Search This Blog

Monday 27 January 2014

एक लव स्टोरी


                                                                                                                                                                     थोड़े दिनों पहले कुछ लिखा था जो कहानी से थोडा बड़ा था और उपन्यास से छोटा , इस वजह से  वो दोनों के बीच में ही अटक गया ..एक लव स्टोरी थी ..इस कहानी में तीन बड़े क़िरदार थे, "गौरी" उसका पति "राघवेन्द्र" और जिससे वो प्यार करती है, "विक्रमादित्य " गौरी चंचल है और विक्रमादित्य थोडा गंभीर.  इस पूरी लव स्टोरी का एक हिस्सा जो हमे बहुत पसंद है और जिसको लिखने में भी बड़ा मज़ा आया था , वो आज अपने ब्लॉग में डाल रहे है ...यहाँ पर गौरी के पूछने पर , विक्रमादित्य उसे प्यार के बारे में बताता है , जितना भी वो जानता है ...पढ़िए ..                                              


“उस दिन आप  प्यार के बारे में बता रहे थे , क्या होता है ये "प्यार" कैसे होता है , थोडा और बताएँगे ?”
“ ज़्यादा तो मै भी नहीं जानता पर जो भी पता है वोह ज़रूर बताऊंगा कम से कम कोशिश तो करूँगा ही  और विक्रमादित्य कहने लगता है “ प्यार को समझना आसान भी है और मुश्किल भी , ये एकदम खामोश भी हो सकता है , बस चुपचाप जो सुनता रहे , समझता रहे , जानता रहे , देखता रहे, महसूस करता रहे सबकुछ, पर रहे हमेशा खामोश, मौन में जी सकता है ये  मेरी तरह , और ये बोल भी सकता है , गा भी सकता , नाच भी सकता है झूम भी सकता है , हँसता भी है खिलखिलाता भी है , आपकी तरह. ये वो  होश भी है की जो जन्मो जन्मो की नींद से जगा दे सोते हुए इंसान को , जगा दे फिर ऐसा की रौशनी के सिवा कुछ दिखाई ही न दे , और ये वो नशा भी है जो सुला दे ऐसे की होश भी बेहोश हो जाए ,और फिर कभी होश में ना आये  , ये बड़ा मज़बूत रिश्ता भी है और रिश्तों से मुक्ति भी ये बिना बांधे भी बाँध ले और बाँध कर भी बाँध न पाए , प्यार को दूरियों से कुछ लेना देना नहीं  , प्यार किसी दरिया की तरह है जो बस बहना जानता है, किसी झील  की तरह नहीं की जो किनारों से बंधा हो पर किसी समुन्दर् की तरह भी नहीं  ,की जिसका कोई किनारा ही न हो, ये कोई फूल नहीं की जिसे छू सके ,तोड़ सके या जो मुरझा जाए , ये तो किसी खुशबू की तरह है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता , तोडा नहीं जा सकता ,और कभी मुरझाता भी नहीं , ये खुशबू तो है पर किसी खुशबू की पहचान नहीं आज़ाद है ये हर एक पहचान से , हर एक नाम से , प्यार तो किसी छोटे बच्चे की तरह है जो लड़ता है झगड़ता ,है सीढियां चढ़ता है उतरता है पर रहता है जिंदा हमेशा , ये कभी थकता नहीं , कभी बूढ़ा भी  नहीं होता कभी मरता भी नहीं. ये रंग है इतना पक्का की  चढ़ जाये तो उतरता ही नहीं , न फीका पड़ता है न हल्का होता है लाख धूप और बारिश होती रहे पर कोई दाग नहीं पड़ता कोई धब्बा नहीं दीखता  ,ये तो बस  गहरा होना जानता है ये किसी शायर के जैसे भी हो सकता है उदास , ग़मगीन, बोझिल पर ये उसी शायर की लिखी कोई ग़ज़ल भी हो  सकता है, ताज़ी और दिलकश जिसे सुनकर नसों में बहता खून , खुदा बन जाए और जिससे इबादत की खुशबू भी आये . विक्रमादित्य बस बोलता जा रहा था और गौरी बिना पलक झपकाए ख़ामोशी से  सब सुनती जा रही थी. वो आगे कहता है , ये कोई शंका नहीं ,सवाल नहीं , सोच नहीं , विचार नहीं ,कोई अवधारणा नहीं कोई नियम भी नहीं , उलझन भी नहीं , कोई प्रश्न भी नहीं बस ... एक उत्तर है सिर्फ एक उत्तर है , जो हर बार और हमेशा नया होता है ,अलग अलग तरीके से , अलग अलग में अभिव्यक्त होता है , ये हर जुबां समझता है और खुद कोई जुबां नहीं बोलता ,ये अँधा होता है ,प्यार सच में अँधा होता है  जो देखता नहीं कुछ भी , न मंदिर न मज्जिद ,न उमर , न समाज ,न रस्म न रिवाज़ ,ये तो बस होना जानता है ,ये  या तो है या फिर नहीं, कितना है  और कैसा है  , जैसा कुछ भी नहीं होता इसमें  और अगर हो जाए तो वापसी का कोई ज़रिया भी नहीं , बस आगे बढ़ना जानता है , पर प्यार करना सबके बस की बात नहीं ये वोही कर सकता जो सब कुछ गवाने के लिए तैयार हो , ये सौदा नहीं कोई लेन देन भी नहीं की जितना दिया उतना मिले ये तो देते ही मिल जाता है प्यार करते करते पूरी कायनात से प्यार हो जाता है , इंसान जो प्यार में होता है कोयले से कोहिनूर बनता जाता है.  पर रुकना भी पड़ता है इसे   कभी कभी , थमता भी ये है , मजबूर हो जब तो कुछ भी करता है ये ,जन्मो जन्मो का इंतज़ार भी है या फिर एक ही जन्म काफी है , ये जिस्मो की जलती  आग नहीं है  ये तो दो रूहों के मिलन का कुंदन है , इसको समझना आसान भी है और मुश्किल भी ,कैसा होता है ये प्यार ठीक से तो मै भी नहीं जानता पर कुछ कुछ मेरे जैसा होता है , कुछ कुछ आपके जैसा होता है “ 


