Search This Blog

Monday 13 June 2016

मैं और सागर ...

मैं सागर के भीतर हूँ।
गहरे बहुत नीचे कहीं
तैर नहीं रही
चुपचाप लेटी हूँ
और ये पानी कितना अजीब है !
चढ़ता है नाक पर
दिमाग सुन्न करता है
फसता है साँसों में
बेचैन ही करता है
कोई बुलबुला कहीं नहीं
हलचल भी नही
मेरा दम भी नहीं घुटता
जबकि मैं पूरी इसके भीतर हूँ
और इसका पानी...
इसका पानी कितना अजीब है !
१- 
तारीफ़ करती थीं जब
कहती थीं वो अक्सर
सागर हूँ मैं
शांत और गंभीर
जान नहीं पायी कभी
बवण्डर था बस
हवा का खदेड़ा हुआ
भागता हाँफता
आंधी लिए भीतर
टकराता यहाँ वहाँ
तोड़ फोड़ करता
ग़म का सबब
कुछ देर चलकर
थक जाता था
शांत हो जाता था फिर
पर तारीफ़ के लायक तेरी
मैं कभी नहीं था ..

पीपल का पेड़

१- 
मेरे रोज़ के रस्ते पर
एक आम का पेड़ पड़ता है
तो ऊँचा है चौड़ा ही
कमज़ोर सा मालूम पड़ता है
पीछे से लोग भी
तरह तरह की बातें करते है
" कम्बख़त बाँझ है
बस जगह घेरे खड़ा है
किसी ने एक बौर तक देखी
आजतक चलो कटवा देते है "
पर ये क्या ? ये कैसे हुआ !!
शाख़ की दरार से इसकी
एक नन्हा पीपल जन्मा है
और कहते है ..
पीपल में कृष्ण का वास होता है।
Does the Sun even know that there is a Moon in the world ?


सूरज बड़ा है बहुत ! गम्भीर भी
तेजवान ! प्रतापवान ! सब है वो
और ये चाँद अपना शर्मीला सा
बस उसी पर वारा जाता है
दिन दिन भर दीदार करता
शाम से इंतज़ार में उसके ...
बेख़बर इस बात से है कि
रोशन है अब ये भी बहुत
सोहबत में इबादत में उसकी
क्या क्या सोचता होगा ??
" मिलूँगा उनसे कभी बताऊँगा फिर
मैं चाँद हूँ ... दीवाना हूँ आपका "
फिर डर से हया से बात अटक जाती होगी
हर बार ...
उधर सूरज क्या उसे भी कुछ पता होगा ?
कि कोई चाँद है इस दुनिया में
जो बस
उसी पर वारा जाता है ...

                               माफ़ कर दे मुझे तू नहीं समझ पाया मैं तुझे
                                        कहते कुछ हो करते कुछ
                                           सोचते कुछ और ही हो तुम
                                       कितनी हवाएं दी मैंने तुमको
                                       कितनी बारिशे कितनी ख़ुशबू
                                       कितना झूला है तू मेरी बाहों में
                                      धंधकता रहा तेरे हवन कुण्ड में मैं
                                        जिस्म की छाल तक उतार दी
                                     कि तेरे ज़ख्मों पर मलहम बन जाऊ
                                         कैसे भी बस मैं तेरे काम आऊ
                                           पर एक आरी चलाकर तू तो
                                    पूरा रिश्ता ही जड़ से काट देता है
                                     और ये क्या फिर मुझ पर ही
                                        मन्नतों के सब धागे भी बाँध देता हैं 
                                      ईश्वर बनाकर मेरी आराधना करता है
                                        नहीं चाहिए कुछ मुझे
                                         न तेरा प्यार न तेरा वार  
                                     खोल दे ये सब  रिहा करदे मुझे
                                  नहीं समझ पाया मैं तेरे मन को ....




एक बेचैन चील ..

एक चील को देखा है कई बार
तनहा थोड़ा बुज़ुर्ग सा
रोज़ सुबह घर के पास  
सूरज की पहली किरन के साथ
खुद भी चला आता है
ऊंची ऊंची इमारतों के बीच
कोनो कोने में झांकता घंटो उड़ा करता है
ऊपर से नीचे नीचे से ऊपर
कभी गोल गोल , कुछ खोजता हुआ
पंख के टुकड़े बिखराता यहाँ वहाँ
परेशां सा बस उड़ा करता है
सुनते भी है यहाँ पहले जंगल था
बहुत परिंदे थे बहुत चील भी थे
जंगल कटा तो सब उड़ गए
कोई चला गया इसका भी शायद  
जो वापिस नहीं आया
यूं हीं बेवजह उड़ा करता है
बेचैन चील ....




वृन्दावन मेरा मन ..

एक वृन्दावन होता है हर किसी के मन में 
पेड़ो से परिंदों से भरा मधुबन होता है ये
जामुन आम पीपल कीकर चन्दन
बरगद कोयल चातक मयूर सब होते है यहाँ
नीला गहरा नीला आकाश भी है
मोरपंख के रस में ढला
नीला नीला एकदम नीला   
ऊंचा बहुत ऊंचा पहाड़ भी है
इंद्र पर्वत जैसा एकदम वैसा
झरने बहते है नदिया बहती है
और सूरज की रश्मियों में नहाकर
नदियों में तरी लगाकर
लोग रूह निहाल करते है अपनी  
थककर जीवन की आपा धापी से
हैरान होकर सब यहीं आते है
अपने मन के वृन्दावन में ...