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Tuesday, 31 October 2017

mawra review

 मित्र डॉक्टर आसुतोष द्वारा दी गयी समीक्षा ....💝 #मावरा 💝
"कुछ धड़कनों का ज़िक्र हो, कुछ दिल की बात हो।"
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
● शहनाई की गूँज से शुरू, 
फिर सितार के तारों का टूटना
सारंगी के सिसकते अलाप
शततंत्री वीणा पर 
आदित्य की उँगलियों की सिम्फनी है मावरा...
● मदन मोहन जी के सांगीतिक ज्ञान को
सुनने और समझने की दृष्टि देती है मावरा...
● लता जी के हृदय के आर्तनाद को
कण्ठ में उतरने का रहस्योद्धाटन है मावरा...
● बसन्त ऋतु से शुरू होकर 
जयेष्ठ की तपिश और लू के थपेड़ों में 
झुलसती हुई गौरी के मन पर पड़ती हुई 
आदित्य के प्रेम की शुद्ध बूँदे हैं मावरा...
● राग यमन के श्रृंगार गान से आरंभ होकर 
भीमपलासी के विरह पीड़ा से गुजरते हुए
झिंझोटी की अदम्य जिजीविषा सँजोए
अप्रत्याशित तिलक कामोद तक की 
भावयात्रा है मावरा...
● बनारस से आरंभ होकर, लखनऊ, 
लंदन और बाली के समुद्री तटों पर 
बेचैनी भरे भटकाव का
अंतिम पड़ाव है मावरा..!
_____________________
कहाँ से आरंभ करूँ...
शहनाइयों की गूँज और कश्मीर में हनीमून...
फिर राघव से दूरी का विछोह...
● "उन आँखों में नींद कहाँ जिन आँखों से प्रीतम दूर बसे..!"
इसी बीच में लखनऊ विश्वविद्यालय से जुड़ना, प्रेमीजीव "सिंह आण्टी" के घर जाना में जामुन का पेड़ जो कहीं गौरी के अवचेतन में गहरे पैठ गया है।
ससुराल में पौधों की सेवा और उन पर खिले फूलों पर हक़बंदी के बीच एक #गुलाब का खिलना और उससे रूक्षता भरी "पहली मुटभेड़" और चंद औपचारिक मुलाकातें... 
प्रेम की समझ पर हृदय स्पर्शी परिचर्चा ...
"LOVE is merely a word of Thesaurus, without Understanding...!"
विश्वविद्यालय से आदि के साथ लौटने का संयोग बना, तो वैकुण्ठधाम के एक विशिष्ट वृक्ष (कल्पवृक्ष) से कुछ "मनोकामना पूर्ति" का भावनात्मक संयोग...
बस इतनी सी चंद मुलाक़ातें विक्रमादित्य के संग...
और फिर...
प्रखर राष्ट्रवादी गौरी का उसकी अपेक्षाओं के विपरीत विदेश प्रयाण..
जहाँ पर उसके प्रिय "सूर्योदय दर्शन" की कमी उसे बेहद अखरती है...
पति राघव की नौकरी वाली व्यस्तताओं के बीच "कुशाग्र मस्तिष्क की स्वामिनी" वाचाल गौरी सोच सोच कर परेशान...
● "वो चुप रहें तो मेरे दिल के दाग जलते हैं...!"
● "नग्मा ओ शेर की बारात किसे पेश करूँ...!"
इस #उहापोह और #बोरियत भरे विदेश प्रवास के दौरान उसे विदित होता है कि वह राघव के -
"पत्नीम् मनोरमाम् देहि, मनोवृत्तानुसारिणीं..!"
वाली अवधारणा में फिट नहीं बैठती...
बल्कि-
और "कोई और" अँगरेजन उनकी 'मनोरमा' है, जिसके रंग में रंग चुके हैं राघव... इसीलिए राघव गौरी के संग सहज नहीं महसूस करते। बस ज्यादातर 'औपचारिकता' पूरी करते नज़र आते हैं।
वहाँ पर गौरी के संवेदनशील #सितार का मुख्य तार ही टूट जाता है... अचानक उसे लगने लगता है...
कि-
● "मैं तो तुम संग नैन मिला के, हार गयी ...!"
लंदन से वापस लखनऊ उतर कर ससुराल में लौटने पर उसके श्वसुर का आदर्श रूप हृदय से सराहनीय है, जो राघव की करतूतों से लज्जित भी हैं, और वे पिता नहीं बल्कि एक "सानुपातिक सोच वाले जिम्मेदार नागरिक" की भाँति राघव की जमकर क्लास लेते हैं।