Tuesday 14 January 2014

ये शाम ...

पहाड़ों के पीछे , ढ़लान के पास
एक किनारे पर , “शाम” का घर है
हर रोज़ उतर कर आती है पहाड़ों से
मिलती ज़रूर होगी , सूरज से ... रास्तें में
दुआं सलाम करके ,बातों ही बातों में
सुनहरे पीलें रंग मांग भी लेती होगी ,उससे  
और वो हस के दे भी देता होगा
रंग भरकर निकलती होगी आगे फिर
रात भी मिलती होगी राहों में आगे
सितारों की झिलमिल
बिन मांगे ही मिल जाती होगी
मोहब्बत करती है ये , दोनों से शायद ...
दिन को छोड़ नहीं पाती
रात को रोकना नामुमकिन  
फ़ना हो जाती है , दोनों के बीच में
पर अपनी मोहब्बत का जादू  
छोड़ जाती है पूरे आसमान में
कभी शुक्रियां बनकर आती है
तो कभी हौंसला
पूरे दिन का इनाम होती है
ये शाम ...
हर रोज़ शाम को आती है
अब जब आये
ज़रा गौर से देखना ...

                      shruti

Friday 3 January 2014

मैं एक कहानी हूँ ...


मैं  एक कहानी हूँ ... ठीक ठीक तो नहीं कह सकता पर एक बुलबुला जैसा था, पानी का नहीं सिर्फ रौशनी का ,रौशनी के बारें में कुछ भी बता पाना मुमकिन ही नहीं बस इतना ही कह सकते है की कुछ ऐसी रौशनी जो पहले कभी कही ना देखी गयी हो, सोची भी ना गयी हो, जो सूरज जैसी चमकती हो पर चाँद जैसी शांत हो जिसको देर तक देख सके, और  जिसको लगातार देखने से भी आँखें ना दुखे ,ऐसी ही रौशनी के कुछ बुलबुले अपनी पसंद से कुछ और बुलबुलों के साथ आपस में  मिल जाते थे एक गुच्छे में , फिर इधर उधर पूरे कायनात में तैरा करते थे , उड़ा करते थे  जिस्मों के कोई वज़न नहीं होते वहाँ और भावनाओं के वजूद भी नहीं, बातें बिना कहे ही हो जाती थी  ,और सिर्फ एक ही एहसास था ,उड़ान का, परवाज़ का, आज़ादी का ,जब दिल करता था तो हम रूहें लंबी नींदों में चली जाया करती थी ,नींद भर सोने के बाद, मर्ज़ी से गर वापसी करनी हो तो उस लंबी काली सुरंग को पार करके नीचे आना पड़ता है ,ज़्यादातर रूहें दोबारा भी अपनी सरज़मीं के आस पास ही आना पसंद करती थी और मैंने भी वैसा हीं किया. यूं तो हम अपनी मर्ज़ी से अपनी माँ के आस पास थोडा पहले से भी टहलना शुरू कर देते है पर हममे से कुछ गर्भ के दौरान ही आते है, पर मैंने तो अपनी पसंद के माँ पापा चुने थे उनके घर में चुपचाप जाकर रहने लगा था , कुछ दिनों बाद ही माँ जान पाई थी मै उनका होने वाला हूँ और उनके पास आ चूका हूँ . माँ की हंसी बहुत अच्छी है और पापा मेरे, बोलते वक़्त एक होंठ तिरछा कर लेते है और बात बात पर ताली बजाते है तब और भी प्यारे लगते है ,ये घर भी अच्छा है खुला खुला सा है , इसीलिए यहाँ आया हूँ ...
पिछली बार क्या हुआ था याद है, मुझे लिवाने मेरी दादी आई थी फिर मुझे लेकर निकल गयी थी बड़े ऊपर , पहले हमने वो गहरी काली सुरंग पार की थी उसके ख़तम होते ही नूर की तो जैसे बरसात ही शुरू हो गयी थी , दूधियाँ एकदम  उजली, पिघले पारे जैसी रौशनी थी हर कहीं ,उसको अब भी बता नहीं पा रहा हूँ मै ,वो कैसी जगह थी खुशी और गम इन सबसे बहुत ऊपर   ,वहाँ कई दिनों तक रहा , रहने के बाद अब वापिस आया हूँ धरती पर , और फिर से उन नौ महीनो की यात्रा शुरू हो चुकी है मेरी , आजकल माँ के अन्दर ही दुबका पड़ा रहता हूँ मेरा जिस्म बनने लगा है और दिल में धड़कन भी आ गयी है ,पर पेट में पड़ें पड़ें अब भी याद  भी किया करता हूँ अपनी  उस दुनिया को , उन रूहों को, उस रौशनी को, उस आजादी को भी .
