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Saturday 12 October 2013

घास का मैदान ......


यहाँ से बहुत दूर .....
सही गलत से आगे
“एक घास का मैदान है “
जहाँ पर धूप और बारिश
दोनों साथ होती है


सूर्य ,चंद्रमा  साथ चमकते ,
दिन होता न रात होती  है
मौसम हरदम लवली लवली
लवली सारी बात होती है

नदी और पहाड़, शरारती दोनों
खेलते है २४ घंटे “बर्फ़-पानी “
नदी ने किया पहाड़ को “बर्फ “
जम गया वही पर ....
पहाड़ ने नदी को “पानी “
 बहे जा रही है तबसे

बादल और कोहरा , दो लफंगे
एक ही बाइक पर सवार
ठण्ड का मफलर लपेटे
निकल पड़ते है, आँखे सेकने
उधर से बिजली और आंधी
तड़कती, भड़कती ,कड़कती
चली आती है ..हवा खाने
यही , “इसी घास के मैदान” पर
 है तो बहुत दूर ,पर जाना है ज़रूर 
                                श्रुति







  
                                       
                                          
        
                                               
      





Thursday 10 October 2013

फ़ना हो रही थी ......

 Fourteen years have passed, and I have been trying to check my strength, if I can remember her ,if I can forget her, what should be done and how ?   Ruminating over those two and a half months, after her cancer was diagnosed, is quite difficult and painful .only mute sessions were on ....but she spoke enormous from her eyes, MY MOM ....she left us in the year 1999. How will one behave when he or she comes to know that you are about to die, she must have felt, paralyzed and powerless. I still feel sorry ...like she ,we were also helpless....                             
                                      फ़ना हो रही थी ......
धीरे धीरे ,  सब से छुपके फ़ना हो रही थी
उनकी दो आँखे ..........
धुआ धुआ बस , धुआ धुआ थी
धुए में लिपटे ,सवाल कई थे
सवाल बस सवाल , कहे कैसे कि कैसे सवाल
जवाब खोजती ,फिरती रही
 उनकी वो  आँखे .....
खफ़ा खफ़ा , बहुत खफ़ा थी  
राज़ सभी वो जान चुकी थी
लडती भी तो ,लडती कैसे , लड़ती किससे
बेबस बहुत , बीमार भी थी,
उनकी वो  आँखे ...........
कशा कशा थी अपनों से ,
काम बहुत बकाया थे
पर वक़्त कहा था उनके पास
करती भी तो करती क्या वो
पशेमा थी , लाचार भी
वो दो आँखे .......उनकी वो आँखे
बेनूर सी, बेरौनक भी
बेनियाज़ , बेहिसाब थी
पर भरे हुए थी,  उन आँखों  में
दुआएं , बस दुआएं, बेशकीमती दुआएं
दुआओ से लबरेज़ , आबशार थी
खुल कर भी जो, खुली नहीं
बंद पर, भी खुली रही
उनकी दो आँखे .... वो दो आँखे
 रहेंगी जब तक ये आंखे
रहेंगी इनमे वो आँखे ........



Tuesday 8 October 2013

दो तारे थे.....

                   
सूरज को चढ़ाया था सुबह जब
चाँद पूरा  उतार लिया था
पर दो तारे ,उतार नहीं पायी
भूल हो गयी .....वो भूल मेरी
दिन बढ़ने लगा और वो भी
तपन ,जलन, गर्मी सब बढती रही
और वो दोनों तारे ,किसी बदली के पीछे ,पीछे
छिपते रहे ,छिपते रहे , डरे सहमे से
नीला आसमान उसका  होता गया
वो जलता रहा, जलाता रहा  .....तारे गलने लगे
बिचारे थे , ...... धीरे धीरे पिघलने लगे
तारे दोनों ,  गलते रहे  पिघलते रहे
फिर मिल गए आसमानी आब-शार से
पार कर वादियों को .....
उतर लिए  ज़मीनी दरिया तक
तबसे इसी दरिया में रहते है
दिन, दरिया के दिल में गुज़ार कर
रात पूरा आसमान यही बुला लेते है
डरते अब भी है , उस सूरज से .....