#अवसाद ग्रस्त गौरी को सिंह आण्टी के आँगन का जामुन वाला पेड़ याद आता है... सायंकाल कुछ मन की सारंगी की सिसकियाँ सुनाकर ख़ुद को हल्का करने के उद्देश्य से जाती है किंतु उनकी अनुपस्थिति में मिलता है "प्रेम की एक आत्यंतिक समझ" लिए हुए विक्रमादित्य... जिसके कंधे पर गौरी अप्रत्याशित ढंग से #बिखर जाती है... जिसके लिए स्वयं आदि भी तैयार नहीं था, किंतु फिर भी उसने एक मित्र और काउंसेलर का काम यथासंभव अच्छे ढंग से निभाया...
फिर अचानक उसके बनारस (मायके) लौट जाने से हतप्रभ सा विक्रमादित्य कुछ ठगा सा महसूस करता है कि -
"मैं कुछ भी नहीं...
सिर्फ़ एक कंधा भर हूँ गौरी के लिए...?" 🤔
लेकिन फिर राग यमन की सुरीली तान अचानक कानों में गूँजने लगती है...
● "शक्ल फिरती है निगाहों में वही प्यारी सी
मेरे नस नस में मचलने लगी चिंगारी सी...
छू गयी जिस्म मेरा किसके दामन की हवा
कहीं ये वो तो नहीं...?" 🤔
उधर बनारस में नितांत #अकेली गौरी... मीरा बनकर...
● "मेरी आँखों से नींद लिए जाता है..!"
की पीड़ा झेलती हुई सूख कर काँटा हो जाती है...
#अनिद्रा (INSOMNIA) के मनोवैज्ञानिक कारणों पर अनजाने में ही विदुषी लेखिका Shruti Singh ने बेहतरीन तरीके से प्रकाश डाला है।
गौरी के अंदर की जिजीविषा (आयरन-लेडी) उसे बनारस में ही मलामत शाह की ले जाती है, जहाँ पर जीवन को उसके अपने बनाए हुए साँचों में जीने की प्रेरणा मिलती है, जब वो मजार के संरक्षक से "छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके..!" वाला दृष्टांत सुनती है।
और तब #मानिनी गौरी जो बीज आदि के मन में रोप के लौटी थी, उसके अंकुरित होने का उसे पूर्ण विश्वास था...
क्योंकि-
उसने "अंसुवन जल सींच मीरा प्रेम बेल बोई..!" 😭😍😭
इसीलिए उसने मन में ठान लिया था कि-
● "सपनों अगर मेरे तुम आओ, तो सो जाऊँ...!" 👫
उधर दूसरी ओर बाली के समुद्र तट पर ...
"मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंच मिथुना देकमवधीः काम मोहितम्।"
गौरी के दृढ़ प्रेम से उठती हृदय तरंगे लखनऊ से लेकर बाली द्वीप तक बेचैन होकर भागते विक्रमादित्य के "पुरुषोचित अहं" को लगी ठेस पर #मरहम का कार्य कर रही थीं गौरी की आवाज़ें, (खूबसूरत से कर्णप्रिय राग नंद के माध्यम से) इन आत्यंतिक भाव संप्रेषणों के माध्यम से...
● "तू अगर उदास होगा, तो उदास हूँगी मैं भी.. 
नज़र आऊँ या न आऊँ, तेरे पास हूँगी मैं भी..
तू कहीं भी जा रहेगा, मेरा साया साथ होगा...!"
इससे बड़ा प्रेम का #आश्वस्तिप्रदायक वचन एक पुरुष के लिए भला क्या हो सकता है..??
इसी "मनुहार का तो इंतज़ार" था आहत विक्रमादित्य को... 
फिर तो-
बाली से उड़कर सीधा बनारस... 
बिना किसी पते और फोन नंबर के ...
बस "जामुन के पेड़" की खोज में ... 
बनारस के सुंदरपुर की गलियों में...
हर एक से पूछता हुआ...
"हे खग-मृग हे मधुकर श्रेनी,
तुम देखी गौरी #मृगनैनी..?" 🤔
और फिर... 
इस अद्भुत प्रेमकथा की "तार्किक निष्पत्ति" हेतु आपको #मावरा पढ़े बिना चैन नहीं मिलेगा...💐💐💐
आपको "मन मिर्जा, तन साहिबा" वाली
प्रेम की एक "नवीन अवधारणा" और उसकी खुश्बू आदि से अंत तक आपके मन पर तारी रहेगी... (बशर्ते आप इसको हृदय से पढ़ें)...💝
मावरा के कथाशिल्प में आपको प्रख्यात कथाकार #शिवानी जी से लेकर मेरी पसंदीदा #अमृता_प्रीतम तक की झलक मिलेगी ...
और-
क्या चाहिए आपको मात्र 200/= ₹ में...??

