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Wednesday, 18 December 2013

पारिजात ....

                                                              

एक बार की बात है , एक बड़ा पुराना घना जंगल  था , जहां पर पेड़ इतने ज़्यादा थे की धूप ज़मीं तक पहुँच नहीं पाती थी बड़ा अँधेरा अँधेरा सा रहता था जैसे बारिश के दिनों की रातें होती है जैसे  , धूप देखने के लिए बड़ी दूर पैदल चलकर  जाना पड़ता था और रास्ते में तमाम चीज़े दिखती थी घने घने बड़े पेड़ तो थे  ही साथ में छोटे छोटे झुरमुट भी दिख जाते थे और जब हरे हरे  पेड़ों  की छाया से धूप कभी कभी नीचे उतरती थी छन छन कर बिखरती थी तो जैसे छोटे ,गोल पुराने सिक्कों की परछायी पड़ती हो . कुछ गिल्हेरियाँ भी थी, इधर उधर आती जाती दिख जाती थी दौड़ लगाती मिटटी पर अपने होने के निशान छोड़ देती थी  , रात में जुगनू बजते थे और चमकते भी थे ,चमकता तो चाँद भी था आसमान में और दिन में सूरज  भी , पर यहाँ दीखता ज़रा कम था हमेशा ग्रहण सा लगा रहता था ,एक चमकीला ग्रहण .
  एक किनारे पर पेड़ ज़रा कम थे ,पर वो दूर था बहुत. वहां एक नदी भी थी पतली एकदम ,पतली इतनी थी की बड़े बड़े पत्थरों को पार नहीं कर पाती थी बगल से निकल जाती थी, पर बहती हमेशा थी पूरे साल , सालो साल से बहती ही जा रही थी किसी को भी पता नहीं था की वो बह कबसे रही है और पानी आता कहाँ से है उसमे , मिटटी वहाँ की थोड़ी सर्द रहा करती थी , नर्म भी थी ,जाड़ों में ठंडी ,गर्मियों में सीली और बारिशो में भीग जाया करती थी, जिन थोड़ी जगहों पर धूप आ जाती थी वो सख्त किसी तखत के जैसी हो जाती थी, जिसमे दरारे भी होती थी , ऊपर से ये मिटटी थी तो सख्त पर दरारों से जो मिटटी भीतर से पुकार लगाती थी बाहर  वो, वो जिंदा हुआ करती थी किसी गीली लकड़ी की तरह मुलायम और सोंधी .
इस घनेरे जंगल में इंसान नहीं बसते थे, ज़रूर डरते होंगे क्यूकी इंसानों को तो बस्तियां पसंद है और ये था बियाबां जंगल ,यहाँ भला कोई क्यों बसता , खुद के साथ रहना इतना आसान भी नहीं होता इंसानों की भी किस्मे होती है , कुछ भीड़ में अकेले रहते है , कुछ अकेले में अकेले रहते है जबकि कुछ भीड़ में भीड़ होते है, उससे ज़्यादा कुछ भी नहीं  .
वहाँ पर एक छोटी बच्ची दिखा करती थी , अकेलेपन में अकेली, बिरली सी , अलबेली , प्यारी सी परी जैसी थी वो ये भी उस नदी की तरह ही थी ,कहाँ से आई थी कोई नहीं जानता  , इसमें तो कोई शक ही नहीं, की डरती बिलकुल नहीं थी वो , अकेले ही रहती होगी , अपने उस जंगल में  , उलझे उलझे सुनहरे  बाल लेकर घूमती रहती थी यहाँ वहाँ पूरे जंगले में , कभी धूप खानी हो तो किनारे आ जाती थी वरना वही उस अँधेरे जंगल में खोयी रहती थी ,पेड़ो की छाया में , यहाँ का रोशन अन्धकार  उसकी जिंदगी को सभी रंगों से भर रहा था , खुद से बात करना , जंगली जानवरों और पेड़ पौंधो से मोहब्बत करना बस यही उसकी जिंदगी थी और बेहद खुश थी वो .
