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Sunday 15 December 2013

माज़ी, हाल और मुस्तकबिल

माज़ी, हाल और मुस्तकबिल यानी की भूतकाल वर्तमान और भविष्य हमेशा से परेशान करते है, पेचीदा कहीं के ,  जबकि पढ़े लिखे समझदार लोग कहते है की हाल में ही जीना चाहिए , क्यूकी  माज़ी तो माजी है और जो बीत चुका है वो बस जा चुका है ख़तम सब , उसका कुछ नहीं कर सकते जो होना था वो हो गया और मुस्तकबिल की तो फिकर ही बेकार है क्युकी वो तो किसी ने भी नहीं देखा अनदेखा अनजाना उसकी तो ख़ूबसूरती ही पर्दों में है और वैसी भी  इंसानी काबिलियत के परे है उसे जानना , तो बेहतर यही होगा की हम हाल में ही जिए .

पर हमे तो माज़ी में जीना अच्छा लगता है माज़ी की सुगंध अच्छी लगती है बड़ी मिठास है उसमे सब कुछ जाना पहचाना सा लगता है बड़ा अपनापन है यहाँ ,एक फायदा और भी है माज़ी में जाकर तस्वीरों को दोबारा उलट पलट कर देखने से खुद की खूबियाँ और खामियां ख़ूब पता चलती है और इसके पहले की, और मुस्तकबिल माज़ी में तब्दील हो उसे निखारा भी  जा सकता है , हम तो माज़ी में ही गिरफ्तार होना चाहते है असीरी की चाहत है. ऐसा लगता है माज़ी में खड़े होकर देखो अगर गौर से  तो मुस्तकबिल भी एकदम साफ़ दिखाई पड़ता है और हाल का क्या मतलब होता है ? एक पल का हाल होता है क्या ?या उससे भी कम, क्यूकी  वक़्त तो कभी ठहरता नहीं , जैसे ही एक पल गुज़रता है माज़ी ही तो बन जाता है , गुज़रा हुआ पल या फिर गुज़रा हुआ कल ,  है तो एक ही चीज़,  तो हाल बचा ही कहाँ इसका मतलब हाल सिर्फ वो ही एक पल होता है जो आधा मुस्तकबिल से आता है आधा माज़ी बन जाता है , हाल होता है क्या ??

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