छोटे से फ़रिश्ते देखे
सपने में एक दिन
कानों पर बैठकर मेरे
पर्दे बदल रहे थें
नसों में कुछ खींचतान
पुर्ज़े पुर्ज़े चेक कर रहे
थे
पूँछा तो बोले ...
“ तुम सुनती क्यों नहीं
कचनार के पेड़ देखतो हो
हर रोज़ अपने रस्ते पर
पिकप बिल्डिंग वाले
कितने प्यारे हैं वो सारे
कुछ कहना चाहते हैं
बतियाना है उनको
बातें करती क्यों नहीं ?
तुम कुछ सुनती क्यों नहीं ?
2- बारिश
नावें बनाते थें हम लोग
डाल देते थें एक निशान भी
नांव के किसी कोने पर
कि ये मेरी है , वो तेरी है
घर के पास वाली गली में
पानी भर जाता था जहाँ
छोड़ आते थें उनको
फिर कई कई दिनों तक
बस वही एक सोच
कि कहाँ तक पहुंची होगी ?
अटक न गयी हो कहीं ?
और रात में बरसता था पानी जब
तो फिकर और भी बढ़ जाती थी
अंधरी रात है जोर की बरसात है
महासागरों से गुज़र रही होगी
“ऐ रब्बा मेरी नांव को सलामत रखना “
नांव दिखी थी आज एक
किसी बच्चे ने तैरायी होगी
तो अपनी नांव याद आ गयी
कहते हैं बातें जो करीब हो दिल के
कह देनी चाहिए ...
वरना हम उन्हें भूल जाते हैं |