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Thursday 20 February 2014

हवा का झोंका

.....अभी कुछ देर पहले एक ख़ूबसूरत हवा का झोंका आया था ....और फिर ये कविता.... 

चिलमने, बारिशों की भी
छिपा कहाँ पाती तुमको
दिख ही जाते हो दूर कहीं
बड़ी दूर खड़े ...
ज़रा सहमे से ,कुछ डरे डरे
कभी बादलो की आड़ में
कभी कोहरे के पीछे
शक है मुझे ,
तुम वोही तो नहीं
जो नज़रे चुराता है मुझसे
सामने आओ कभी...
बैठकर बातें करते है
ये छुपन छुपाई क्यों ? 

                      श्रुति त्रिवेदी सिंह 

3 comments:

  1. बारिशो की चिलमनें भी
    काम ना आएँगी पता था
    ये न पता था कोहरे की
    आड़ से भी बुला लोगी

    छुपन- छुपाई भी ना खेलें
    तो भला हम क्या करें?
    पास जो आया बिठा कर
    कोई कविता सुना दोगी

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  2. Vah !! aap dono ustaad ho sach me ... :)

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  3. Dil me chipaa logi...toh kahin aur naa chip paaenge.....
    tum yaad krna humko....hum.zamaana chod kar aaenge...
    preeti

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