और इसी जंगल के बीचो बीच एक बड़ा पुराना पारिजात का पेड़ भी था ,कई सौ साल पुराना शायद किसी इच्छाधारी नाग की तरह “जाग्रत”, जिसके बारे में ये भी कहा जाता था , की इसमें खिलने वाले सफेद रंग के बड़े बड़े फूल , बेहद हसीं होते है और किस्मत वाले ही उनका दीदार कर पाते है, इन फूलों का तिलिस्म रूहों को जगाने वाला होता है  , सालो साल में एक बार ही खिलते है और अगर खिल जाए तो महीनो तक लदे रहते है पेड़ पर और पिछले कई सालों से नहीं आये है इस पारिजात पर , ये बच्ची  वही इसी पेड़  की छाया में ज़्यादातर वक़्त बिताती थी . एक पतली डंडी से , पेड़ के चारो तरफ एक लकीर खींच कर , उसी लकीर को पकड़कर दौड़ा करती थी थक जाए अगर तो छाया में सहता लेती थी फिर से उठकर सिक्कडी खेलने लगती  थी .
अपनी बकरियां और भेड़े लेकर निकल पड़ती थी सबेरे सबेरे , दिन भर घुमाती थी उन्हें  इधर उधर साँझ तक  . बीन कर लाती थीं जो लकडियाँ उसी से चूल्हा जलाती थी , और रात में अक्सर उस पतली सी  नदी के किनारे पर जाकर बैठी रहती थी , पानी पर तारो की छाया देखते रहना  उसकी ख़ूबसूरती को और भी बढ़ा रहा था  . उस हिलती डूलती पानी की धारा में चाँद जब दिख जाता था, चादर में पड़ी सिलवटों की तरह , तो उसके होंठों के किसी किनारे पर हँसी चुपके से आ जाती थी और उससे अकेलेपन में बतियाने लगती थी और बहते पानी का संगीत उसके कानो को छूकर जब निकलता था तो चेहरे पर ऐसे भाव आते थे की उसकी इबादत करने का दिल करता था , नदी किनारे वो पीपल का पुराना पेड़ उसकी हर हरकत पर नज़र रखता था और ज़रूरत पड़ने पर उसकी मदद भी कर  देता था . रात की चांदनी, उसे चांदी जैसा रंग भी रही थी .सूरज से ऊर्जा लेकर  वो बच्ची बादलो ने मस्तानी चाल चलना सीखती थी , हवाओ ने गति और ठहराव बताया , ऊंचे ऊंचे पेड़ो ने उस बच्ची को “देना” सिखाया था और झुकना  भी . जानवरों ने सारी ज़ुबाने और फूलों ने सारे गीत . जंगल की इस बच्ची की आँखों में गज़ब का उछाल था , जीती जागती प्रकृति लगती थी . उसका जीवन किसी सितार से निकली हुई बेहतरीन धुन था . अपने तरीके से उसने क्या कुछ नहीं जान लिया था . इंसानों से कोसो दूर थी वो और खुदा की बनायीं क़ुदरत से बेहद करीब .

अब जाड़ो का सर्द मौसम शुरू हो चूका था और वो बच्ची अब बड़ी हो गयी थी, वक़्त आ चला था क़ुदरत को शुक्रिया करने का और घने कोहरे में एक दिन अचानक वो गायब हो गयी पर अगले दिन सुबह “पारिजात” के सीने में एक गहरी चाक थी और पेड़ के नीचे पैरों के चंद निशाँ भी पर  ऊपर जब देखा , पूरा का पूरा पेड़ सफेद जादुई  फूलों से भरा पड़ा था .....     

                                                                 श्रुति त्रिवेदी सिंह 

2 comments:

  1. virle hi aisa hota hai ki kuch padh kar royen khade ho jaye.............behad khoobsurat. magar shruti ji iska sheershak is se behtar ho sakta hai.

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  2. thanks a lot to you , aap koun maine aapko pehchana nahi

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