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Tuesday 8 October 2013

दो तारे थे.....

                   
सूरज को चढ़ाया था सुबह जब
चाँद पूरा  उतार लिया था
पर दो तारे ,उतार नहीं पायी
भूल हो गयी .....वो भूल मेरी
दिन बढ़ने लगा और वो भी
तपन ,जलन, गर्मी सब बढती रही
और वो दोनों तारे ,किसी बदली के पीछे ,पीछे
छिपते रहे ,छिपते रहे , डरे सहमे से
नीला आसमान उसका  होता गया
वो जलता रहा, जलाता रहा  .....तारे गलने लगे
बिचारे थे , ...... धीरे धीरे पिघलने लगे
तारे दोनों ,  गलते रहे  पिघलते रहे
फिर मिल गए आसमानी आब-शार से
पार कर वादियों को .....
उतर लिए  ज़मीनी दरिया तक
तबसे इसी दरिया में रहते है
दिन, दरिया के दिल में गुज़ार कर
रात पूरा आसमान यही बुला लेते है
डरते अब भी है , उस सूरज से .....



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