दवाई जैसी महक अब भी है
यहाँ
नहीं कुछ ..तो यूकेलिप्टस
के वो पेड़
लोहे के उचें घुमावदार गेट
पर
एक डेढ़ मीटर की परछाइयां
झूला करती थी दिन रात कभी
धुंदला धुंदला सा है सब कुछ
पर गरारी की आवाज़...अब भी
है यहाँ
कांच की चूड़ियों के टुकडो
से
बनाये थे जो पुल कभी ,बह गए
सब
पाँव छिल
जाएगा मगर ,
गर पाँव पड़ जाए यहाँ ...
लकड़ी के वो ढेर, हाँ इसी
किनारे पर
हरारत हरारत सी लगती है इसे
शायद , होली जलती थी यहाँ ...
पूरी दोपहर बगीचे में ,
गुडिया की शादी ,खाना पकाना
बर्तनों का तो पता नहीं ,
पर जूठन...अब भी है यहाँ
सकरी सी उस पुलियां में
चलती थी मज़लिस कहानिओं की
कहानी तो सब ख़तम हो गयी
ठप्पे उन कहानियों के
चिपके है अब भी वहाँ
सब कुछ तो वैसा वैसा है
जैसा जो कुछ छोड़ा था
बस बदल गयी है नेम प्लेट
मेरा घर था जहां ....