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Monday 24 February 2014

बस यू हीं .......



जानता है मुझे , करीब से बहुत
कोना  कोना मेरे घर का
वो आगे  वाला बगीचा
वो बड़ी वाली छत
वो गमले कच्चे पक्के
वो दराज़ो में रखे ख़त
सब जानते है मुझे ...
आगन बीचो बीच का
देहलीज़ और रसोई
कमरा पहले तल्ले का
जिसमे रहता नहीं कोई
सीढ़िया ,दरीचे किताबे भी सारी
नयी पुरानी तमाम चीज़े हमारी
ये देखती है मुझको ..
ये जानती है सब
मशहूर हूँ मै बहुत
अपने घर की चारदीवारी में  ...
                                                श्रुति त्रिवेदी सिंह

1 comment:

  1. सब पहचानते हैं तुमको, रखती हो ख़याल तुम भी
    हर कोई तुम्हे चाहता, तुम मशहूर भी बहुत

    मुमकिन नहीं सिमटी रहे, चारदीवारी के भीतर
    पहुंचेगी तुम्हारी शोहरत, दूर भी बहुत

    नयी पुरानी हर चीज़, जानती है तुमको
    है मलाल इसी बात का, हमें कोई जानता नहीं

    मैं चीख चीख कर बोलूं, जब अपने नाम को
    सब देखते तो हैं, कोई पहचानता नहीं

    क्या बात करूँ मैं औरों की, पतलून भी मेरी
    दो तीन महीनों में, मुझको भूल जाती है

    ज़रा सी नाप क्या, बदली कमर की
    कसती शिकंजा, तकलीफ देती है, बेहद सताती है

    दस पांच कदम ज्य़ादा, रोज़ाना की सैर से
    गर आगे बढ़ जाऊं, तो जूते भूल जाते हैं

    पुचकारता हूँ प्यार से, 'मेरे काले घोड़ों '
    शिद्दत से काटते हैं, छाले फूल जाते हैं

    अपना हुआ न आँगन, न धूप-छाँव ही
    ना तो अपना कमरा, न चारदीवारी है

    पहचान को गुमनामी, औ गुमनामी को पहचान
    लगता है इस जनम में, यही किस्मत हमारी है

    नहीं चाहिए कोई शोहरत, ना जाने कोई मुझे
    पर एक दुआ खुदा मेरी, कबूल हो अभी

    अपने मेरे हो के रहें, और मैं अपनों का
    उन्हें पह्चानने में मुझसे, कोई भूल ना हो कभी

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