मुनाजात ....
एक था कांसा बेचारा
एक मेरी फ़ितरत ग़रीब
और बेशुमार थी मांगे
फिर शुरू हुआ सिलसिला
मेरी मांग जाँच का
तू आली है ! तू अकबर है !
अमीर हैं ! तू बसीर है !!
तू देता जा मैं लेती जाऊं
देखो दौलत ज़रूर दे देना
सेहत और जागीर भी
इक़तेदार भी चाहिए मुझे
शोहरत देना तो क़सीदे भी
और हुस्न के साथ मुरीद भी
मांगती रही मैं बेझिझक होकर
तू सुनता रहा खामोश रहकर
पर हसां भी होगा मन ही मन
कि भरकर मेरा पूरा दामन
मेरा कांसा तब भी ख़ाली रहा
दो लफ्ज़ को तेरे मैं तरसा
की
कोई जुनूं मेरी किस्मत न
हुआ
तेरी ख़ामोशी से यह एहसास तो
था
कि ख्वाहिशों की सीढियां
चढ़कर
मै कितना उतर अब आई हूँ
मांगे नहीं हैं अब ज़बान पर
अश्कों ने की फ़रियाद हैं
और ये आख़िरी फ़रियाद है
अब मिटा दे मुझकों मुझसे तू
या मिला दे फिर मुझकों
मुझसे
लगता हैं क्यूँ इस बार मुझे
कि लिया हैं तूने सुन
निदा –ए रब जो आई है
कुन ... फाया कुन
I like it.
ReplyDeleteबहोत सुंदर शब्दों से नवाजा है आपने अपनी इस कविता "मुनाजत" को
ReplyDeleteआपके हर लेखन को समझने के लिए ठीक उसी हुनर कि जरूरत है जो आपके हाथों में हैं...
कुछ है आपकी कविता में जो हमारे हाथ भी नहीं रुक पाये कुछ यूँ लिखने में की:
यह दौलत शोहरत पाने में...
तेरे हाथ बंध गए सांकर से...
किस्मत की अशरफी कुछ खरीद ना सकी..
मुनाजातो के बदले ख्वाहिशे माँग रही?...
तू सुन या ना सुन, मेरी दुहाई को..
पर अब जो भी लेना, यूँ लेना,
कि जिस्म से रूह की रिहाई हो..
यह मांगो का सिलसिला भी फना करो एह खुदा!...
जो ज़ीस्त बक्शी इसे, तो इस फितरत को कर देना ज़ुदा....
preeti with love.......:-)
Bohot achha !! :)
ReplyDeletemast hai faya kun faya hun, behtareen umda age laphz nai hai..........
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