Search This Blog

Tuesday 15 October 2013

बहुत शांत मन


आज मन शांत है
बहुत शांत...
ख़ुशी भी कैसे कैसे
भेस बदल कर आती है
नाचने को दिल करता
कभी बस झूमने को
गाने को बजाने को
सुनने को सुनाने को
हँसने को तो कभी शोर करने को
पर आज ..
शोर है उमंग तरंग कोई
आँख बन्द करके बैठने को दिल करता
आज मन शांत है
शांत बस
बस शांत



तेरा हूँ मैं


इसाई नहीं यहूदी नहीं
हिन्दू मुस्लिम सूफी ज़ेन
इनमें से कुछ नहीं
पूरब का नहीं पश्चिम से नहीं
समुन्दर का जन्मा हूँ
ज़मीन से पैदा हूँ
क़ुदरत का नहीं कायनात का नहीं
आदम से कोई रिश्ता नहीं
मेरा घर कोई घर नहीं
मेरे निशान बेनिशान हैं
जिस्म मेरा रूह कोई
पीछें नहीं कुछ आगे नहीं
कुछ नहीं कुछ भी नहीं
ज़र्रा तक नहीं
आखिर करूँ क्या
जब नहीं जानता
कौन हूँ ?
प्यार किया है तुमसे
मैं बस तुम हूँ
तेरा हूँ !!


Sunday 13 October 2013

बदला कहाँ कुछ .......


सुबह जब आइना देखा ,
फेसबुक का वो कमेंट भी दिख गया
“क्या हो गया आपको, बदल गयी है “
हुआ क्या ? वैसा ही सबकुछ ,था जो पहले  


चीर कर परदे का सीना
धूप  तो वक़्त पर आती है
और नल में पानी भी
समय पर, शुरू होती है
समय से ,टग ऑफ़ वॉर भी


पहले से लटकी, लिफ्ट में लटकना
दफ्तर पहुचकर ......
ऐठ के बैठना या टेढ़े टेढ़े चलना


साबुन, तेल ,नमक , जूते  का नाप
वज़न मेरा , बदला कहा कुछ
मिलती है रोज़ वोही
रखते है जहां.... दोपहर मेरी

शामे, आदतन व्यस्त .......
आसमान की कोलंबस राइड ,फिर  
“इवनिंग वाक” के आठ चक्कर
पहले सात , सोमवार से रविवार
आठवा ,फरवरी की २९ तारीख ....
कभी कभी , ही होता है


रात रोजाना , एक तारे के ब्याह में जाना
फिर दो ख्वाब , तकिये संग लेकर सो जाना
कुछ भी बदलता , तो बात और ही होती !
बदला कहा कुछ ......

सिवाय , हत्थे वाली पुरानी कुर्सी,
ज्यादा अच्छी लगती है
 स्याही जो जम गयी थी पेन में
चलने लग गयी है अब ...........
                         
                             श्रुति












Saturday 12 October 2013

घास का मैदान ......


यहाँ से बहुत दूर .....
सही गलत से आगे
“एक घास का मैदान है “
जहाँ पर धूप और बारिश
दोनों साथ होती है


सूर्य ,चंद्रमा  साथ चमकते ,
दिन होता न रात होती  है
मौसम हरदम लवली लवली
लवली सारी बात होती है

नदी और पहाड़, शरारती दोनों
खेलते है २४ घंटे “बर्फ़-पानी “
नदी ने किया पहाड़ को “बर्फ “
जम गया वही पर ....
पहाड़ ने नदी को “पानी “
 बहे जा रही है तबसे

बादल और कोहरा , दो लफंगे
एक ही बाइक पर सवार
ठण्ड का मफलर लपेटे
निकल पड़ते है, आँखे सेकने
उधर से बिजली और आंधी
तड़कती, भड़कती ,कड़कती
चली आती है ..हवा खाने
यही , “इसी घास के मैदान” पर
 है तो बहुत दूर ,पर जाना है ज़रूर 
                                श्रुति







  
                                       
                                          
        
                                               
      





Thursday 10 October 2013

फ़ना हो रही थी ......