Monday 7 October 2013

chilbill, mere khyalo ki....

चुनती चलती हू, यहाँ वहाँ से
चिलबिल ,....हसीं खयालो की
मिल जाती है कभी कभी ,
बंद चिट्ठियो में , खुले आसमानों में  
इजिप्ट के चित्रों ,वैनगोग के जूतों
गुलमरगी गाँवों या सुंदरबन की नावों में  
ख़यालो का ख़याल कर , प्यार से संभाल कर
पाल पोसकर लाड़ से ,साज़ करती रहती हू
ज़वा जब हो जाते  ,बजते फिर ये ढपली जैसे
सुनती रहती दिन रात इन्हें , ख्याल कहा एहसास है ये
दे इशारा मुझसे कहते ,उतार लो डायरी में अपनी
उन खाली , खाली  शामों में ........
 














pattiya

नन्ही मुन्नी , के प्यार में बिगड़ गया कुछ यु ,
संग, हवा उड़ता किया , मिल गया फिर खाक से ,
बैठा रहा , सुनता किया .......
चापे, दौड़े और कदमताल ,  अजाने ,घंटिया ,गप्शपे और गलिया
एम्बुलेंस ,दमकले  , रिंगटोन और सीटिया
चुपके से मै जम गया , गहरी सोच में पड़ गया
जाऊ कि न जाऊ , चलो हिम्मत करू सर उठाऊ
दुखी हुआ फिर देखकर ,व्यस्त बहुत है लोग सभी
छाया मेरी बेकार है सब ,बिछाया जाता हु रोज़ यहाँ
सोच किया बड़ी देर तलक,.......कि
“तुलसी वह न जाइए जहा नैनं नहीं सनेह”
छुपके सबकी नजरो से , वापिस चला , वापिस चला
क्या करूँगा जाकर अब ,...दिल था मेरा बहुत बड़ा
जामुन नहीं , इमली नहीं , बिन नेह तेरे मै कुछ भी नहीं
बीज था बस बीज भर रह जाऊँगा ........

                                                श्रुति





Friday 4 October 2013

ऊट –पटांग बारिश

                  

शाम , समझ गयी थी
बारिश में मेरा दिमाग सरक जाता है......
चश्मे पर पानी की चार बूंदे
और खिडकियों  पर ऑर्केस्ट्रा शुरू
मैदान दूर दराज़ के मेरा आगन
आगन आँखों से ओझल
घर के बाहर सब कुछ उलट पुलट
ज़मीनों पर दरारों का ब्रेक डांस
गाडियों को लगी हिचकियाँ
पीपल भगा छतों तक
तैरती है , छते तालाबो पर
नालियों को कुल्लिया
नाले करे गार्गल
गमलो में देओदार का जंगल नज़र आता है
सच है
बारिश में मेरा दिमाग सरक जाता है ....




दो कविताएं

छः  बजे सुबह को
चाय का प्याला हाथो में  
बैठ गयी कुर्सी पर जब
डाईनिंग टेबल मुझसे बोली...
तेरा मेरा जो रिश्ता है
हर रिश्ते से अच्छा है
पर ...रात से बेचैन हूँ
पल भर नींद न आई
कोशिश पुरज़ोर करी मगर
बेबस और नाकाम रही
रोज़ सुबह का साथ तेरा
बड़ा प्यारा है दिल को  मेरे
रात मगन थी मै , तुम्हे मन से  खाते देख
रोटी ,पालक पनीर , मीठा चावल
तुझमे छिपा तमाम बचपन
मेरी गोद में आ जाता है
नज़रों में तेरी मै , होकर भी नहीं
साबित भी कहा कर पायी कभी 
माफ़ कर देना मुझे तुम ...
तिनका भी हिला न पाई मै
रात जो तूने गिराया था ..
साफ नहीं कर पायी मै