कुछ दिनों की बात है फिर बाहर भी आ जाऊंगा , और वैसे भी ज़ोर शोर से तैयारियां चल रही है , मोज़ो से लेकर टोपो तक कुछ बचा नहीं है , गाडी झूला गद्दे तकिये बोतल खिलोने सब आ चूके  है बस मुझे ही आना बाकी है , आते ही उलझ जाऊंगा इन सब में, इतना सख्त इंतज़ाम है जो है मुझे गुमराह करने का ,धीरे धीरे करके सब भूलता जाऊँगा , वो सब जो याद है अभी तो मै सब कुछ देख  सकता हूँ उस खुदा को भी उसके नूर को भी , जिंदगी को भी मौत को भी उन रूहों को भी जो हमे मरते वक़्त लेने आती है कभी कभी कुछ चेहरे पहनकर कभी तो सिर्फ एहसास बनकर ,पर वक़्त के साथ ये सब मेरे अंदर ही दफ़न होता जाएगा और वक़्त की आंधी इन्हें धूल की सौ परतें के भीतर जमा देगी , मै भूल जाऊंगा ये सारे राज़ ,पर मै भूलना नहीं चाहता और कोशिश ज़रूर करूँगा याद रखने की.
पर करूँ भी तो क्या ? ये तो हमेशा से होते आया है , और आगे भी होता रहेगा , मै चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता , और अब मै बन चूका हूँ, आँखें मेरी , बाल मेरे, नाख़ून भी आ गए है ,सभी पुर्ज़े तैयार है अब मुझे जाना होगा , बड़े ज़ोर का झटका लगता है इस दुनिया में कदम रखते ही ,ये झटका , मौत के झटके से भी कहीं ज़्यादा होता है .
कल पूरी रात तंग किया माँ को ,आज मै अस्पताल में हूँ ... और अब बाहर , अभी तो जिस्म का कोई एहसास नहीं है मुझे , सर्दी गर्मी भी नहीं लगती , बस कुछ ही समय में सब शुरू हो जाएगा, तीन चार दिनों में अपने घर और फिर वहीँ सब , जो हर जनम में होते आया है , भूलने भुलवाने का रिवाज़ जारी रहेगा ,मगर  मै खुश हूँ ,माँ हंस रही है और पापा भी , मेरी आँखें तो बंद है पर सुन सकता हूँ , माँ की गोंदी का एहसास है और भूंख ने भी हाथ पाँव पटकना शुरू कर दिया है , आस पास की आवाजों ने शान्ति व्यवस्था भंग कर रखी है. सोते जागते वक़्त मेरा हसता रोता चेहरा देखकर घर वाले हैरान है , कोई सपना होगा , चौंका होगा , भगवान् जी आये होंगे , कुछ भी कहते रहते है , हकीक़त तो ये है , मै अभी बीच में हूँ आ गया हूँ यहाँ , पर वहाँ भी हूँ जहां से आया हूँ , अभी कुछ और वक़्त तक चलेगी ये कश्मकश ....
पिछले कई दिनों से अपने घर में हूँ , कुछ महीनो  का हो चूका हूँ , पर याददाश्त अभी तक सलामत है , नूर और नूरानी , रूह और रूहानी सभी बातें ज़हन में है. मरी सेवा में सब कोई लगा रहता है और मै अपनी यादों में खोया रहता हूँ , दिल नहीं लगता अभी मेरा , पर क्यूकी “गु गु गा गा “ शुरू हो चुकी है मेरी तो सबका दिल बहलाने लगा हूँ , महीनो पर महीने चढ़ते जा रहे है और मै दिन पे दिन दुनियाबी होता जा रहा हूँ , मेरी चंचलता देखने लायक है , आस पास मोहल्ले वाले भी आ जाते है , मुझे देखकर अजीब अजीब सी हरकतें करते है , मै उनकी हालत देखकर हसता हूँ वो कुछ और ही समझ बैठते है और लगे रहते है बड़ी देर तलक ... मेरी बहन मुझे प्यारी लगती है , मुझसे ज़्यादा बड़ी नहीं , पर माँ उन्हें मेरे पास अकेले आने नहीं देती , डरती है कहीं वो मुझे कोई तकलीफ न दे दे क्युकी अभी वो भी छोटी है मेरे आने के बाद नुक्सान सिर्फ उन्ही का हुआ है , उनके लाड़ में कमी आ गयी है , पर वो मुझे सच में प्यार करती है , मै जानता हूँ , पर ये सब नहीं समझते क्यूकी ये बहुत बड़े हो गए है उस पर शक करते है .  एक दिन की बात है वो सब से छुपते छुपाते आई थी मेरे कमरें में जब मै सोया था , जगाकर बोली ,” ओ भैया उठ ना , बता ना ,वो ऊपरवाला अब कैसा दिखता है , क्यूकी अब मै भूलने लगी हूँ पर तुम्हे तो याद होगा हैना , तो फिर बताओ न ?”