Tuesday, 19 July 2016

बाज़ ..


चोट खाया तड़पता बिलखता 
कल एक बाज़ गिरा था ज़मीन पर 
मुँह में ख़ून आँखों में आँसू 
हृदय में पश्चात्ताप , कि जो किया 
उम्र भर क्या वो ठीक था ? 
कितने घोंसले उजाड़े
कितनो को चोट पहुँचायी
पर इसके पहले कि वो दम तोड़ता
लोगों ने आकर बड़े प्यार से
इलाज कर संभाल कर
उसे फिर से उड़ा दिया
और शायद ...शायद
फिर वही सब कर रहा हो
वो अनजाने में ...
कितने अजीब होते है ये
ये कर्म के चक्कर
जन्म के चक्कर

Tuesday, 5 July 2016

अब कुछ ही दिन में
ये आम का पेड़ ..
बीमार है जो कई दिनो से
अपनी आँखें बंद करके
सो जाएगा ... मर जाएगा 
फिर एक साँस तक न लेगा
ये तक भूल जाएगा कि
अपने आख़िरी पलों में
कीड़े जब इसको जड़ से मिटा रहे थे
जब इसका क़तरा क़तरा सूखा था
तब इसकी एक डॉल ने जाने कैसे
एक पीपल को जन्मा है
ज़रा सी हवा में लहराता है जो
बात बात पर ख़ुश हो जाता है
अनजान बेख़बर बहुत छोटा है वो
कौन संभालेगा उसको
कहाँ जाएगा अब वो ...
उस पीपल का क्या होगा ?
आज एक आम का पेड़ देखा अपनी आख़िरी सांसें गिनता पर अपनी गोद में एक नन्हें पीपल को सम्भाले था ।

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Thursday, 23 June 2016

she was love , her love was amazing ...

This poem is dedicated to a mystic ... she was unique , she kept silent throughout her life  ...her love was amazing like her ....

कुछ लेने को नहीं आती थी
वो कभी ...
यहाँ वहाँ भटका करती थी
यूँ ही शिविरों में ...
न कोई सवाल था उसके मन में
न कोई जवाब ही दिया मैंने कभी
बस एक अंतरंग नाता था उससे
एक चुप्पी सधी रहती थी हमेशा
उसके लब पर ..
कोई नाम पूँछे तो बस हस देती थी
मगर जब आती थी तो अपने साथ
एक हवा ले आती थी ...
एक किताब भी लिखी दी उसने
हर पन्ना कोरा था जिसका
हर पन्ना ...
और वो दोबारा नहीं आएगी
इस दुनिया में , यकीन है
सब जी लिया उसने यहाँ
और पाया  बस इतना
कभी बोला भी  तो बस इतना
" शब्द के पार , मौन के पार
मेरा साजन है उस पार "


बस इतना ....



