीप में ले जाते है जो ख़ुद जाना चाहते
है किसी भी तकलीफ़ का सिग्नल पाकर वो तुरंत उन्हें ऊपर ले आते है |
इस स्कूबा डाइविंग की क़ीमत है चार हज़ार प्रति व्यक्ति और इसके बदले में मिली एक
अविस्मर्णीय जल यात्रा और तस्वीरें जो ज़िन्दगी भर ज़िंदादिली की याद दिलाएंगी और
यकीन कि “ डर के आगे सचमुच जीत है “
स्नोर्केलिंग – पर और भी तरीके है समुन्दर के ह्रदय में उतरने को, ख़ासतौर पर उनके लिए जो मेडिकली फिट नहीं है या जो
कम जोखिम उठाना चाहते है या फिर जो दस साल से कम उम्र के हो जैसे
अपनी छोटी ...
इसमें समुन्दर की गहराई में उतरने की ज़रूरत नहीं पड़ती बल्कि सागर की सतह पर
रहकर ही इसे किया जाता है | स्नोर्कल रबर
या प्लास्टिक की बनी एक पाइप होती है जो मास्क से जुड़ी रहती है | इसे ही पहनकर स्नोर्केल्लिंग की जाती है | जब
मुंह और नाक पानी में डूबे रहते है तब इसका इस्तेमाल पानी के ऊपर सांस लेने में
किया जाता है |
सुरक्षा के लिए एक ट्यूब भी पहना देते है और मास्क में लगे चश्में की मदद से पानी
के भीतर प्राकतिक जीवन को देखा जा सकता है | मूंगा मछलियाँ शैवाल चट्टानें सब
दिखायी पडती है |
आज छोटी का दिन है और सिर्फ़ उसने ही सागर में आगे तक जाकर स्पेशल स्नोर्केलिंग
की | बाक़ी तीन ने कॉम्प्लीमेंटरी स्नोर्केलिंग के मज़े लिए | स्पेशल स्नोर्केलिंग
के लिए माँ को एक हज़ार रूपए एक्स्ट्रा देने पड़े | इसमें भी काफ़ी कुछ वही दिखता है जो स्कूबा डाइविंग
में दिखता हैबस अंतर इतना सा यह छिछले पानी में की जाती है |
स्नोर्केलिंग करती छोटी |
सी वाक - जिसे सिर्फ़ बड़ी ने एलीफैंट बीच पर
किया गया |
स्पीड बोट पर बैठकर पहले हमसब समुद्र के बीच खड़ी एक बोट में गए | फिर वहां एक
बड़ा भारी हेलमेट पहनाकर बोट से जुडी सीढ़ियों से बड़ी को उतारकर नीचे समुन्दर की तली
तक ले जाया गया | लगभग टीस फिट की गहराई पर
| हेल्मट पहनकर जैसे सिर पानी के अंदर करते है , पानी के प्रेशर से कान में
ज़ोरदार दर्द उठता है और कई लोग इसी दर्द से घबराकर वापिस ऊपर चले आते है | एक
फॉर्म यहाँ भी भरवाया जाता है जिसमें सभी ज़रूरी जानकारी दी जाती है | शुगर, हाई ब्लड प्रेशर , सांस लेने में दिक्कत
जैसी परेशानियों हो तो इसे कदापि नहीं करने दिया जाता | छोटे बच्चे भी इसे नहीं कर
सकते | समुद्र की तली पर जाकर बड़ी को जैसे वो रेत के रेगिस्तान में आ गयी हो | आस पास कुछ देर चलने पर रंगीन मछलियाँ और
जलजीव भी देखे | मछलियाँ को यहाँ अपने
हाथों से खाना भी खिलाया | बड़ी के लिए यह
काफ़ी नया अनुभव था | इसकी क़ीमत प्रति व्यक्ति पैतीस सौ रुपया है | टूरिस्ट के बीच
सी वाक अब काफ़ी लोकप्रिय हो गया है |
सी-वाक करती बड़ी |
जारवा जनजाति – अपने सफ़र के आख़िरी दिन आज फिर से पोर्ट
ब्लेयर शहर घूमने निकले है और क्यूंकि मौसी
एक मानवशास्त्री है , तो उसके दुराग्रह पर हमसब उसके साथ सबसे पहले क्षेत्रीय मानव
विज्ञान संग्रहालय देखने जा रहे है |
मानव विज्ञान , जिसमें मानव के शारीरिक , सांस्कृतिक और सामाजिक पहलुओं का
अतीत और वर्तमान में अध्ययन किया जाता है | इसलिए शायद इस मानव विज्ञान संग्रहालय
में तो दुनिया बिलकुल ही अलग है | यह कौन