बात असल में यह है की मेरी आँखों में अभी चमक है और चालाकी मैंने अभी सीखी नहीं, वजह यहीं है की मै अभी तक ऊपरवाले  की निगरानी में ही चल रहा हूँ, उसके साया मुझ पर अब तक है क्युकी मै अभी बच्चा हूँ , भोला हूँ , सादा हूँ सीधा हूँ , हसंता हूँ तो रोता भी हूँ पूरी शिद्दत से ,भूंख लगती है तो मांग लेता हूँ अपने तरीके से कोई शर्म नहीं , झूठ नहीं बोल पाता  अभी , लालच भी नहीं आता , क्या पहना है क्या नहीं कोई फ़रक नहीं ,कुछ भी पहनाओगे तो ठीक है , नहीं पहनाओगे तो भी ठीक है , कहाँ जाना है,कहाँ नहीं , कही भी चल दूंगा  ,जो भी नाम दे दोगे ले लूंगा, जो धर्म ज़ात पहना दोगे वो भी पहन लूंगा..
 क्यूकी मै बच्चा हूँ. पर बहुत जल्द मै बदलने वाला हूँ , बड़ा हो जाऊँगा , सब गुन सिख जाऊँगा और भूल भी जाऊँगा वो सब जो याद है मुझे अब तक , की मै उसका हिस्सा हूँ , उसकी रौशनी हूँ ,  ,वो रौशनी कहीं जा नहीं सकती है रहेगी तो मुझमे ही, बस उमर की चादर से  ढँक जायेगी , जिंदगी ,समय का दुशाला ओढ़ कर मेरे बचपन को ,इस रौशनी को कहीं बहुत पीछे फेंक देगी . और मै लाख सर पटक लू , तो भी उस रौशनी को  देख नहीं पाऊंगा ,पर मैंने सुना है की अगर पूरी लगन से कोई इसे दुबारा देखना चाहे उमर के किसी भी पड़ाव पर , तो ऐसा हो भी सकता है ..
पर वक़्त तो आंधी से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ता है , मै बड़ा हो गया हूँ , अब मुझे कुछ याद भी नहीं , जिंदगी के समुन्दर में आती जाती लहरों के थपेड़ो ने मुझे सभी इल्म सिखा दिए है , उलझ के रह गया हूँ किसी उन के गोले की तरह ,पर जब बहुत थक जाता हूँ तो समुन्दर की ऊपरी लहरों से बचकर उसकी गहराई में जाकर कुछ वक़्त को पनाह ले लेता हूँ , पर लाख  कोशिश करने पर भी मुझे याद कुछ भी नहीं आता , अपनी छोटी सी बच्ची की आँखों में भी झाँका करता हूँ , शायद कोई सुराग  मिल जाए पर कभी कुछ मिला नहीं उसके टूटे फूटे शब्दों में कुछ अर्थ मिल जाए , कहीं तो कोई बात बन जाए , पर कुछ हुआ हीं नहीं , घर दफ्तर बस इन्ही का हो के रह गया हूँ .जब से होश संभाला है या होश गवायाँ है बस जिंदगानी की हर एक ख्वाहिश को पूरा करता आया हूँ ,  इस कोशिश में की शायद मुझे वो मिल जाए जो अब तक नहीं मिला , बच्चे से बड़ा हो गया पर दिल में एक खाना ख़ाली था , फिर शादी बच्चे सब हुआ पर तब भी वो खाना खाली ही था , कुछ चाहिए था मुझे शुरू से ,एक तृप्ति की चाहत की थी, पर वो कहीं मिली नहीं .   
मगर अब सावन भादव सब देख चूका हूँ और पतझड़ के दिन भी आ गए है , और बढती उमर में अपनो के बीच बड़ा अच्छा लगता है , सुकून तो है पर एक खोज भी पता नहीं किस चीज़ की और एक दिन यू हीं ,अचानक रात में सोते वक़्त , दिल में कुछ घबराहट और फिर से वही सुरंग , फिर से वही बुलबुला , पहुँच गया वही पर , जहां पर एक ही एहसास है , उड़ान का , परवाज़ का , आज़ादी का .....


