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Tuesday 18 February 2014

गुलज़ार ! क्या आप भी ....


इस कविता में गुलज़ार की लिखी, कई सारी कविताओं की लाइन्स है ...कुल मिलाकर अजीब सी है ..गुलज़ार के लिए ही है ,वो पढेंगे नहीं कभी पर फिर भी ...

             
जगह नहीं अब डायरी में
और ऐशट्रे भी पूरी भर गयी है
खयालो से, टूटी फूटी नज़मो से 
 देकर ख्यालो को वजूद पहले
फिर ढूंढते फिरते हो उस वजूद को
जो कभी ख्याल था..
क्या है ये ?
बुलाकर पहाड़ो में “वीकेंड्स” पर
 हिचकी हिचकी बारिश कराते हो
आसमानों की कनपट्टीयाँ पकाकर
तारो को जम्हाइया दिलाकर
और वादियों को नज़ला भी
और क्या क्या करते हो ?बताओ ..
रखकर कार्बन पेपर तन्हाई के नीचे
फिर ऊंची ऊंची आवाज़ में बाते करते हो
की आवाज़ की शक्ल उतर आएगी
कितनी संजीदगी से जीते हो जिंदगी !
कमाल हो आप, हो भी क्यों ना
गुलज़ार हो आप ...
और लिखते कैसा कैसा हो  
टेढ़ा मेढ़ा ऊंचा नीचा, नुकीला
और ऊँगली रख दे कोई गर 
अपनी  लिखी कविता पर
तो काटने को दौड़ते हो
कटते कटते बचती है ,हर बार ऊँगली
हद तो तब पार हुई , बोली हवा जब
फटी फटी झीनी झीनी आवाज़ में
बालिग़ होते लडको की तरह  
सच तो ये है की अब तो गिलहरी भी
तुम्हे शक की नज़र से देखती है
असीरी अच्छे लगती है ना तुम्हे ?
लेकिन तुम हमें ....
                                                                        श्रुति त्रिवेदी सिंह 
   


Monday 17 February 2014

गुज़रना जब तुम ...

कल एक कविता को पढ़कर एक कविता लिखने का मन किया , पहले तो कुछ अस्त व्यस्त लगी फिर ....

गुज़रना जब तुम ...

गुज़रोगे जब शहर से मेरे
गोमती को पार करके
एक पुराना पुल मिलेगा
उतर लेना उस पुल से फिर
आ पहुंचना गलियों में मेरी
वही जहां में रहती थी
दुकाने सभी ,पेड़ भी सारे
सब तुम्हे पहचान लेंगे
मिलना मेरा शायद ही हो
मै गुमशुदा हूँ कई दिनों से  


अच्छे लिबास में सज सवंर के यही कविता ऐसी हो गयी ....

गुजरोगे जब शहर से मेरे ....

गुज़रोगे जब शहर से मेरे
यादों के कुछ लिए सवेरे
सड़क रास्ते और तन्हाई
कत्थई आँखों सी शरमाई
फिर उभरेगा चेहरा एक
जिसके संग गुज़रे पल अनेक
क्या जानते हो मुझको? तंग कसेंगे
सीढ़ी पुल की भी पूछेगी
कहाँ हूँ मै ? ये प्रश्न करेगी
रहती नहीं हूँ अब मै वहाँ
खो गयी हूँ जाने कहाँ कहाँ 
बाहर भीतर और भी भीतर
मै गुमशुदा हूँ कई दिनों से 



Tuesday 11 February 2014

प्रेम एक कविता …




हुआ कुछ यूं कि , पूँछा किसी ने एक बार
खबर है कुछ ,कैसा होता है प्यार ?
           जवाब
असंभव की यात्रा , समुन्दर अपार
रेशम का धागा , तलवार की धार
कान्हा सा कोमल, शिव सा विकराल
समय से परे है , कालो का काल
ज़बानों की ज़बान , बेज़ुबानी में बयान
इल्मों का इल्म , हुनर का जाल
सूफ़ियों की मस्ती , मस्तानो की चाल
बादशाहों सी रौनक ,फकीरों सा हाल 
         और
दिलों की जंग , नज़रों का वार
हुकूमत जस्बातों की , दिमाग़ लाचार
जैसी तेरी सीरत , वैसा तेरा यार
जितनी तुझमे शिद्दत , उतना बरसे प्यार
          और
रक्स है , नशा है
करने से कब हुआ है
उसका ये इशारा
तू उसका हुआ है
वो तेरा हुआ है
तू उसका हुआ है

                    श्रुति त्रिवेदी सिंह

  



Sunday 9 February 2014

शुक्रिया

जिंदगी में शुक्रिया कहने के मौके कभी नहीं छोड़ने चाहिए , जब मन करें बस कह देना चाहिए ...आज भी कहना है शशांक प्रभाकर जी को ...वो एक अच्छे कवि भी है और उससे भी अच्छे इंसान ...
इस कविता का नाम है “मेरी फ़िक्र करो ना तुम “ और ये हमने आज सुबह लिखी है ...गुलज़ार की एक कविता से प्रभावित होकर ...