Tuesday, 14 June 2016

behind me - dips eternity
before me - immortality
myself - the term between


मरता नहीं कभी कोई
मौत कहीं नहीं आती
आती तो ज़िंदगी है
कुछ वक़्त को कभी
जैसे ऊम्र दरख्तों की होती
मिट्टी तो बस मिट्टी होती
पर हमेशा होती
जैसे बूँद तो दिखती
बनती बिगड़ती
पर सागर कहाँ से आया
कहाँ कोई जानता ?
अनहद से आई हूँ मैं भी
अनहद को जाना अब
एक वक्फा हूँ बस बीच का
लाफ़ानी हूँ ...


Monday, 13 June 2016

ख्वाज़ा मेरे ख्वाज़ा ...

जैसे बर्फ़ को कोई होश नहीं अब
कोई खबर नहीं फिकर नहीं
घुलने के सिवा
मिटने के सिवा
फ़ना करने के सिवा खुद को
कोई दूसरा रास्ता भी नहीं
वो बुलबुले छोड़ती धुंआ उड़ाती
दाए बाएँ टकराती धीरे धीरे
सरकती जाती है गिलास में
अना को वजूद को पूरा गवाँती
किसी सूफ़ी की तरह
आख़िरकार मिल जाती है व्हिस्की में
ख़ुद व्हिस्की बन जाती है  
कुछ गाने भी होते है व्हिस्की जैसे
बर्फ़ की तरह इंसान बेबस पिघलते जाते है
अल्फाज़ लहू में घुलते चले जाते है
“ख्वाज़ा मेरे ख्वाजा दिल में समा जा “

सफ़रनामा सुन्दर बंस ...My very first writing ...

  1.               यात्रावृतांत ( मेरी पहली कोशिश ) लिखने का सिलसिला बस यही से शुरू हुआ ... 


