Search This Blog

Tuesday 31 October 2017

अब लगने लगा है जैसे 
कहीं कुछ नहीं है ही नहीं 
सब ख़ाली है एकदम 
एहसासात ये हृदय ये जिस्म 
कुछ भी नहीं यह सब 
फिर भी कुछ है अगर 
तो बस एक धागा ...
महीन पारदर्शी अदृश्य
मेरा रोम रोम उसी धागे से 
जुड़ा मुझे काल के किसी 
अनजाने छोर से जोड़ता है 
वापिस वहीं खींच लेगा एक दिन 
और उसी अनजाने छोर से 
तू भी बँधा है 
तू भी एकदम ख़ाली है 
मेरी तरह
बीच में कुछ है .. अगर 
तो कुछ कालों का फ़ासला 
और एक धागा....

When a picture is worth a thousand thanks 🙏 
Page 107 , COFFEE TABLE BOOK on SHRI GOPAL DAS ‘NEERAJ’
शायद इसे ही speechless हो जाना कहते है .....और हाँ!! अगर ऊपवाले ने चाहा तो इस क़िताब का लॉंच महानायक अमिताभ बच्चन करेंगे!!

mawra review

 मित्र डॉक्टर आसुतोष द्वारा दी गयी समीक्षा ....💝 #मावरा 💝
"कुछ धड़कनों का ज़िक्र हो, कुछ दिल की बात हो।"
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
● शहनाई की गूँज से शुरू, 
फिर सितार के तारों का टूटना
सारंगी के सिसकते अलाप
शततंत्री वीणा पर 
आदित्य की उँगलियों की सिम्फनी है मावरा...
● मदन मोहन जी के सांगीतिक ज्ञान को
सुनने और समझने की दृष्टि देती है मावरा...
● लता जी के हृदय के आर्तनाद को
कण्ठ में उतरने का रहस्योद्धाटन है मावरा...
● बसन्त ऋतु से शुरू होकर 
जयेष्ठ की तपिश और लू के थपेड़ों में 
झुलसती हुई गौरी के मन पर पड़ती हुई 
आदित्य के प्रेम की शुद्ध बूँदे हैं मावरा...
● राग यमन के श्रृंगार गान से आरंभ होकर 
भीमपलासी के विरह पीड़ा से गुजरते हुए
झिंझोटी की अदम्य जिजीविषा सँजोए
अप्रत्याशित तिलक कामोद तक की 
भावयात्रा है मावरा...
● बनारस से आरंभ होकर, लखनऊ, 
लंदन और बाली के समुद्री तटों पर 
बेचैनी भरे भटकाव का
अंतिम पड़ाव है मावरा..!
_____________________
कहाँ से आरंभ करूँ...
शहनाइयों की गूँज और कश्मीर में हनीमून...
फिर राघव से दूरी का विछोह...
● "उन आँखों में नींद कहाँ जिन आँखों से प्रीतम दूर बसे..!"
इसी बीच में लखनऊ विश्वविद्यालय से जुड़ना, प्रेमीजीव "सिंह आण्टी" के घर जाना में जामुन का पेड़ जो कहीं गौरी के अवचेतन में गहरे पैठ गया है।
ससुराल में पौधों की सेवा और उन पर खिले फूलों पर हक़बंदी के बीच एक #गुलाब का खिलना और उससे रूक्षता भरी "पहली मुटभेड़" और चंद औपचारिक मुलाकातें... 
प्रेम की समझ पर हृदय स्पर्शी परिचर्चा ...
"LOVE is merely a word of Thesaurus, without Understanding...!"
विश्वविद्यालय से आदि के साथ लौटने का संयोग बना, तो वैकुण्ठधाम के एक विशिष्ट वृक्ष (कल्पवृक्ष) से कुछ "मनोकामना पूर्ति" का भावनात्मक संयोग...
बस इतनी सी चंद मुलाक़ातें विक्रमादित्य के संग...
और फिर...
प्रखर राष्ट्रवादी गौरी का उसकी अपेक्षाओं के विपरीत विदेश प्रयाण..
जहाँ पर उसके प्रिय "सूर्योदय दर्शन" की कमी उसे बेहद अखरती है...
पति राघव की नौकरी वाली व्यस्तताओं के बीच "कुशाग्र मस्तिष्क की स्वामिनी" वाचाल गौरी सोच सोच कर परेशान...
● "वो चुप रहें तो मेरे दिल के दाग जलते हैं...!"
● "नग्मा ओ शेर की बारात किसे पेश करूँ...!"
इस #उहापोह और #बोरियत भरे विदेश प्रवास के दौरान उसे विदित होता है कि वह राघव के -
"पत्नीम् मनोरमाम् देहि, मनोवृत्तानुसारिणीं..!"
वाली अवधारणा में फिट नहीं बैठती...
बल्कि-
और "कोई और" अँगरेजन उनकी 'मनोरमा' है, जिसके रंग में रंग चुके हैं राघव... इसीलिए राघव गौरी के संग सहज नहीं महसूस करते। बस ज्यादातर 'औपचारिकता' पूरी करते नज़र आते हैं।
वहाँ पर गौरी के संवेदनशील #सितार का मुख्य तार ही टूट जाता है... अचानक उसे लगने लगता है...
कि-