मेरी फ़िक्र करो ना तुम
मै तो हूँ बस ठीक ठाक
शोर नहीं है , मौन है भीतर
अब तो नहीं है मुझको डर
धूप छाँव सी भाग दौड़
मेरे बस की बात नहीं
मै हूँ मै हूँ बस मै हूँ
कोई मेरे साथ नहीं
मेरे जैसे “लॉन” की मेरी
घास अब तो  सूख गयी
प्यास कहीं अंदर मेरे
बिन पानी के टूट गयी 
दफना दिए है मैंने अब तो
सारे ख़ुशी और सारे गम

मेरी फ़िक्र करो न तुम 

                      श्रुति त्रिवेदी सिंह 

Saturday 8 February 2014

आँसू ...एक कविता




Tears, when they come… out of emptiness, vacuum, void,  carry more meaning , they express  “The zero zonewhich exists ,  beyond all pleasures and pains…I like this poem …

एक दुआँ,
उस ऊपरवाले से, कि 
जब तक भी ये सांस चले
मेरी रूह को आवाज़ मिले
तू रहम मुझपर बरसा देना
कहा नहीं जो अब तक कभी  
इन  आँखों से कहला  देना
आँसू बने ज़बान मेरी
तू जी भर के रुला देना       
एक और दुआँ है तुझसे मेरी  
वजह ना मुझसे पूंछे कोई 
बता नहीं मै पाउंगी
सुखदुःख से ऊपर कोई समझेगा नहीं
नीचे उससे, समझा नहीं मै पाउंगी  
आँसू ये मेरे ...
सुख के नहीं
 दुःख के नहीं
मेरी जिंदगी का पैगाम है
बेवजह , बेलगाम है
रिहाई की जो चाह है
उसका ये अंजाम है
 चैन है   ,करार है
दे दिया है जो तूने  
बस उसका इज़हार है
रोको मत इन्हें, बहने दो
मै खुश हूँ बहुत
मुझे रोने दो ...



                                     श्रुति त्रिवेदी सिंह 

Monday 27 January 2014

एक लव स्टोरी


                                                                                                                                                                     थोड़े दिनों पहले कुछ लिखा था जो कहानी से थोडा बड़ा था और उपन्यास से छोटा , इस वजह से  वो दोनों के बीच में ही अटक गया ..एक लव स्टोरी थी ..इस कहानी में तीन बड़े क़िरदार थे, "गौरी" उसका पति "राघवेन्द्र" और जिससे वो प्यार करती है, "विक्रमादित्य " गौरी चंचल है और विक्रमादित्य थोडा गंभीर.  इस पूरी लव स्टोरी का एक हिस्सा जो हमे बहुत पसंद है और जिसको लिखने में भी बड़ा मज़ा आया था , वो आज अपने ब्लॉग में डाल रहे है ...यहाँ पर गौरी के पूछने पर , विक्रमादित्य उसे प्यार के बारे में बताता है , जितना भी वो जानता है ...पढ़िए ..                                              


