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Tuesday 29 October 2013

एक बूढ़े शहर का ट्रैफिक जैम

एक बूढ़े शहर का ट्रैफिक जैम
सड़के आज भी जहाँ  “मूल “
पर गाड़िया चक्रवधि ब्याज
फसी थी मै भी एक जैम में
मगर किसी शहर के नहीं..
आधी पूरी नज्मो का उलझा यातायात
कच्चे पक्के ख़याल ,टेढ़े मेढ़े मिसरे
6  लेन पर भागती गाडियों जैसे
हार्न बजाती ,लाइट जलाती
एक साथ दौड़ लगाती
कौन सी पकडू ,कौन सी छोड़ू ,कश्मकश
बमुश्किल ,दो तीन ही संभली
बाकी सरक ली दूर बहुत
इंतज़ार पकड़ कर हाथों में
मै तो आज भी वोही हूँ
पर उचक्के मन ने मेरे
लंबी छलांग मारी है
पंहुचा है अब कर्फ्यू में कही
जहां दूर दूर तक न तो कोई
नज़्म दिखाई पड़ती है

न ही कोई हार्न सुनाइ पड़ता है 

                           श्रुति 

एक राह

एक राह पर चलते चलते ,एक राह ने पुकारा
अजीब सी आवाज़ में , अलग सा इशारा
जाना नहीं पहले कभी ,बोला करती है राहे भी
ऐसा पहली बार हुआ था  मै हैरां एकदम हैरां थी
सोच रुक ही जाती हु , सुने है लोग बहुत पहले
आज इसको सुन लेती हु ,बोली फिर मै तैयार हूँ अब
सुना , मुझे क्या सुनाती है , बोली फिर वोह
“राह नहीं मै गाँव हूँ , जामुना की ठंडी छाँव हूँ
खेत हूँ ,खलिहान हूँ ,देहरी ,देहलीज़ दालान हूँ
गाये ,भैंस ,बैलगाड़ी हूँ ,कन्डो पर रखी दुधांडी हूँ
भट्टी पर चढ़ा गन्ने का रस ,चकिया में पिसा पिसान हूँ
मेड़ो पर जगा बथुआ ,छपरे पर चढ़ा कुमढा हूँ
ताल में पड़ा सिंघाड़ा हूँ भीट में उगाया पान हूँ मै
शिवाला हूँ ,मज़ार हूँ ,चाक पर बैठा कुम्हार हूँ
चूल्हा रंगती बहु भी हूँ ,धुप में तपता किसान हूँ मै
पर वक़्त चलता चला गया ,गाँव सिमटता गया
राह चौड़ी होती रही ,मै छुप छुप कर रोती रही
आत्मा हूँ उस गाँव की ,यही कही मै रहती हूँ
तुमसे मै ये कहती हूँ ....
राह नहीं मै गाँव हूँ ,जामुना की ठंडी छाँव हूँ मै “



                                             shruti

Monday 28 October 2013

तू कहा करता था ....

तू कहा करता था ....
“चाहता हू अलग रहू धारा बहती रहे अथाह
किनारे पर खड़े हुए देखू धारा का प्रवाह “
कहना है आसान बहुत , करना भी आसान  
सुन्दर लगती है धाराए ,गर दूर से देखि जाए
मीठी सी की आवाज़ करे ,और गीत सभी ये गाये
गर दूर से देखी जाए ,गर दूर से देखि जाए  
समझ न इन्हें ,थोडा सा और ,थोडा सा ज़्यादा,
नमक नहीं तू , पास आ, कर न कोई वादा   
देख ज़रा ,  बूढ़ी सी इस धारा को
कांप कांप कर बहती ये ,अधूरेपन में जीती है
कंकड़ ,पत्थर में चलती ये , तंग रास्तो पर छिलती है
 काई में गिरती पड़ती, हर रोज़ फिसलती रहती है
ख़ामोशी से चलती चुप  , फिकर तेरी ये करती है
सुन कर आवाज़ कही इसकी , तू बिखर न जाए
संभाल न पाए खुद को ,करीब न आ जाए
साया भी तेरा पड़ जाए तो ,जिंदा फिर हो जाएगी
खोखली सी देह इसकी बासुरी बन जाएगी
 धारा एक सूख चली, एक धारा तो बह जाएगी
किनारों पर खड़ा रहकर तू कुछ समझ न पायेगा
अलग रहना चाहता है , तू अलग ही रह जायेगा

