इस कविता में गुलज़ार की लिखी, कई सारी कविताओं की लाइन्स है ...कुल मिलाकर अजीब सी है ..गुलज़ार के लिए ही है ,वो पढेंगे नहीं कभी पर फिर भी ...
जगह नहीं अब डायरी में
और ऐशट्रे भी पूरी भर गयी
है
खयालो से, टूटी फूटी नज़मो
से
देकर ख्यालो को वजूद पहले
फिर ढूंढते फिरते हो उस
वजूद को
जो कभी ख्याल था..
क्या है ये ?
बुलाकर पहाड़ो में “वीकेंड्स”
पर
हिचकी हिचकी बारिश कराते हो
आसमानों की कनपट्टीयाँ
पकाकर
तारो को जम्हाइया दिलाकर
और वादियों को नज़ला भी
और क्या क्या करते हो ?बताओ
..
रखकर कार्बन पेपर तन्हाई के
नीचे
फिर ऊंची ऊंची आवाज़ में
बाते करते हो
की आवाज़ की शक्ल उतर आएगी
कितनी संजीदगी से जीते हो जिंदगी
!
कमाल हो आप, हो भी क्यों ना
गुलज़ार हो आप ...
और लिखते कैसा कैसा हो
टेढ़ा मेढ़ा ऊंचा नीचा,
नुकीला
और ऊँगली रख दे कोई गर
अपनी लिखी कविता पर
तो काटने को दौड़ते हो
कटते कटते बचती है ,हर बार
ऊँगली
हद तो तब पार हुई , बोली
हवा जब
फटी फटी झीनी झीनी आवाज़ में
बालिग़ होते लडको की तरह
सच तो ये है की अब तो गिलहरी भी
तुम्हे शक की नज़र से देखती
है
असीरी अच्छे लगती है ना
तुम्हे ?
लेकिन तुम हमें ....
bhaiyaa tumhare reply ka intzaar hai...zara jaldi karna
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