घुमक्कड़ो और आवाराओं की  ज़िन्दगी में वो ही पल सबसे हसीन होते है जब किसी नई तैयारी का खुराफात दिल में दस्तक दे चुका हो .... सच...  राहुल संस्क्रितायन बचपन से पसंद है हमें उनका वो यादगार ‘अतिथि घुमक्कड़ जिज्ञासा’ अभी तक हमारे ज़हन में हैं, क्लास 12 में पढ़ा था |
 “यादों को कुछ जवां किया जाये, कुछ इत्र ताज़गी का डाला जाये, बेरंग सी ज़िन्दगी में कुछ रंग भरे जाये , कुछ होश में आया जाये , कुछ ख्यालों को साज़ किया जाये “....... ये सिलसिला, ये मोहब्बत  नयी नहीं हैं , पुराना याराना हैं हमारा घुमने फिरने से   ... लेकिन  आज सिर्फ सुन्दरबंस, जिसका नाम ही इतना सुन्दर हो तो अलफ़ाज़ कहाँ से आयेंगे , काबिल अलफ़ाज़, जो उसके मुकाबिल खड़े हो सके , कोशिश करके देखते है  .....
7 सितम्बर , 2013 स्कूल से काम काज निपटाने के बाद  5:35 कि उड़ान भरने वाले थे हम सीधे कोलकाता के लिए, सिर्फ एक अटैची और एक झोला  , संज्ञा सारा और उनके पापा भी ,हम थे या नहीं कहना थोडा मुश्किल है ,घूमते वक़्त हम पूरे होते नहीं एक जगह  , टुकड़ो-टुकड़ो में बट जाते है,जिस्म जहाज़ पर था, दिल उसके भी ऊपर खुले आसमान में, रूह सुन्दरवन में और आँखें जाने कहाँ-कहाँ, यहाँ वहां कुछ पता नहीं ....थोड़ी ही देर में पटना पहुँच चुके थे हम , ( पटना से भी कुछ यादें जुड़ी हैं बचपन कि अपनी बुआ के घर गर्मियों कि छुट्टियों बिताने आये थे  ) .........कुछ लोग आये कुछ गए , जहाज़ फिर आसमान में, समय से 10 मिनट पहले ही पहुँच चुके थे नेताजी सुभाषचन्द्रबोस हवाई अड्डे पर ... समय तो जहाज़ से भी ज्यादा तेज़ भाग रहा था , आँखों में टैक्सी कि खोज और जुबां पर एक सवाल किसी अनजाने से  भाई साहब यहाँ से कालीघाट कि टैक्सी किधर से मिलेगी ?  “ कहाँ से आये हैं आप लोग? हम लखनऊ से हैं ....  सुन्दरवन घुमने आये हैं” , चलिए हम आपको कालीघाट तक छोड़ देते हैं उनका ये कहना और हम सब उनकी हौंडा सिटी के अन्दर  , जनाब शरीफ लगे,  लखनऊ से पुराना ताल्लुक़ रखते थे इसलिए मेहरबान थे, जनरल मेनेजर इलाहाबाद बैंक , ये तार्रुफ़ है उनका | नये कलकत्ता से पुराना कलकत्ता का वो सफ़र भी गज़ब था  ... पूरे शहर में तीन बत्तियों वाले लैंपपोस्ट, तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी के करीब होने का एहसास करा रहे थे  , नयी नयी इमारते , नये ब्रिज , सब ये बता रहे थे पुराना कलकत्ता अभी दूर है, मगर हमारी दिलचस्पी तो उस पुराने 1947 वाले कलकत्ता में थी....पूरे शहर में वो पीली पीली एम्बेसडर खून कि रगों कि तरह दौड़ रही थी, सवा घंटे कि शान कि सवारी के बाद हमसब उनके साथ उनके घर में चाय पीते हुए पाए गए (कड़क चाय थी , लड्डू भी थे वो भी बेसन के ) उनकी पत्नी, उनका बेटा जैसे कब से जानते हो, हम उन सबको बहुत अच्छे लगे, (आज फोन पर बात भी कि हमने ) , कलकत्ता कभी अनजाना नहीं लगा हमें ...... साउथर्न एवेन्यु से अब नयी टैक्सी हावड़ा के लिए .... जहाँ पे बुक था हमारा होटल ! हावड़ा ब्रिज .... हमारे सामने विशालकाय, पर्वर्ताकार , अजीमुशान शेहेंशाह की तरह , लोहे के खम्बो का एक मज़बूत ताना बाना , पसंद आया हमें पहली ही नज़र में , जाने कितनी भीड़ अपने अन्दर समेटे हुए , शान से खड़ा था  , किसी दिग्गज कि तरह  , हुगली का शोर भी कम नहीं था , हावड़ा से जैसे जंग छिड़ी थी उसकी  ,बावली कह रही  ...” हम न होते तो तुम कहा से आते?