“उस दिन आप  प्यार के बारे में बता रहे थे , क्या होता है ये "प्यार" कैसे होता है , थोडा और बताएँगे ?”
“ ज़्यादा तो मै भी नहीं जानता पर जो भी पता है वोह ज़रूर बताऊंगा कम से कम कोशिश तो करूँगा ही  और विक्रमादित्य कहने लगता है “ प्यार को समझना आसान भी है और मुश्किल भी , ये एकदम खामोश भी हो सकता है , बस चुपचाप जो सुनता रहे , समझता रहे , जानता रहे , देखता रहे, महसूस करता रहे सबकुछ, पर रहे हमेशा खामोश, मौन में जी सकता है ये  मेरी तरह , और ये बोल भी सकता है , गा भी सकता , नाच भी सकता है झूम भी सकता है , हँसता भी है खिलखिलाता भी है , आपकी तरह. ये वो  होश भी है की जो जन्मो जन्मो की नींद से जगा दे सोते हुए इंसान को , जगा दे फिर ऐसा की रौशनी के सिवा कुछ दिखाई ही न दे , और ये वो नशा भी है जो सुला दे ऐसे की होश भी बेहोश हो जाए ,और फिर कभी होश में ना आये  , ये बड़ा मज़बूत रिश्ता भी है और रिश्तों से मुक्ति भी ये बिना बांधे भी बाँध ले और बाँध कर भी बाँध न पाए , प्यार को दूरियों से कुछ लेना देना नहीं  , प्यार किसी दरिया की तरह है जो बस बहना जानता है, किसी झील  की तरह नहीं की जो किनारों से बंधा हो पर किसी समुन्दर् की तरह भी नहीं  ,की जिसका कोई किनारा ही न हो, ये कोई फूल नहीं की जिसे छू सके ,तोड़ सके या जो मुरझा जाए , ये तो किसी खुशबू की तरह है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता , तोडा नहीं जा सकता ,और कभी मुरझाता भी नहीं , ये खुशबू तो है पर किसी खुशबू की पहचान नहीं आज़ाद है ये हर एक पहचान से , हर एक नाम से , प्यार तो किसी छोटे बच्चे की तरह है जो लड़ता है झगड़ता ,है सीढियां चढ़ता है उतरता है पर रहता है जिंदा हमेशा , ये कभी थकता नहीं , कभी बूढ़ा भी  नहीं होता कभी मरता भी नहीं. ये रंग है इतना पक्का की  चढ़ जाये तो उतरता ही नहीं , न फीका पड़ता है न हल्का होता है लाख धूप और बारिश होती रहे पर कोई दाग नहीं पड़ता कोई धब्बा नहीं दीखता  ,ये तो बस  गहरा होना जानता है ये किसी शायर के जैसे भी हो सकता है उदास , ग़मगीन, बोझिल पर ये उसी शायर की लिखी कोई ग़ज़ल भी हो  सकता है, ताज़ी और दिलकश जिसे सुनकर नसों में बहता खून , खुदा बन जाए और जिससे इबादत की खुशबू भी आये . विक्रमादित्य बस बोलता जा रहा था और गौरी बिना पलक झपकाए ख़ामोशी से  सब सुनती जा रही थी. वो आगे कहता है , ये कोई शंका नहीं ,सवाल नहीं , सोच नहीं , विचार नहीं ,कोई अवधारणा नहीं कोई नियम भी नहीं , उलझन भी नहीं , कोई प्रश्न भी नहीं बस ... एक उत्तर है सिर्फ एक उत्तर है , जो हर बार और हमेशा नया होता है ,अलग अलग तरीके से , अलग अलग में अभिव्यक्त होता है , ये हर जुबां समझता है और खुद कोई जुबां नहीं बोलता ,ये अँधा होता है ,प्यार सच में अँधा होता है  जो देखता नहीं कुछ भी , न मंदिर न मज्जिद ,न उमर , न समाज ,न रस्म न रिवाज़ ,ये तो बस होना जानता है ,ये  या तो है या फिर नहीं, कितना है  और कैसा है  , जैसा कुछ भी नहीं होता इसमें  और अगर हो जाए तो वापसी का कोई ज़रिया भी नहीं , बस आगे बढ़ना जानता है , पर प्यार करना सबके बस की बात नहीं ये वोही कर सकता जो सब कुछ गवाने के लिए तैयार हो , ये सौदा नहीं कोई लेन देन भी नहीं की जितना दिया उतना मिले ये तो देते ही मिल जाता है प्यार करते करते पूरी कायनात से प्यार हो जाता है , इंसान जो प्यार में होता है कोयले से कोहिनूर बनता जाता है.  पर रुकना भी पड़ता है इसे   कभी कभी , थमता भी ये है , मजबूर हो जब तो कुछ भी करता है ये ,जन्मो जन्मो का इंतज़ार भी है या फिर एक ही जन्म काफी है , ये जिस्मो की जलती  आग नहीं है  ये तो दो रूहों के मिलन का कुंदन है , इसको समझना आसान भी है और मुश्किल भी ,कैसा होता है ये प्यार ठीक से तो मै भी नहीं जानता पर कुछ कुछ मेरे जैसा होता है , कुछ कुछ आपके जैसा होता है “ 


Tuesday 14 January 2014

ये शाम ...

पहाड़ों के पीछे , ढ़लान के पास
एक किनारे पर , “शाम” का घर है
हर रोज़ उतर कर आती है पहाड़ों से
मिलती ज़रूर होगी , सूरज से ... रास्तें में
दुआं सलाम करके ,बातों ही बातों में
सुनहरे पीलें रंग मांग भी लेती होगी ,उससे  
और वो हस के दे भी देता होगा
रंग भरकर निकलती होगी आगे फिर
रात भी मिलती होगी राहों में आगे
सितारों की झिलमिल
बिन मांगे ही मिल जाती होगी
मोहब्बत करती है ये , दोनों से शायद ...
दिन को छोड़ नहीं पाती
रात को रोकना नामुमकिन  
फ़ना हो जाती है , दोनों के बीच में
पर अपनी मोहब्बत का जादू  
छोड़ जाती है पूरे आसमान में
कभी शुक्रियां बनकर आती है
तो कभी हौंसला
पूरे दिन का इनाम होती है
ये शाम ...
हर रोज़ शाम को आती है
अब जब आये
ज़रा गौर से देखना ...

                      shruti