     

                                                   श्रुति त्रिवेदी सिंह 

Wednesday 25 December 2013

वक़्त ...


जो कुछ भी करा दे
सभी के सर झुका दे
मिटा दे , बना दे
भुला दे , उनको
जो दिल का टुकड़ा होते थे कभी
या पूरा पूरा दिल , कहना मुश्किल है
कितने साल हो गए माँ को गुज़रे
जिंदगी फिर भी रफ़्तार से आगे बढ़ी
वक़्त के काँधे पर हाथ रखकर
आख़िरकार ,भुला दिया वक़्त ने उन्हें भी
कुछ धुंधली सी तस्वीर बची है  
पर आज कई दिनों बाद ...
वो कुछ थका हारा सा बैठा है, एक कोने
और जिंदगी के सफ़ेद कैनवस पर
एक शक्ल उभर आई है
जो पूँछ रही है मुझसे
ठीक तो हो तुम ?
                       श्रुति 

ये कोहरे वाली सुबह

कितनी अच्छी लगती है
ये कोहरे वाली सुबह
लगता है , कोई कविता लिखवायेगी
सुबह सुबह जब आँख खुली
तो सुबह कही ना थी
बस कोहरा ही कोहरा
कोहरा  ही कोहरा
घाना कोहरा छाया था
मगर शीशे से चिपकी
ओंस की बूँद से , सुबह ने
संदेसा ज़रूर भिजवाया था
“ सूरज के साथ दुबकी पड़ी हूँ
आज ठंड बहुत है