 .....यहाँ पर भी अकेले नहीं थे हम , हमारे पुराने मित्र हमसे मिलने हम सबसे पहले होटल पहुँच चुके थे ,खाली हाथ भी नहीं बंगाली रसगुल्लों कि सौगात के साथ ,कुछ तो बात है यहाँ के लोगो में ! साथ में डिनर करके वो तो निकल लिए पर उस सुनहरी सुबह कि तमन्ना ने कब हम सबको नींद के हवाले कर दिया .....जान नहीं पाए .......
जिसका मुझे था इंतज़ार वो घड़ी आने वाली थी .... ऐसा ही कुछ दिल में, फिर क्या एक और गाड़ी होटल के सामने , फिर से एक बार सब गाड़ी के अन्दर, पैकेज टूर (हॉलिडे पैकर्स ) था हमारा  इसलिए इन्तिज़ाम एकदम चुस्त ... प्रवेश करते ही गाड़ी में हमारे टूर गाइड परीमल जी बड़े ही प्रोफेशनल तरीके से हम सब से मिले I शुरू तो बंगला में हुए थे मगर हम सबके चेहरों पर सवालिया निशान देखकर हिंदी पर आ गए बेचारे  .... नाश्ता , पानी सब गाड़ी में ...गाड़ी चल रही थी , मौसम भी थोडा ठंडा था  , रात में हलकी बारिश जो हुई थी  , हम तो पहले ही भीगे थे ख़ुशी कि बारिश से, और क्या पूछना था , नर्म सर्द मिट्टी, उसकी सोंधी सोंधी खुशबु , नयी नयी फिज़ा , ताज़ी आबो हवा सब कुछ मेरे मन मुताबिक चल रहा था  . अरे हाँ ! नाश्ते का वो झोला जो कुछ ही देर पहले इठला रहा था , चोट खाकर पड़ा था किसी किनारे , जीत मेरे बच्चो कि हुई थी , हम खुश क्यों न होते? सर भी तो खुश थे, स्काई ब्लू टी-शर्ट फब रही थी उनपे. रस्ते भर न जाने कैसे कैसे सपने भी चल रहे थे , नज़रे भी तो उन नज़रो का बेसब्री से इंतज़ार कर रही जो हम बहुत जल्द देखने वाले थे, बेकरारी साफ़ झलक रही थी इन आँखों से , लगभग 40 कि.मी. बाद चाय कि ख्वाहिश ने गाड़ी को रुकने पर मजबूर किया, दूसरे शहर कि चाय पीने का अपना अलग ही मज़ा हैं वो सिर्फ चाय कहाँ होती , पूरे बंगाल के जज़्बात थे उस एक प्याली चाय में ,संज्ञा का भी दिल आ गया था उस चाय कि प्याली में , सिर्फ प्याले में, ....चाय ही नहीं कुछ और भी था वहां देखने लायक , वो चाय बनाने वाली लम्बी काया , खूबसूरत , पूरा पूरा ताजमहल ... जैसे कीचड़ में कमल, हमारी ये हालत थी , इनका क्या हाल होगा  ..... खैर बात आगे बढ़ी और घड़ी भी, चाय का नशा और कानो में एयरफोन ( ये वादा रहा)  के गाने , हसरत बढ़ती जा रही थी..... सफ़र रास्ते के ऊंच नीच पार करता आगे बढ़ रहा था जल्द ही हम गोधखली पहुचने वाले थे  (ये गोधखली सज्नेखली सुधायांखली , ये खली खाड़ी का अपभ्रंश है शायद ) , परिमल जी एक किनारे जैसे किसी समाधी में चले गए हो, हम सब ने भी तो छोड़ ही दिया था उनको उनके हाल पर , अपने अपने में मस्त थे सब , थोड़ी थोड़ी धूप थोड़ी थोड़ी छांव पार करते हम आ गए थे अब अपनी मंजिल तक, यहाँ से नौका सवारी , लगभग 30 कि.मी.  ...मगर पानी के जहाज़ में सुन्दरवन तो जैसे शुरू हो चुका था ..... हमारे साथ दो लोग और भी थे , उड़ीसा से आये थे |