● "मैं तो तुम संग नैन मिला के, हार गयी ...!"
लंदन से वापस लखनऊ उतर कर ससुराल में लौटने पर उसके श्वसुर का आदर्श रूप हृदय से सराहनीय है, जो राघव की करतूतों से लज्जित भी हैं, और वे पिता नहीं बल्कि एक "सानुपातिक सोच वाले जिम्मेदार नागरिक" की भाँति राघव की जमकर क्लास लेते हैं।
#अवसाद ग्रस्त गौरी को सिंह आण्टी के आँगन का जामुन वाला पेड़ याद आता है... सायंकाल कुछ मन की सारंगी की सिसकियाँ सुनाकर ख़ुद को हल्का करने के उद्देश्य से जाती है किंतु उनकी अनुपस्थिति में मिलता है "प्रेम की एक आत्यंतिक समझ" लिए हुए विक्रमादित्य... जिसके कंधे पर गौरी अप्रत्याशित ढंग से #बिखर जाती है... जिसके लिए स्वयं आदि भी तैयार नहीं था, किंतु फिर भी उसने एक मित्र और काउंसेलर का काम यथासंभव अच्छे ढंग से निभाया...
फिर अचानक उसके बनारस (मायके) लौट जाने से हतप्रभ सा विक्रमादित्य कुछ ठगा सा महसूस करता है कि -
"मैं कुछ भी नहीं...
सिर्फ़ एक कंधा भर हूँ गौरी के लिए...?" 🤔
लेकिन फिर राग यमन की सुरीली तान अचानक कानों में गूँजने लगती है...
● "शक्ल फिरती है निगाहों में वही प्यारी सी
मेरे नस नस में मचलने लगी चिंगारी सी...
छू गयी जिस्म मेरा किसके दामन की हवा
कहीं ये वो तो नहीं...?" 🤔
उधर बनारस में नितांत #अकेली गौरी... मीरा बनकर...
● "मेरी आँखों से नींद लिए जाता है..!"
की पीड़ा झेलती हुई सूख कर काँटा हो जाती है...
#अनिद्रा (INSOMNIA) के मनोवैज्ञानिक कारणों पर अनजाने में ही विदुषी लेखिका Shruti Singh ने बेहतरीन तरीके से प्रकाश डाला है।
गौरी के अंदर की जिजीविषा (आयरन-लेडी) उसे बनारस में ही मलामत शाह की ले जाती है, जहाँ पर जीवन को उसके अपने बनाए हुए साँचों में जीने की प्रेरणा मिलती है, जब वो मजार के संरक्षक से "छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके..!" वाला दृष्टांत सुनती है।
और तब #मानिनी गौरी जो बीज आदि के मन में रोप के लौटी थी, उसके अंकुरित होने का उसे पूर्ण विश्वास था...
क्योंकि-
उसने "अंसुवन जल सींच मीरा प्रेम बेल बोई..!" 😭😍😭
इसीलिए उसने मन में ठान लिया था कि-
● "सपनों अगर मेरे तुम आओ, तो सो जाऊँ...!" 👫
उधर दूसरी ओर बाली के समुद्र तट पर ...
"मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंच मिथुना देकमवधीः काम मोहितम्।"
गौरी के दृढ़ प्रेम से उठती हृदय तरंगे लखनऊ से लेकर बाली द्वीप तक बेचैन होकर भागते विक्रमादित्य के "पुरुषोचित अहं" को लगी ठेस पर #मरहम का कार्य कर रही थीं गौरी की आवाज़ें, (खूबसूरत से कर्णप्रिय राग नंद के माध्यम से) इन आत्यंतिक भाव संप्रेषणों के माध्यम से...
● "तू अगर उदास होगा, तो उदास हूँगी मैं भी.. 
नज़र आऊँ या न आऊँ, तेरे पास हूँगी मैं भी..
तू कहीं भी जा रहेगा, मेरा साया साथ होगा...!"
इससे बड़ा प्रेम का #आश्वस्तिप्रदायक वचन एक पुरुष के लिए भला क्या हो सकता है..??
इसी "मनुहार का तो इंतज़ार" था आहत विक्रमादित्य को... 
फिर तो-
बाली से उड़कर सीधा बनारस... 
बिना किसी पते और फोन नंबर के ...
बस "जामुन के पेड़" की खोज में ... 
बनारस के सुंदरपुर की गलियों में...
हर एक से पूछता हुआ...
"हे खग-मृग हे मधुकर श्रेनी,
तुम देखी गौरी #मृगनैनी..?" 🤔
और फिर... 
इस अद्भुत प्रेमकथा की "तार्किक निष्पत्ति" हेतु आपको #मावरा पढ़े बिना चैन नहीं मिलेगा...💐💐💐
आपको "मन मिर्जा, तन साहिबा" वाली
प्रेम की एक "नवीन अवधारणा" और उसकी खुश्बू आदि से अंत तक आपके मन पर तारी रहेगी... (बशर्ते आप इसको हृदय से पढ़ें)...💝
मावरा के कथाशिल्प में आपको प्रख्यात कथाकार #शिवानी जी से लेकर मेरी पसंदीदा #अमृता_प्रीतम तक की झलक मिलेगी ...
और-
क्या चाहिए आपको मात्र 200/= ₹ में...??

