सुबह का बढ़ रहा वज़न
शामो की लम्बाई
बदली बदली ,तबियत मेरी
बदल गया अंदाज़ मेरा
वॉली बाल का शौक नया
वाक से गहरा नाता है
नींद थोड़ी कम कम है
वक़्त ज़्यादा ज़्यादा है
कवितायेँ सुलझ न पाई जो
कवि खुद सुना कर जाते है
जम्हाई गर आ जाये तो
फिर चाय भी पिलाते है
क़िताबे सभी भारी भरकम
अलमारी में सुस्ताती थी
पन्ने पलटकर खुद अपने
पास मेरे आ जाती है
मिसरे भी थे, नाराज़ कभी
कुछ ख़ास नहीं कर पाई मै
वक़्त वक़्त की बात है सब
नज्मो संग इश्क लड़ाती हू
विश्व युद्धों में उलझी हू
“चर्चिल” के खत सब बाकी है
“गुलज़ार” बहुत सताते है
“ओशो” से पुराना वादा है
नींद थोड़ी कम कम है
वक़्त ज़्यादा ज़्यादा है
एक खौफ़ घेरे रहता है
एक डर भी डराता है
मुझसे कहता दिन रात यही
“ शौक तेरे टेढ़े मेढ़े सब
तू सनकी होती जाती है
आइना भी देख कभी
तेरी उमर ढलती जाती है
तेरी उमर ढलती जाती है
इतना भी समझ नहीं पाती है
कि नींद तेरी कम कम क्यों
क्यों वक़्त तेरा ज़्यादा है
“
श्रुति