एक अंदाज़ से चढ़े थे पानी के जहाज़ पर हम सब ...... जहाज़ भी अब चल चुका था, हम जहाज़ पर  हमारा फोन पर्स से बाहर, सबको बता दिया कि कितने खुश किस्मत है  हम....सुंदरवन में जो है हम, खूबसूरत था सब कुछ, दिलकश किसी सपने कि तरह , पता नहीं कैसा लग रहा था  , पागल होने का मन कर रहा था, जीभर के रोने का मन कर रहा था , ज़माने का दस्तूर है ये कि आप हर वो काम नहीं कर सकते जो आप करना चाहते है , मगर हम भी चुपचाप बैठने वालो में से नहीं थे, टेहेलते रहे पूरे जहाज़ पर , पूरे समंदर को अपने अन्दर समेटे  ......ऐसा क्यों लग रहा था जैसे किसी दूसरी दुनिया में आ गए हो ...
कुछ दूर बाद से सुंदरी के वो बेहद हसीं जंगल रूबरू होने लगा था ...... और बंगाल कि खाड़ी वो जो एक हिस्से में सामने आई थी रंग भरे जा रही थी हमारे ख्वाबो में .......हाई टाइड और लो टाइड वो फैलता सिकुड़ता पानी  ,चिकनी मिट्टी को अपनी बाहों में लिए दूर तलक सैर करता था,  वहाँ के लोग अच्छे से जानते है, हर चार पांच घंटे बाद हाई टाइड और लो टाइड आपसी तालमेल   ....... समझ पाना मुश्किल था कि तस्वीर उतारी जाये , कुछ गाया जाये या बस खामोश हो जाये , इसी उथल पुथल से झूझते रिसोर्ट तक भी पहुँच गए, सज्नेखाली नाम था उस जगह का......
शानदार रिसोर्ट था, शांति ने अपना पूरा कारोबार फैला रखा था , किसी आश्रम के जैसे फीलिंग आ रही थी , बीच में एक तालाब था ,किस्म किस्म के फूल बैंगनी, पीले और गुलाबी भी, लम्बे ऊँचे पेड़, पानी में उनकी छाया जब पड़ रही थी तो जैसे दिन में रात हो गयी हो  ,लकड़ी का एक पुल ,दो तीन झोपड़ियां भी ,एक मंदिर कुछ पुजारी शायद .... कुछ और चंद लोग, भूख ज़ोरो कि लगी थी इसलिए कुछ ज्यादा दिख नहीं रहा था , दोपहर के दो बज चुके थे  , रेस्टोरेंट में भोजन खाया, खाने की हर लज्ज़त अपने बंगाली होने का दावा पेश कर रही थी. साढ़े चार बजे  तक आराम और फिर वोही सब, वही जहाज़ और उसकी हरी हरी कुर्सियां और हम सब.. हमें जाना था सज्नेखाली वॉच टावर पर, पक्की तैयारी थी हमारी  ...जानते थे कुछ नहीं दिखेगा न टाइगर न टाइगर का भूत, टाइगर देखने गया भी कौन था, हमारी आँखें तो कुछ और ही तलाश कर रही थी ... .ये बात और है कि सुंदरवन  मशहूर है अपने रॉयल बंगाल टाइगर और कुछ बहुत ख़ास परिंदों के लिए ,कुछ थोड़े दिखे भी थे , मगर जब दिल खुद परिंदा बन जाये तो बाकि परिंदों कि किसे फ़िक्र ....संज्ञा को बड़ा मज़ा आ रहा था , एक ही सवाल “मम्मी टाइगर कब दिखेगा” और हमारा वही एक जवाब “ बेटा ध्यान से देखो
दिखेगा ज़रूर”  दिखा भी ना ........ पोस्टर्स में होर्डिंग्स पर और हमारा गाइड सिर्फ टाइगर से अपने एनकाउंटर के किस्से सुनाये जा रहा था... पेशे से मजबूर.... इसके बाद एक मैन्ग्रोव इंटरप्रिटेशन सेंटर टारगेट था . हरे रंग कि ईमारत थी . सुंदरवन के कुछ नक़्शे , वहां का इतिहास , कुछ नकली टाइगर शायद कोबरा भी .......बैकवाटर्स का एक टुकड़ा यहाँ पर भी था ..... जिसमे किसी बड़े मगरमच्छ के होने का अंदेशा था , टूरिस्ट सारे दीवाने हुए जा रहे थे उसकी एक झलक पाने को  कोई नहीं देख पाया उस क्रोकोडाइल को ...... सिर्फ मेरी तीन साल कि सारा ने देखा था.......पता नहीं क्या देखा मगर दावा मज़बूत था .....   अब थक गए है बाकी कल ........