 Fourteen years have passed, and I have been trying to check my strength, if I can remember her ,if I can forget her, what should be done and how ?   Ruminating over those two and a half months, after her cancer was diagnosed, is quite difficult and painful .only mute sessions were on ....but she spoke enormous from her eyes, MY MOM ....she left us in the year 1999. How will one behave when he or she comes to know that you are about to die, she must have felt, paralyzed and powerless. I still feel sorry ...like she ,we were also helpless....                             
                                      फ़ना हो रही थी ......
धीरे धीरे ,  सब से छुपके फ़ना हो रही थी
उनकी दो आँखे ..........
धुआ धुआ बस , धुआ धुआ थी
धुए में लिपटे ,सवाल कई थे
सवाल बस सवाल , कहे कैसे कि कैसे सवाल
जवाब खोजती ,फिरती रही
 उनकी वो  आँखे .....
खफ़ा खफ़ा , बहुत खफ़ा थी  
राज़ सभी वो जान चुकी थी
लडती भी तो ,लडती कैसे , लड़ती किससे
बेबस बहुत , बीमार भी थी,
उनकी वो  आँखे ...........
कशा कशा थी अपनों से ,
काम बहुत बकाया थे
पर वक़्त कहा था उनके पास
करती भी तो करती क्या वो
पशेमा थी , लाचार भी
वो दो आँखे .......उनकी वो आँखे
बेनूर सी, बेरौनक भी
बेनियाज़ , बेहिसाब थी
पर भरे हुए थी,  उन आँखों  में
दुआएं , बस दुआएं, बेशकीमती दुआएं
दुआओ से लबरेज़ , आबशार थी
खुल कर भी जो, खुली नहीं
बंद पर, भी खुली रही
उनकी दो आँखे .... वो दो आँखे
 रहेंगी जब तक ये आंखे
रहेंगी इनमे वो आँखे ........



Tuesday 8 October 2013

दो तारे थे.....

                   
सूरज को चढ़ाया था सुबह जब
चाँद पूरा  उतार लिया था
पर दो तारे ,उतार नहीं पायी
भूल हो गयी .....वो भूल मेरी
दिन बढ़ने लगा और वो भी
तपन ,जलन, गर्मी सब बढती रही
और वो दोनों तारे ,किसी बदली के पीछे ,पीछे
छिपते रहे ,छिपते रहे , डरे सहमे से
नीला आसमान उसका  होता गया
वो जलता रहा, जलाता रहा  .....तारे गलने लगे
बिचारे थे , ...... धीरे धीरे पिघलने लगे
तारे दोनों ,  गलते रहे  पिघलते रहे
फिर मिल गए आसमानी आब-शार से
पार कर वादियों को .....
उतर लिए  ज़मीनी दरिया तक
तबसे इसी दरिया में रहते है
दिन, दरिया के दिल में गुज़ार कर
रात पूरा आसमान यही बुला लेते है
डरते अब भी है , उस सूरज से .....



Monday 7 October 2013

chilbill, mere khyalo ki....

चुनती चलती हू, यहाँ वहाँ से
चिलबिल ,....हसीं खयालो की
मिल जाती है कभी कभी ,
बंद चिट्ठियो में , खुले आसमानों में  
इजिप्ट के चित्रों ,वैनगोग के जूतों
गुलमरगी गाँवों या सुंदरबन की नावों में  
ख़यालो का ख़याल कर , प्यार से संभाल कर
पाल पोसकर लाड़ से ,साज़ करती रहती हू
ज़वा जब हो जाते  ,बजते फिर ये ढपली जैसे
सुनती रहती दिन रात इन्हें , ख्याल कहा एहसास है ये
दे इशारा मुझसे कहते ,उतार लो डायरी में अपनी
उन खाली , खाली  शामों में ........