से लोग है ? न तन पर कोई कपड़े न ही ईंट पत्थर के घर मकान | इनका खाना पीना कितना अलग है |
म्यूज़ियम में लगी जारवा जनजाति की तस्वीरों को देखकर लगा की क्या आज भी लोग ऐसे रह
सकते है ? विश्व की सर्वाधिक पुरानी
जनजातियों में से एक !! और अंडमान की मूलनिवासी जनजाति जो आज भी मध्य और दक्षिण
अंडमान में रहते है |
इन तस्वीरों को देखकर मुझे एकदम से
याद आ गया की कुछ सालों पहले मेरा एक मित्र भी अंडमान निकोबार घूमने आया था और उसने
मुझे बताया भी था कि पूरी अंडमान निकोबार यात्रा में उसको सबसे ज़्यादा रोमांचकारी यही
लगा था जब उसने ख़ुद अपनी आँखों से इन
जारवा जनजाति के लोगों को देख पाया |
जिस जगह पर ये रहते है उसे JARAWA TRIBAL RESERVE का नाम दे दिया गया है | इस इलाक़े से होकर सिर्फ़ अंडमान ट्रंक रोड़ ही
जाती है और यही हाईवे इनके लिए सबसे बड़ा खतरा भी है | पर्यटकों की बढ़ती संख्या
इनके लिए चुनौती बनी हुई है | हालाँकि नागरिको का बिना अनुमति यहाँ आना मना है | पर्यटकों
की सभी गाड़िया एक साथ बिना रुके चलती है और साथ में सेना की गाड़िया भी इनके साथ
रहती है क्यूंकि यह लोग कभी कभी टूरिस्ट पर आक्रमण भी कर देते है | इस जगह को पार
करते हुए गाड़ी के शीशे हमेशा बंद करके रखे जाते है|
मेरा दोस्त भी इस इलाक़े से गुज़रा और उसने इन्हें देखा भी पर फ़ोटो न ले सका क्यूंकि
यहाँ फ़ोटो खींचने पर सख्त पाबन्दी है |
म्यूज़ियम में लगा जारवा पुतला |
जब लेकिन अंडमान ट्रंक के दूसरी छोर
पर जहाँ उसकी गाड़ी रुकी तो वहां एक जारवा जनजाति का पुरुष ग़लती से आ गया था और मेरे
यार ने फटाक से एक तस्वीर ले ली | जब उसने मुझे यह तस्वीर दिखाई थी तो मैंने कहा भी था "वाह मेरे शेर " |
जारवा जनजाति के उस व्यक्ति के हाथ में एक धनुषबाण था , वैसे कई धनुषबाण यहाँ म्यूज़ियुम में रखे दिख रहे है और उस पल को तो वो कभी न भूल सका जब जारवा जनजाति के छोटे बच्चें चलती गाडियों पर चढ़कर खाने की चीज़ों की मांग कर रहे थे | शायद इन्ही वजहों से सरकार ने इनकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इनकी तस्वीरे लेना , इन्हें खाने पीने की चीज़े देना , इनसे मिलने इत्यादि पर रोक लगा रखी है और टूर ऑपरेटर्स को भी इस संबंध में हिदायते दी हुई है |
जारवा जनजाति के उस व्यक्ति के हाथ में एक धनुषबाण था , वैसे कई धनुषबाण यहाँ म्यूज़ियुम में रखे दिख रहे है और उस पल को तो वो कभी न भूल सका जब जारवा जनजाति के छोटे बच्चें चलती गाडियों पर चढ़कर खाने की चीज़ों की मांग कर रहे थे | शायद इन्ही वजहों से सरकार ने इनकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इनकी तस्वीरे लेना , इन्हें खाने पीने की चीज़े देना , इनसे मिलने इत्यादि पर रोक लगा रखी है और टूर ऑपरेटर्स को भी इस संबंध में हिदायते दी हुई है |
यह लोग कई हज़ार सालों से यहाँ अंडमान के घने जंगलों में रह रहे है , शायद 22 ,000
हज़ार सालों से भी ज़्यादा से | नेग्रीटो जन समूह से ताल्लुक रखने वाले रंग से काले और नाटे कद के होते है | नेग्रीटो मानवी जातियों का वो समूह है जो दक्षिणी
