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Wednesday, 26 March 2014

क्रांति....



कुछ मिला है कहां
मर्ज़ी से कभी ...
विरासत में मिलता है
सबकुछ यहाँ ...
नाम ,ज़ात , माँ बाप
रूप रंग कद
वगैरह वगैरह ...
सोचती हूँ.. सब उलट पुलट दूँ
कुछ तो करूं
जिसे क्रांति कहते है ..
अपना नाम बदल दूँ
वजह पूछेगा जब कोई
तब कह देंगे ...
पुराना .. सड़ा हुआ था !

Sunday, 23 March 2014

सुनी है इसकी ...




सुनी है इसकी , हमेशा मैंने और
यकीन भी किया है , इस दिल पर  
गोल गोल घुमाकर ...इसने
आसमानों में उड़ाया है 
हवाओं को पकड़कर  
एक पैर पर चलकर
दूसरी तीसरी सातवी दुनिया
जाने कहाँ कहाँ घुमाया है ?
“पानी के छपाक” जैसे
जीना भी सिखाया है
ऊंची उड़ाने  भरने वाला
आसमान में भेजकर मुझे
खुद ज़मीन में ज़जीरे
तलाश रहा है...?
कैद होना चाहता है ?... कम्बखत
हैरान हूँ मै ..इसकी इस हरक़त पर
मै सचमुच हैरान हूँ !!!
                     श्रुति त्रिवेदी सिंह

 

Tuesday, 11 March 2014

शमशान...



 निकलते है जब उस सड़क से
बायीं तरफ जिसके शमशान है
तो ड्राईवर गाने की आवाज़
कम कर देता है हर बार
वही, जहां मौत का पहरा है ...
और सन्नाटे का शोर
आवाज़ें बेदम , आसूँ हर ओर
जब रूह भी मिट्टी
और जिस्म भी मिट्टी
फिर मिट्टी से मिलने पर  
काहे का रोना , क्यों ये बिलखना ?
पर ये कायदें है शमशान के
इन्हें मानते है सब
मत मानना कुछ भी
जाऊं मै जब ..
मेरी जिंदगी एक उत्सव है
मेरी मौत एक जश्न हो
तोड़ देना सब कायदें
कुछ भी मत करना
जी भर जिया है मैंने
जी भर के मरने देना 
प्लीज़ ....
                 श्रुति त्रिवेदी सिंह  

Thursday, 27 February 2014

कल रात में ... कुछ बात थी



रात थी ...सुनसान थी
एक चिराग़ था , जला बुझा सा
नीम अँधेरा ..नीम उजाला
सोयी नहीं ... मैं जागी थी
एक दस्तक पर खोला दरवाज़ा
बस रात की आवाज़ थी
“बाहर निकल कर देखो ज़रा
आसमान है , एक चाँद है
कुछ तारें है , मदहोशी है
सन्नाटा है ... सब सोये हैं ..
कहीं दूर घूमने जाते हैं
प्लूटो ढूंढ कर लाते हैं
मै उड़ती रही ... रात भर
आँख खुली तो  जाना फिर
एक सपना था ...टूट गया
एक और रात ... निकल गयी
मेरी ज़िन्दगी की जेब से ....
                     श्रुति त्रिवेदी सिंह





Monday, 24 February 2014

बस यू हीं .......



जानता है मुझे , करीब से बहुत
कोना  कोना मेरे घर का
वो आगे  वाला बगीचा
वो बड़ी वाली छत
वो गमले कच्चे पक्के
वो दराज़ो में रखे ख़त
सब जानते है मुझे ...
आगन बीचो बीच का
देहलीज़ और रसोई
कमरा पहले तल्ले का
जिसमे रहता नहीं कोई
सीढ़िया ,दरीचे किताबे भी सारी
नयी पुरानी तमाम चीज़े हमारी
ये देखती है मुझको ..
ये जानती है सब
मशहूर हूँ मै बहुत
अपने घर की चारदीवारी में  ...
                                                श्रुति त्रिवेदी सिंह

Sunday, 23 February 2014

After watching Highway..

after watching Highway...wrote these lines..

एक ताज़ा सफ़ेद कागज़ पर
एक आसमान बिछाते है
एक ज़मीन जमाते है
कुछ पहाड़ उगाते है
एक लम्बा एक छोटा
एक तिरछा , एक मोटा
बीच कहीं से , इनके फिर
एक नदी भगाते है
एक सूरज जलाते है
बोकर कुछ बादलों को
एक इन्द्रधनुष फेहराते है
मज़ा बहुत आयेगा.....
चलो ना , एक तस्वीर बनाते है
                                                    श्रुति त्रिवेदी सिंह 

Thursday, 20 February 2014

हवा का झोंका

.....अभी कुछ देर पहले एक ख़ूबसूरत हवा का झोंका आया था ....और फिर ये कविता.... 

चिलमने, बारिशों की भी
छिपा कहाँ पाती तुमको
दिख ही जाते हो दूर कहीं
बड़ी दूर खड़े ...
ज़रा सहमे से ,कुछ डरे डरे
कभी बादलो की आड़ में
कभी कोहरे के पीछे
शक है मुझे ,
तुम वोही तो नहीं
जो नज़रे चुराता है मुझसे
सामने आओ कभी...
बैठकर बातें करते है
ये छुपन छुपाई क्यों ? 

                      श्रुति त्रिवेदी सिंह