तू कहा करता था ....
“चाहता हू अलग रहू धारा
बहती रहे अथाह
किनारे पर खड़े हुए देखू
धारा का प्रवाह “
कहना है आसान बहुत , करना भी
आसान
सुन्दर लगती है धाराए ,गर
दूर से देखि जाए
मीठी सी की आवाज़ करे ,और
गीत सभी ये गाये
गर दूर से देखी जाए ,गर दूर
से देखि जाए
समझ न इन्हें ,थोडा सा और ,थोडा
सा ज़्यादा,
नमक नहीं तू , पास आ, कर न कोई
वादा
देख ज़रा , बूढ़ी सी
इस धारा को
कांप कांप कर बहती ये ,अधूरेपन
में जीती है
कंकड़ ,पत्थर में चलती ये , तंग
रास्तो पर छिलती है
काई में गिरती पड़ती, हर रोज़ फिसलती रहती है
ख़ामोशी से चलती चुप , फिकर तेरी ये करती है
सुन कर आवाज़ कही इसकी , तू
बिखर न जाए
संभाल न पाए खुद को ,करीब न
आ जाए
साया भी तेरा पड़ जाए तो
,जिंदा फिर हो जाएगी
खोखली सी देह इसकी बासुरी
बन जाएगी
धारा एक सूख चली,
एक धारा तो बह जाएगी
किनारों पर खड़ा रहकर तू कुछ
समझ न पायेगा
अलग रहना चाहता है , तू अलग
ही रह जायेगा
श्रुति
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