Tuesday 19 July 2016

बाज़ ..


चोट खाया तड़पता बिलखता 
कल एक बाज़ गिरा था ज़मीन पर 
मुँह में ख़ून आँखों में आँसू 
हृदय में पश्चात्ताप , कि जो किया 
उम्र भर क्या वो ठीक था ? 
कितने घोंसले उजाड़े
कितनो को चोट पहुँचायी
पर इसके पहले कि वो दम तोड़ता
लोगों ने आकर बड़े प्यार से
इलाज कर संभाल कर
उसे फिर से उड़ा दिया
और शायद ...शायद
फिर वही सब कर रहा हो
वो अनजाने में ...
कितने अजीब होते है ये
ये कर्म के चक्कर
जन्म के चक्कर

Tuesday 5 July 2016

अब कुछ ही दिन में
ये आम का पेड़ ..
बीमार है जो कई दिनो से
अपनी आँखें बंद करके
सो जाएगा ... मर जाएगा 
फिर एक साँस तक न लेगा
ये तक भूल जाएगा कि
अपने आख़िरी पलों में
कीड़े जब इसको जड़ से मिटा रहे थे
जब इसका क़तरा क़तरा सूखा था
तब इसकी एक डॉल ने जाने कैसे
एक पीपल को जन्मा है
ज़रा सी हवा में लहराता है जो
बात बात पर ख़ुश हो जाता है
अनजान बेख़बर बहुत छोटा है वो
कौन संभालेगा उसको
कहाँ जाएगा अब वो ...
उस पीपल का क्या होगा ?
आज एक आम का पेड़ देखा अपनी आख़िरी सांसें गिनता पर अपनी गोद में एक नन्हें पीपल को सम्भाले था ।

Show more reactions

Thursday 23 June 2016

she was love , her love was amazing ...

This poem is dedicated to a mystic ... she was unique , she kept silent throughout her life  ...her love was amazing like her ....

कुछ लेने को नहीं आती थी
वो कभी ...
यहाँ वहाँ भटका करती थी
यूँ ही शिविरों में ...
न कोई सवाल था उसके मन में
न कोई जवाब ही दिया मैंने कभी
बस एक अंतरंग नाता था उससे
एक चुप्पी सधी रहती थी हमेशा
उसके लब पर ..
कोई नाम पूँछे तो बस हस देती थी
मगर जब आती थी तो अपने साथ
एक हवा ले आती थी ...
एक किताब भी लिखी दी उसने
हर पन्ना कोरा था जिसका
हर पन्ना ...
और वो दोबारा नहीं आएगी
इस दुनिया में , यकीन है
सब जी लिया उसने यहाँ
और पाया  बस इतना
कभी बोला भी  तो बस इतना
" शब्द के पार , मौन के पार
मेरा साजन है उस पार "


बस इतना ....



Tuesday 14 June 2016

behind me - dips eternity
before me - immortality
myself - the term between


मरता नहीं कभी कोई
मौत कहीं नहीं आती
आती तो ज़िंदगी है
कुछ वक़्त को कभी
जैसे ऊम्र दरख्तों की होती
मिट्टी तो बस मिट्टी होती
पर हमेशा होती
जैसे बूँद तो दिखती
बनती बिगड़ती
पर सागर कहाँ से आया
कहाँ कोई जानता ?
अनहद से आई हूँ मैं भी
अनहद को जाना अब
एक वक्फा हूँ बस बीच का
लाफ़ानी हूँ ...