मै ज़रा देर से आउंगी”


                            श्रुति 

Friday 20 December 2013

मजलिस

                               

हुआ कुछ यूं की, एक ऐलान किया गया , यहाँ ज़मीन पर नहीं कहीं और , की फलां दिन फलां वक़्त पर एक मजलिस का इंतज़ाम है तमाम दुआओं से शिरकत की गुज़ारिश की है , फिर दुआओं की चली मजलिस आसमान में ,जिसकी पूरी ज़िम्मेदारी कायनात के कंधों पर थी , कायनात खासा परेशान थी, वजह साफ़ थी , दुआओं का उमड़ता हुजूम देखकर उसके तो हाथ पाँव ढीले हो गए , पर हिम्मत ना हारी उसने , इंतज़ाम पुख्ता किये सभी . एक और फिकर भी उसे सताए जा रही थी की आखिरकार इन दुआओं की मज़लिस चलाएगा कौन ? सुनवाई करेगा कौन ? ये तो सिर्फ उपरवाला ही कर सकता है , ये तो भेजी ही गयी थी उसके लिए  , मतलब खुदा के लिए , ईश्वर के लिए , मसीहा के लिए और भी बहुत सारे नाम होते है , ज़मीनो पर तरह तरह के अपने मन से लोग बाग़ रख लेते है , पर ऊपर जाकर सब एक हो जाते है, अल्लाह मौला राम कृष्णा एक हो जाते है  “ऊपर वाला “ बन जाते है . तो फिर बात आगे बढ़ी , कायनात ने भेजा तार ऊपरवाले  को,  और बताया की माजरा क्या है , तार पढ़कर ऊपरवाले ने कहा उस फ़रिश्ते से जो लेकर आया था तार “ कमाल है ! ये कायनात भी अजीब चीज़ है ,जानती है उलझा हूँ मै , और भी कामों में और इसी के तो काम कर रहा हूँ , कितनी रूहों को जिस्म देना बाकी है , कितने सय्यारों पर नज़र रखनी है , बादलो के शहर जाना है, बारिशों का हिसाब किताब देखना है, नयी ज़मीनों की तलाश करनी है , भीड़ बहुत हो गयी मौजौद जगहों पर , दरख्तों की नयी किस्में बनानी है , और इस कायनात ने बिना मुझसे पूछे ही दुआओं की मजलिस लगा दी , बता देना उससे , वक़्त मिला गर तो कल दोपहर तक आता हूँ वरना फिर और कभी “
   बड़े बड़े ज़ोर ज़ोर की आवाजें आ रही थी , धक्का मुक्की मची पड़ी थी , कदम रखने को भी जगह  न थी, कुर्सी की जंग यहाँ भी मौजूद थी , एक के ऊपर एक चढ़ी पड़ी थी दुआएं , कोहनियाँ  रगड़ रगड़ कर जगह बना रही थी , जाने कहाँ कहां से आई थी , हिन्दुस्तान से , पाकिस्तान से , ढाका से , इरान से , फीजी  से , तुर्क से , अमरीका से , रोम से  और भी बहुत जगहों से, दुनिया की सभी जगहों से , जहां जहां भी जिंदगी बसर है वहाँ वहाँ से आई थी ये बेशुमार दुआएं . सब की  सब बैठी थी , आँखों में उसी का इंतज़ार लिए , वो कब आयेगा , कब आएगा , मन्नते , मुरादें दुआएं सब एक दुसरे का मुह देखती तो कभी घड़ी , तभी संदेसा आता है, की ऊपरवाला नूर के पर्दों से निकल चूका है रास्तें मे है साथ में कुछ तारें और प्लूटो भी आ रहे है . तब तक शांती बरकरार रखी जाए ...
कुछ ही देर में ऊपरवाला आ पहुँचता है, बैठ जाता है अपने तख्त पर जलवा नशीं होता है . किसी अज़ीमोशान शेहेंशाह की तरह , नूर की बरसात करने वाला , खुद भी लबरेज़ था ,नूर से , मोहब्बत से, रहम से .
 “गुफ्तगू शुरू की जाए “ फ़रिश्ते सभी दुआओं को एक एक करके भेजने लगते है ,
सबसे पहले , पहली दुआ पेश की जाती है , वो खड़ी हो जाती है “ हुज़ूर मै अमरीका की सर ज़मीन से भेजी गयी हूँ , एक माँ की दुआं हूँ , जिसका बेटा वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के धमाकों में मारा गया था , उसकी रूह को सुकून मिले बस इसीलिए भेजी गयी हूँ ,पिछले कई सालों से यही भटक रही हूँ ,हर रोज़ भेजी जाती हूँ “
ह्म्म्मम्म , तो यह बात है , फ़रिश्ते , “इस दुआ को भेजने वाले के पास हमारा संदेसा भिजवाओ कहो इस माँ से , की बेटे की रूह की फिकर ना करे , रूह तो हमेशा ही सुकून से रहती है , बेचैन तो जिस्म हुआ करते है रूहे नहीं , एक बार जिस्म के कुण्डी तालें तोड़कर बाहर निकली रूह , तो फिर  सुकून ही सुकून है , जिंदगी मौत के इल्म को नहीं जानती है वो , फिकरमंद न होए, सेहत का ध्यान रखे और ख़ुश रहें  “ जी हुज़ूर “
तभी एक दुआं बिना नंबर के ही आगे आ गयी , और कहने लगी हुज़ूर मै नंबर का इंतज़ार नहीं कर सकती , नवा महीना चल रहा है उसका, जिसकी मै मन्नत हूँ , दो बेटियाँ पहले ही है अब कुछ तो दया दिखाइए एक बेटे की तमन्ना है , पूरा खानदान एक ही उम्मीद लगाकर दिन रात मुझे भेजा करता है . ऊपरवाला ने पूरी बात सुनी और कहा “ ऐ फ़रिश्ते , इस दुआ को दुआओं के कब्रिस्तान में दफ़न किया जाए अभी इसी वक़्त और ये भी ध्यान रखा जाये आगे से ये खानदान बिना औलादों के ही रहें , ये इस लायक ही नहीं की इन्हें बेटियाँ दी जाये , उस दुआ को लेकर फ़रिश्ते कब्रिस्तान की तरफ चल पड़ते है  