पूर्वी एशिया के दूर दराज़ जगहों पर रहते है | मध्य अफ्रीका के पिग्मी से काफ़ी हद तक
मिलते है | बाहरी दुनिया से दूर आज भी पाषाण युग में जी रहे है | कपड़े नहीं पहनते ,
शहद और सुअर का मांस और कंदमूल खाकर जीने वाले अपनी भाषा में ही बात करते है पर
हाल में कुछ हिंदी बोलना सीख गए है | जबसे कुछ लोगों के संपर्क में आये इन्हें भी
शराब पीने और पान खाने की लत लग गयी है | प्रकृति के बीच रहने से इन्हें जंगली वनस्पतियों
का बहुत ज्ञान है और यही वजह है कि इनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत है |यह लोग अब
विलुप्त होने की कगार पर है जिनकी संख्या अब शायद सिर्फ़ तीन सौ है | सरकार ने
इन्हें घर बनाकर भी दिए पर ये लोग बाहर आना ही नहीं चाहते |
जारवा के अलावा अंडमान निकोबार द्वीपों पर सेंटिनलीज़, शौम्पेन, ओंगी ,निकोबारी
और ग्रेट अंडमानीज़ जनजाति के लोग भी रहते है
|
मानव विज्ञानं संग्रहालय देखने के बाद अभी एक और म्यूज़ियम देखना बाक़ी है | तो
हमारी गाड़ी चल पड़ी समुद्रिका ,नौ सेना संग्रहालय की ओर ....
यह संग्रहालय भारतीय नौसेना के आधीन है | अंदर पैर रखते ही एक बड़ी ब्लू वहले
के कंकाल ने हमारा स्वागत किया | इसे देखकर छोटी ख़ुशी से पागल हो गयी और तभी ज़ोरदार
बारिश शुरू हो गयी पर हम तो पहले से अंदर आ चुके है | आगे पता चला कि यह संग्रहालय पांच भागो में
विभाजित है | जिसमें अंडमान के इतिहास से लेकर भूगोल और पुरातत्वीय जानकारी के साथ
समुद्री जीवन भी सुविधा से समझा जा सकता है | यहाँ भी जनजातीयों के दुर्लभ
चित्र फ्रेम कराकर लगाये गए है और एक बड़ी स्क्रीन पर लगातार अंडमान पर्यटन से
जुड़े तरह बेतरह के वीडियोज़ चला करते है |
आख़िरी बात – मैं तो यूँ ही बस इनके साथ
घूमने आ गया था | कुछ नया देखने नया सीखने को पर सोचा नहीं था कि इनके साथ साथ रहते इन चारों से मुझे इतना लगाव
हो जायेगा | हसतें मुस्कुराते , जोखिम उठाते, ये यूँ ही इस तरह जीते रहे, कतरा कतरा पीते रहे | ऐसी मैं दुआ करूँगा|
सफ़र कम आनंद उत्सव ज़्यादा रहा हम सबके लिए | ऊर्जा की आखिरी बूँद तक उसे जीना
और दिन भर की थकन के बाद चूर चूर हो जाना | यही तो बात है जो मुझे इनकी ओर खींचती है | | इनकी तस्वीर लेना मेरा पेशा नहीं बल्कि शौक है और कुछ तस्वीरें सच में बहुत अच्छी आयी है पर मेरा हुनर तब भी स्वयं सिद्ध नहीं है | हर बार हर नए हाथ में जाकर मुझे साबित करना पड़ता है मेरा काम मेरा ज्ञान जिसके लिए मैं ख़ुद को अपडेट रखता हूँ ,पढ़ता लिखता ,घूमता फिरता मस्त रहता हूँ , इस यकीन के साथ कि ...
नील आइलैंड |
"मंजिल मिल ही जाएगी भटकते हुए कहीं
गुमराह तो वो है जो घर से निकले ही नहीं"
Narration ws so strong while i reading it seems i am dere at my fav kolkata n andaman....
ReplyDeleteThanks a lot dear Reader .
ReplyDeletehttps://bulletinofblog.blogspot.com/2018/06/blog-post_29.html
ReplyDeleteLoved it... Thank you so much for sharing.. Love to all five of you��
ReplyDeleteNice blog post. Thanks for sharing. Resorts in Neil Island Andaman
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