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Tuesday 11 March 2014

शमशान...



 निकलते है जब उस सड़क से
बायीं तरफ जिसके शमशान है
तो ड्राईवर गाने की आवाज़
कम कर देता है हर बार
वही, जहां मौत का पहरा है ...
और सन्नाटे का शोर
आवाज़ें बेदम , आसूँ हर ओर
जब रूह भी मिट्टी
और जिस्म भी मिट्टी
फिर मिट्टी से मिलने पर  
काहे का रोना , क्यों ये बिलखना ?
पर ये कायदें है शमशान के
इन्हें मानते है सब
मत मानना कुछ भी
जाऊं मै जब ..
मेरी जिंदगी एक उत्सव है
मेरी मौत एक जश्न हो
तोड़ देना सब कायदें
कुछ भी मत करना
जी भर जिया है मैंने
जी भर के मरने देना 
प्लीज़ ....
                 श्रुति त्रिवेदी सिंह  

Thursday 27 February 2014

कल रात में ... कुछ बात थी



रात थी ...सुनसान थी
एक चिराग़ था , जला बुझा सा
नीम अँधेरा ..नीम उजाला
सोयी नहीं ... मैं जागी थी
एक दस्तक पर खोला दरवाज़ा
बस रात की आवाज़ थी
“बाहर निकल कर देखो ज़रा
आसमान है , एक चाँद है
कुछ तारें है , मदहोशी है
सन्नाटा है ... सब सोये हैं ..
कहीं दूर घूमने जाते हैं
प्लूटो ढूंढ कर लाते हैं
मै उड़ती रही ... रात भर
आँख खुली तो  जाना फिर
एक सपना था ...टूट गया
एक और रात ... निकल गयी
मेरी ज़िन्दगी की जेब से ....
                     श्रुति त्रिवेदी सिंह





Monday 24 February 2014

बस यू हीं .......



जानता है मुझे , करीब से बहुत
कोना  कोना मेरे घर का
वो आगे  वाला बगीचा
वो बड़ी वाली छत
वो गमले कच्चे पक्के
वो दराज़ो में रखे ख़त
सब जानते है मुझे ...
आगन बीचो बीच का
देहलीज़ और रसोई
कमरा पहले तल्ले का
जिसमे रहता नहीं कोई
सीढ़िया ,दरीचे किताबे भी सारी
नयी पुरानी तमाम चीज़े हमारी
ये देखती है मुझको ..
ये जानती है सब
मशहूर हूँ मै बहुत
अपने घर की चारदीवारी में  ...
                                                श्रुति त्रिवेदी सिंह

Sunday 23 February 2014

After watching Highway..

after watching Highway...wrote these lines..

एक ताज़ा सफ़ेद कागज़ पर
एक आसमान बिछाते है
एक ज़मीन जमाते है
कुछ पहाड़ उगाते है
एक लम्बा एक छोटा
एक तिरछा , एक मोटा
बीच कहीं से , इनके फिर
एक नदी भगाते है
एक सूरज जलाते है
बोकर कुछ बादलों को
एक इन्द्रधनुष फेहराते है
मज़ा बहुत आयेगा.....
चलो ना , एक तस्वीर बनाते है
                                                    श्रुति त्रिवेदी सिंह 

Thursday 20 February 2014

हवा का झोंका

.....अभी कुछ देर पहले एक ख़ूबसूरत हवा का झोंका आया था ....और फिर ये कविता.... 

चिलमने, बारिशों की भी
छिपा कहाँ पाती तुमको
दिख ही जाते हो दूर कहीं
बड़ी दूर खड़े ...
ज़रा सहमे से ,कुछ डरे डरे
कभी बादलो की आड़ में
कभी कोहरे के पीछे
शक है मुझे ,
तुम वोही तो नहीं
जो नज़रे चुराता है मुझसे
सामने आओ कभी...
बैठकर बातें करते है
ये छुपन छुपाई क्यों ? 

                      श्रुति त्रिवेदी सिंह 

Tuesday 18 February 2014

गुलज़ार ! क्या आप भी ....


इस कविता में गुलज़ार की लिखी, कई सारी कविताओं की लाइन्स है ...कुल मिलाकर अजीब सी है ..गुलज़ार के लिए ही है ,वो पढेंगे नहीं कभी पर फिर भी ...

             
जगह नहीं अब डायरी में
और ऐशट्रे भी पूरी भर गयी है
खयालो से, टूटी फूटी नज़मो से 
 देकर ख्यालो को वजूद पहले
फिर ढूंढते फिरते हो उस वजूद को
जो कभी ख्याल था..
क्या है ये ?
बुलाकर पहाड़ो में “वीकेंड्स” पर
 हिचकी हिचकी बारिश कराते हो
आसमानों की कनपट्टीयाँ पकाकर
तारो को जम्हाइया दिलाकर
और वादियों को नज़ला भी
और क्या क्या करते हो ?बताओ ..
रखकर कार्बन पेपर तन्हाई के नीचे
फिर ऊंची ऊंची आवाज़ में बाते करते हो
की आवाज़ की शक्ल उतर आएगी
कितनी संजीदगी से जीते हो जिंदगी !
कमाल हो आप, हो भी क्यों ना
गुलज़ार हो आप ...
और लिखते कैसा कैसा हो  
टेढ़ा मेढ़ा ऊंचा नीचा, नुकीला
और ऊँगली रख दे कोई गर 
अपनी  लिखी कविता पर
तो काटने को दौड़ते हो
कटते कटते बचती है ,हर बार ऊँगली
हद तो तब पार हुई , बोली हवा जब
फटी फटी झीनी झीनी आवाज़ में
बालिग़ होते लडको की तरह  
सच तो ये है की अब तो गिलहरी भी
तुम्हे शक की नज़र से देखती है
असीरी अच्छे लगती है ना तुम्हे ?
लेकिन तुम हमें ....
                                                                        श्रुति त्रिवेदी सिंह 
   


Monday 17 February 2014

गुज़रना जब तुम ...

कल एक कविता को पढ़कर एक कविता लिखने का मन किया , पहले तो कुछ अस्त व्यस्त लगी फिर ....

गुज़रना जब तुम ...

गुज़रोगे जब शहर से मेरे
गोमती को पार करके
एक पुराना पुल मिलेगा
उतर लेना उस पुल से फिर
आ पहुंचना गलियों में मेरी
वही जहां में रहती थी
दुकाने सभी ,पेड़ भी सारे
सब तुम्हे पहचान लेंगे
मिलना मेरा शायद ही हो
मै गुमशुदा हूँ कई दिनों से  


अच्छे लिबास में सज सवंर के यही कविता ऐसी हो गयी ....

गुजरोगे जब शहर से मेरे ....

गुज़रोगे जब शहर से मेरे
यादों के कुछ लिए सवेरे
सड़क रास्ते और तन्हाई
कत्थई आँखों सी शरमाई
फिर उभरेगा चेहरा एक
जिसके संग गुज़रे पल अनेक
क्या जानते हो मुझको? तंग कसेंगे
सीढ़ी पुल की भी पूछेगी
कहाँ हूँ मै ? ये प्रश्न करेगी
रहती नहीं हूँ अब मै वहाँ
खो गयी हूँ जाने कहाँ कहाँ 
बाहर भीतर और भी भीतर
मै गुमशुदा हूँ कई दिनों से