अब दूसरी दुआं को पेश किया जाए , तभी दूसरी दुआ सकुचाई सी खड़ी हो जाती है  “ हुज़ूर , फिलिस्तीन की सरज़मीन से आई हूँ, मै एक पत्नी की मुराद हूँ , नहीं चाहती की मेरा पति सेना में जाए और मारा जाए , आजादी मिले की न मिले पर वो जिंदा रहने चाहिए ज़रूर ,” अच्छा ! सब दुआये चुप  हो जाती है जब वो बोलता है “ बात यहाँ पर ना तो सेना में जाने की है ना ही आज़ादी की , बात है जज़्बे को जीने की , और ऐसा ही होना चाहिए  , बिना जज़्बे के जीना भी कोई जीना है जाओ कह दो उस पत्नी से क्या चाहती है वो , हमेशा अपने पास रखकर जिंदा  मारेगी अपने पति को  या जीने देगी उसे अपनी मौत तक , और फिर कल किसने देखा है की जोशीला कडियल सही सलामत वापिस आ जाए जंग के मैदान से  “पर उफ़ ये जंग , आखिर क्यूँ ,  ऊपरवाला दुखी  दिख रहा था.
वक़्त कम है दुआएं ज़रा जल्दी जल्दी भेजी जाए तुरंत ही तीसरी दुआ को पेश किया जाता है ,” साहेब, मै हिन्दुस्तान के जबलपुर से आई हूँ , एक प्रेमी  की मन्नत  हूँ, तड़पता है जो दिन रात अपनी प्रेमिका से मिलने के लिए पर ये ज़ालिम ज़माना दोनों के प्यार का विरोधी है  , रो रो के रोज़ भेजता है मुझे इधर से ये उधर से वो उसकी प्रेमिका  , दोनों की एक ही दुआ है मिलन की दोनों की तरफ से मै अकेली ही आई हूँ “
“ ये प्रेमी कहा हुए , किसने इन्हें प्रेमी का दर्ज़ा दे दिया , प्रेमी वो नहीं होते जो मिलन के लिए तड़पते हुए रो रो कर अपनी जान दे दे , और किस मिलन की बात कर रहे है ये , मिलन तो प्रेम होते ही हो जाता है , प्रेम का तो पूरा मतलब ही मिलना है , दो आत्माओं का मिलन , दो दिलो का भी , दो सपनो का , भावनाओं का , और कौन सा मिलन बचता है , गर बचता है तो वो सिर्फ एक हिस्सा है प्रेम का , पूरा प्रेम नहीं , और जिसके बगैर भी प्रेम जीता है और फलता ,फूलता है , और फिर बिना दर्द के भी कोई प्रेम होता है क्या ? जुदाई का मज़ा नहीं लिया क्या दोनों ने , कह देना दोनों से , गर प्रेम होगा , खुद बा खुद अपनी जगह बना लेगा, महफूज़ कर लेगा खुद को इनके  आसुओं में या हँसी में “    
मज़लिस चलती जा रही थी , फ़रिश्ते दौड़ दौड़ कर एक के बाद एक दुआओं को पेश किये जा रहे थे और ऊपरवाला बिना रोक टोक अपने फैसले सुनाये जा रहा था . अगली फ़रियाद सामने आ चुकी थी , हुज़ूर मै भी हिन्दुस्तान से हूँ और एक बेटे की दुआ हूँ जो चाहता है की उसके बाप की पूरी संपत्ति उसी को मिले जबकि  बाकी तीन भाइयों के हाथ कुछ भी ना लगे , “ह्म्म्म ये माजरा है, औरगज़ेब के खानदान से है क्या ? ,वो थोडा गुस्से में बोलता है  ये दुआ  कतई काबिले क़ुबूल नहीं है इसे भी दफ़न किया जाए और हैरान हूँ मै इस बात पर भी सूरज की आग से ये दुआएं भसम क्यू नहीं हो रही है बीच में ही , ये यहाँ तक पहुची कैसे ? हम सूरज से भी बात करना चाहते है उसे बुल्वालिये दो एक दिन में , कितने अफ़सोस की बात है यहाँ से रूहों को कितने प्यार से नए नए जिस्म पहना कर भेजता हूँ औए नीचे पहुचते ही ये लोग क्या क्या सीख जाते है , खैर... अगली दुआ पेश की जाए ...
अगली दुआ कुछ अजीब थी , एक नहीं थी दो थी एक साथ , हुज़ूर हम दोनों परेशान है मै हिन्दुस्तान से , दूसरी बोली मै पाकिस्तान से , आज दोनों मुल्कों के बीच क्रिकेट मैच चल रहा है , करोड़ो लोग हमे भेज रहे है लगातार दोनों मुल्कों से , शाम तक फ़ैसला होना है , दोनों दुआये बेबस खड़ी थी “ ये तो दुःख की बात है की खेलो को भी जंगे अज़ीम बना दिया गया है , ये कैसा खेल हुआ जिसमे की खेलकूद की भावना ही ना हो इसे भी अहंकार का विषय बना दिया गया है , कमाल है ये ज़मीन के मसले , जाओ जीतेगा तो वही जो अच्छा खेलेगा और वो हारकर भी नहीं हारेगा जो खेलकूद की भावना से खेलेगा ”
एक व्यापारी की दुआ का नंबर था अब , साहेब, धंधा अच्छा चले इसके लिए रोज़ भेजता है मुझे ढाका का साड़ी व्यापारी रोज़ आप पर नारियल वगैरह भी चढ़ाता है,” हद हो गयी अब तो ये धन्धेबाज़ लोग तो मेरे साथ भी धंधा ही करते है , हटाओ इन सबको किनारे “
अचानक ऊपरवाले की नज़र एक नाटी सी दुआ पर पड़ी उसने कहा ये किसकी दुआ है इतनी छोटी सी , दुआ बोलती है ”गॉड , मै एक पांच साल की छोटी बच्ची की दुआं हूँ जो दिन रात अपनी पालतू  बिल्ली के ठीक होने की दुआं करती है क्यूकी वो कई दिन से बीमार है , गॉड ज़ोर से हंसता है फिर कहता है  “ बच्चो की सभी दुयाएँ क़ुबूल है ठीक करो इस बच्ची की बिल्ली को जल्द से जल्द “ 
अगली दुआं पेश की जाए , हुज़ूर मै कोई दुआ नहीं हूँ बस एक शुक्रियां हूँ जो नीचे रहने वाला एक बंदा दिन रात आप से कहता है , की जो भी आप ने दिया उसे, वो बेहद खुश है , आपकी दी हर चीज़ सूख हो की दुःख बस अपनाना जनता है , बस उसका ये शुक्रिया आप भी क़ुबूल कर लीजिये. ऊपरवाला कहता है “ ये शुक्रिया इतना दूर क्यूँ है मुझसे मेरे करीब आ जाए , मेरे गले से लग जाए इसकी जगह इस मजलिस में नहीं मेरे दिल में है ,ऐ फ़रिश्ते इससे पूँछों तो , क्या ये भी मुझे अपने दिल में रहने की जगह देगा “ ऊपरवाला भावुक हो जाता है उसकी आँखें भी भर आती  है और आज की ये मजलिस यही तक चलती है अगली तारीख का ऐलान कुछ दिनों बाद किया जाएगा .... 