फिर से शुरू करते है वहीँ से जहा छोड़ा था कल.... वापस अपने रिसोर्ट आने कि तैयारी थी , शाम भी काफी हो चुकी थी, रिसोर्ट पहुँच कर पता चला , कि रात 8 बजे बंगाली कलाकार अपना सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश करनेवाले है ....... महिशासुर का वध दिखाया था बढ़िया था सब कुछ| रात का खाना खाकर , हमारी यात्रा का पहला दिन ख़त्म हुआ  ...मगर अभी एक पूरा दिन बाकी था, बहुत होता है एक दिन . नींद कब आ गयी होश नहीं कुछ  ....
दुसरे दिन सिर्फ घने जंगले देखने थे  , आज जाना था दोबंकी वाच टावर  ,ये जगह दूर थी थोड़ी मतलब ज्यादा नज़ारे ,ज्यादा मस्ती, ज्यादा नशा ..... रास्ता सच में हसीं था सुंदरी के वो वृक्ष बेमिसाल थे  , असली खूबसूरती इनकी जड़ो में होती है  ,धरती कि छाती फाड़कर ये खुली हवा में बाहर सांसे लेने बिना किसी इजाज़त के निकल आई है बेधड़क होकर .......
..... छोटी बड़ी जड़ें एकदम मोटी पतली नसों का असमंजस थी  ... पेड़ ऊपर जड़ें ज़मीन पर  , धरती आसमान का अनोखा संगम जैसा था, कोई बड़े ऊंचे और विशाल वृक्ष नहीं थे वो मगर , असली मज़ा था इतने सारे एक साथ एक नाप के पानी में अगल बगल या फिर पानी के बीचो बीच , दोनों ही रूप रंगीन थे | वॉच टावर फिर एक बार धोखेबाज़ साबित हुआ , चढ़ाई तो कि बस दर्शन नहीं हुए , तो क्या कोई बात नहीं अब तक तो बच्चे भी परिस्थितियों से समझौता कर चुके थे, न कोई सवाल ना ही उसका जवाब ..... मगर वह तस्वीरे खूब उतारी....
जहाज़ वापस हो रहा था , ये सच में घना जंगल था , दो शानदार हिरन दिखे थे जब  जहाज़ तो जैसे हिल गया था सब कूद पड़े एकदम ! टाइगर दिख जाता गर , दो चार तो अल्लाह को ही प्यारे हो जाते, जो होता है अच्छे के लिए ही होता है, यकीन हो गया था इस बात पर . जहाज़ में नाश्ते  पानी का पूरा प्रबंध था , .....  आज शाम को पास के किसी गाँव में घूमने जाना था मगर दोपहर में बारिश हो गयी थी तो बात बन नहीं पाई ...... कोई बात नहीं शाम का टारगेट हमने खुद ही फिक्स कर लिया ,  
खूबसूरत सूर्यास्त को सलाम करने का  ...पूरा परिवार टकटकी लगाये निहार रहा था, आँखों के नशे से बढ़कर कोई और नशा नहीं ...वो नारंगी पीली सुनहरी सांवली छठा जानलेवा थी ... रात में फिर कुछ ख़ास बंगाली गीतों का आयोजन किया गया था , खूब मज़े किये, नाचे भी, गाये भी, ढोल भी बजाया,
वो सब जो पहले कभी नहीं किया  था.
अपने अन्दर मौजूद इस पागल से हमारी भी ये पहली मुलाकात थी अच्छा लगा खुद से मिलकर  , खुद से मोहब्बत हो गयी थी हमें ....और उस पूरी फिज़ा से भी ..... अगले दिन सुबह चार बजे जगना था , वापसी थी हमारी , यात्रा अब अपने खात्मे पर थी , कुछ कुछ घर कि याद सताने लगी थी , रात भी बीत गयी और वो सुबह आ गयी थी . उदास नहीं थे हम पर कुछ अपना सा था जो पीछे छूट रहा था  .....कुछ तो था शायद कोई कशिश ,किरन , कोई सुबह या फिर रात  , कोई बात, कोई साथ , या फिर कुछ और ....... खुद का हौसला बढाकर कह ही दिया जो कहना था...... 
सैर कर दुनिया कि गाफिल ज़िन्दगी फिर कहाँ ,
ज़िन्दगी गर रही तो नौजवानी फिर कहाँ |
पता नहीं मांडू अब कब नसीब होगा , एक ज़माने से अटके है उस पर भी  ! वो जहाज़ महल वो रानी रूपमती, वो राजा और पता नहीं क्या क्या ........ सिर्फ सुना है !