                                           श्रुति 

Friday 25 October 2013

A Story

I met a story, on my way
One more half, made  my day
 Story of a tree, only and lonely,
No one around and no things surround
Bereft of leaves, bereft of love
In need of flowers, in need of showers
Without any fruit ,without any shoot
Ah! What pain..it went and it went
Nobody sits, no monkeys ride
No  birds chirping  ,No wish tied,
No bells ringing, no children swing
 all is quiet ,   all is quiet
Except  a ” whisper “
I happened to hear ,”I am not
Destitute and  dispossessed
Dejected and deprived
I MAY LOOK ALONE ,I MAY LOOK WRONG
“SOLITARY TREES, IF  THEY GROW AT ALL
GROW STRONG”

                                                                                shruti





Monday 21 October 2013

याद है न तुम्हे .....



याद है न तुम्हे .....
 वो ज़ीरो फिगर वाली शाम
कैसी चर्बी चढ़ाई थी उस पर ,
मॉलो ,पार्को को दबाकर किनारे
कब्रिस्तान का प्रोग्राम बनाया था
सन्नाटे के बीच , ताबूत बन रहे थे
और रन भी , वो अमलतास के पीछे क्रिकेट
याद है न तुम्हे .....
चक्कर पूरा काटा था वहाँ का
दिया था वक़्त ,एक एक कब्र पर
देखा कैसे था उन सबको
उपन्यास के क़िरदार हो कोई
या फिर ग़ालिब के शेरों हो जैसे
और वो दिलजला पेड़ ,बिना पत्तो वाला ,
काली काली जली भुनी डाले उसकी
सामने वाली नीम्बी को देख
ज़्यादा खुश भी नहीं था
वो कोना , डरा डरा सा, स्याह स्याह
रात पहले पहुची थी जहाँ शाम से
घबरा गयी थी तुम वहाँ ,
याद है न तुम्हे ... मौत का मज़ा
लिया था हमने ...    
                                       श्रुति 






रौशन है तू बहुत मगर

रौशन है तू बहुत मगर
 यू भी बहकना ठीक नहीं
होश गवां बैठी तू सारे
दीवानों सा बर्ताव करे
कैद कर कमरे में तुझको
रक्स कराऊ, भीतर ही भीतर
पर चमक तेरी, गज़ब पर गज़ब ढाए
दुश्वारिया बढ़ाये , छन छन कर बाहर आये
खिड़की से झांकी जाये , जाली से बहती जाये
रोशनदान को मनाकर तूने
चिलमनो को भी बिगाड़ा  है
किवाड़ो को फुसलाकर
 अब क्या दीवारें भी गिराएगी  
बेसब्री तेरी साफ़ दिखे है
सीएफएल में दमकती रहती तू 
ट्यूबलाइट में चमकी जाये रे 
भूल गयी क्या ,रौशन नहीं तू खुद से है
उधार “चाँद” से लाती रोज़
छुप छुप कर जाती   ‘ तली भर ले आती
सोच कभी ऐसा भी हो
शरमाई सी पहुचें  तू , चाँद के दरबार में
हाथ फैलाये खड़ी रहे ,रौशनी की दरकार में
      “चाँद रहे मूड में “
पिघल जाये ख़ुद बा ख़ुद
सिमट कर , उतर आये 
सुराही में तेरी , पूरा का पूरा
सोच कभी ऐसा भी हो .....
                                                                          श्रुति 


Saturday 19 October 2013

ज़ोर की बारिश

                         
ज़ोर की बारिश में
यूकेलिप्टस के दो लम्बे ऊचे पेड़
प्यार का कॉन्ट्रैक्ट री–न्यू कर रहे है
झुक झुक कर कानो में मुह डालकर
गुपचुप बाते , चल रही है
नयी नयी शर्ते ,नए समझौते चल रहे है
भाव बढ़ रहे है , नियम बदल रहे है
गहरे समुंदर के ऊपर लहरें चलती है जैसे
सच्ची मुहब्बत के फर्जी रिन्यूअल चल रहे है
प्यार के सभी दांव पेंच चल रहे है

                                                               श्रुति