                                                 श्रुति त्रिवेदी सिंह 

   

Wednesday 18 December 2013

पारिजात ....

                                                              

एक बार की बात है , एक बड़ा पुराना घना जंगल  था , जहां पर पेड़ इतने ज़्यादा थे की धूप ज़मीं तक पहुँच नहीं पाती थी बड़ा अँधेरा अँधेरा सा रहता था जैसे बारिश के दिनों की रातें होती है जैसे  , धूप देखने के लिए बड़ी दूर पैदल चलकर  जाना पड़ता था और रास्ते में तमाम चीज़े दिखती थी घने घने बड़े पेड़ तो थे  ही साथ में छोटे छोटे झुरमुट भी दिख जाते थे और जब हरे हरे  पेड़ों  की छाया से धूप कभी कभी नीचे उतरती थी छन छन कर बिखरती थी तो जैसे छोटे ,गोल पुराने सिक्कों की परछायी पड़ती हो . कुछ गिल्हेरियाँ भी थी, इधर उधर आती जाती दिख जाती थी दौड़ लगाती मिटटी पर अपने होने के निशान छोड़ देती थी  , रात में जुगनू बजते थे और चमकते भी थे ,चमकता तो चाँद भी था आसमान में और दिन में सूरज  भी , पर यहाँ दीखता ज़रा कम था हमेशा ग्रहण सा लगा रहता था ,एक चमकीला ग्रहण .
  एक किनारे पर पेड़ ज़रा कम थे ,पर वो दूर था बहुत. वहां एक नदी भी थी पतली एकदम ,पतली इतनी थी की बड़े बड़े पत्थरों को पार नहीं कर पाती थी बगल से निकल जाती थी, पर बहती हमेशा थी पूरे साल , सालो साल से बहती ही जा रही थी किसी को भी पता नहीं था की वो बह कबसे रही है और पानी आता कहाँ से है उसमे , मिटटी वहाँ की थोड़ी सर्द रहा करती थी , नर्म भी थी ,जाड़ों में ठंडी ,गर्मियों में सीली और बारिशो में भीग जाया करती थी, जिन थोड़ी जगहों पर धूप आ जाती थी वो सख्त किसी तखत के जैसी हो जाती थी, जिसमे दरारे भी होती थी , ऊपर से ये मिटटी थी तो सख्त पर दरारों से जो मिटटी भीतर से पुकार लगाती थी बाहर  वो, वो जिंदा हुआ करती थी किसी गीली लकड़ी की तरह मुलायम और सोंधी .
इस घनेरे जंगल में इंसान नहीं बसते थे, ज़रूर डरते होंगे क्यूकी इंसानों को तो बस्तियां पसंद है और ये था बियाबां जंगल ,यहाँ भला कोई क्यों बसता , खुद के साथ रहना इतना आसान भी नहीं होता इंसानों की भी किस्मे होती है , कुछ भीड़ में अकेले रहते है , कुछ अकेले में अकेले रहते है जबकि कुछ भीड़ में भीड़ होते है, उससे ज़्यादा कुछ भी नहीं  .
वहाँ पर एक छोटी बच्ची दिखा करती थी , अकेलेपन में अकेली, बिरली सी , अलबेली , प्यारी सी परी जैसी थी वो ये भी उस नदी की तरह ही थी ,कहाँ से आई थी कोई नहीं जानता  , इसमें तो कोई शक ही नहीं, की डरती बिलकुल नहीं थी वो , अकेले ही रहती होगी , अपने उस जंगल में  , उलझे उलझे सुनहरे  बाल लेकर घूमती रहती थी यहाँ वहाँ पूरे जंगले में , कभी धूप खानी हो तो किनारे आ जाती थी वरना वही उस अँधेरे जंगल में खोयी रहती थी ,पेड़ो की छाया में , यहाँ का रोशन अन्धकार  उसकी जिंदगी को सभी रंगों से भर रहा था , खुद से बात करना , जंगली जानवरों और पेड़ पौंधो से मोहब्बत करना बस यही उसकी जिंदगी थी और बेहद खुश थी वो .
और इसी जंगल के बीचो बीच एक बड़ा पुराना पारिजात का पेड़ भी था ,कई सौ साल पुराना शायद किसी इच्छाधारी नाग की तरह “जाग्रत”, जिसके बारे में ये भी कहा जाता था , की इसमें खिलने वाले सफेद रंग के बड़े बड़े फूल , बेहद हसीं होते है और किस्मत वाले ही उनका दीदार कर पाते है, इन फूलों का तिलिस्म रूहों को जगाने वाला होता है  , सालो साल में एक बार ही खिलते है और अगर खिल जाए तो महीनो तक लदे रहते है पेड़ पर और पिछले कई सालों से नहीं आये है इस पारिजात पर , ये बच्ची  वही इसी पेड़  की छाया में ज़्यादातर वक़्त बिताती थी . एक पतली डंडी से , पेड़ के चारो तरफ एक लकीर खींच कर , उसी लकीर को पकड़कर दौड़ा करती थी थक जाए अगर तो छाया में सहता लेती थी फिर से उठकर सिक्कडी खेलने लगती  थी .
अपनी बकरियां और भेड़े लेकर निकल पड़ती थी सबेरे सबेरे , दिन भर घुमाती थी उन्हें  इधर उधर साँझ तक  . बीन कर लाती थीं जो लकडियाँ उसी से चूल्हा जलाती थी , और रात में अक्सर उस पतली सी  नदी के किनारे पर जाकर बैठी रहती थी , पानी पर तारो की छाया देखते रहना  उसकी ख़ूबसूरती को और भी बढ़ा रहा था  . उस हिलती डूलती पानी की धारा में चाँद जब दिख जाता था, चादर में पड़ी सिलवटों की तरह , तो उसके होंठों के किसी किनारे पर हँसी चुपके से आ जाती थी और उससे अकेलेपन में बतियाने लगती थी और बहते पानी का संगीत उसके कानो को छूकर जब निकलता था तो चेहरे पर ऐसे भाव आते थे की उसकी इबादत करने का दिल करता था , नदी किनारे वो पीपल का पुराना पेड़ उसकी हर हरकत पर नज़र रखता था और ज़रूरत पड़ने पर उसकी मदद भी कर  देता था . रात की चांदनी, उसे चांदी जैसा रंग भी रही थी .सूरज से ऊर्जा लेकर  वो बच्ची बादलो ने मस्तानी चाल चलना सीखती थी , हवाओ ने गति और ठहराव बताया , ऊंचे ऊंचे पेड़ो ने उस बच्ची को “देना” सिखाया था और झुकना  भी . जानवरों ने सारी ज़ुबाने और फूलों ने सारे गीत . जंगल की इस बच्ची की आँखों में गज़ब का उछाल था , जीती जागती प्रकृति लगती थी . उसका जीवन किसी सितार से निकली हुई बेहतरीन धुन था . अपने तरीके से उसने क्या कुछ नहीं जान लिया था . इंसानों से कोसो दूर थी वो और खुदा की बनायीं क़ुदरत से बेहद करीब .

अब जाड़ो का सर्द मौसम शुरू हो चूका था और वो बच्ची अब बड़ी हो गयी थी, वक़्त आ चला था क़ुदरत को शुक्रिया करने का और घने कोहरे में एक दिन अचानक वो गायब हो गयी पर अगले दिन सुबह “पारिजात” के सीने में एक गहरी चाक थी और पेड़ के नीचे पैरों के चंद निशाँ भी पर  ऊपर जब देखा , पूरा का पूरा पेड़ सफेद जादुई  फूलों से भरा पड़ा था .....     

                                                                 श्रुति त्रिवेदी सिंह